भक्ति काल के प्रेरणा श्रोत
भक्ति काव्य महज सर्जनात्मक साहित्य
नहीं है, बल्कि वह धर्म, संस्कृति और सामाजिक मान्यताओं का पुनर्मूल्यांकन भी है। वह गहरे मानवीय
सरोकारों से उपजा है। उसका प्रयोजन जागृति का है।
संवत 1375 से लेकर संवत् 1700 तक के काल को भक्ति काल कहा जाता है। उत्तर भारत में भक्ति काल के उदय को
लेकर हिंदी साहित्येतिहास में व्यापक विमर्श हुआ है। ग्रियर्सन ने कहा है: ‘‘ हम अपने को ऐसे धार्मिक आंदोलन के सामने पाते है जो उन सब आंदोलनों से कहीं
अधिक विशाल है, जिन्हें भारतवर्ष ने कभी देखा है। यहाँ
तक कि बौद्ध धर्म के आंदोलन से भी अधिक विशाल है क्योकि उसका प्रभाव आज भी वर्तमान
है।’’ भक्ति आंदोलन इतने जोर शोर से कैसे आरंभ हुआ और इसके पीछे कौन से
कारण थे - इस संबंध में कोई एक राय नहीं है। अपने अनिश्चय को व्यक्त करते हुए
स्वयं ग्रियर्सन ने लिखा है: ‘‘ बिजली की चमक के समान अचानक इस समस्त पुराने धार्मिक मतो के अंधकार के उपर एक
नयी बात दिखाई दी । कोई हिन्दू नहीं जानता कि यह बात कहाँ से आई और कोई भी इसके
प्रादुर्भाव का कारण निश्चय नही कर सकता ....।’’ ग्रियर्सन अनुमान से उसे ईसाइयत की देन
मानते है। यह मानना हास्यास्पद लगता है।
इतिहासकार ताराचन्द के मतानुसार भक्ति
काव्य इस्लाम के प्रारंभिक काल में ही पश्चिमी समुद्री तट पर आ बसे अरबों की देन है। यह मत भी
ग्रिर्यसन के मत की तरह ही अप्रमाणिक है। तीसरा मत शुक्ल जी का है। उनके अनुसार: ‘‘ देश में मुसलमानों का राज्य प्रतिष्ठित हो जाने पर हिन्दू जनता के हृदय में
गौरव, गर्व और उत्साह के लिए अवकाश नही रह
गया। उनके सामने ही देख मंदिर गिराए जाते थे, देवमूर्त्तियाँ तोड़ी जाती थी और पूज्य
पुरूषों का अपमान होता था और वे कुछ भी नहीं कर सकते थे। ऐसी दशा में अपनी वीरता
के गीत न वें गा ही सकते थे और न बिना लज्जित हुए सुन ही सकते थे। ..... अपने
पौरूष से हताश जाति के लिए भगवान की भक्ति और करूणा की ओर ध्यान ले जाने के
अतिरिक्त दूसरा मार्ग ही क्या था ? ‘‘ शुक्ल जी हिन्दुओं के पराभव और सम्मान
पूर्वक जीने की लालशा को भक्ति के अभ्युदय का एक कारण मानते है। वे फिर कहते हैं: ‘‘ भक्ति का जो सोता दक्षिण की ओर से धीरे-धीरे उत्तर भारत की ओर पहले से ही आ
रहा था उसे राजनीतिक परिवर्तन के कारण शून्य पड़ते हुए जनता के हृदय क्षेत्र में
फैलने के लिए पूरा स्थान मिला।
शुक्ल जी भक्ति आंदोलत को एक ओर
मुसलमानी आक्रमण से जोड़ते है तो दूसरी और भक्ति की दीर्धकालीन परम्परा से। हजारी
प्रसाद द्विवेदी जी शुक्ल जी से असहमत है। उनका मानना है ‘‘ जब मुसलमान हिंदुओं पर अत्याचार करने लगे तो निराश होकर हिन्दू लोग भगवान का
भजन करने लगे। ..... मुसलमानों के अत्याचार के कारण यदि भक्ति की धारा को उमड़ना ही
था तो पहले उसे सिंध में और फिर उत्तर भारत में प्रकट होना चाहिए था, पर हुई वह दक्षिण में’’। द्विवेदी जी ने यह भी लिखा है कि
भक्ति अचानक बिजली की चमक के समान नहीं फैली बल्कि उसके लिए पहले से मेधखण्ड एकत्र
हो रहे थे तथा यदि मुसलमान न भी आए होते तो भक्ति का स्वरूप सोलह आने में बारह आना
वैसा ही रहता।’’
दरअसल,
भक्ति आंदोलन के
उद्भव के कारणों की छानबीन के संबंध में आचार्य शुक्ल के विचार आचार्य द्विवेदी के
विचार से बहुत भिन्न नहीं है। यदि थोड़ी भिन्नता है भी तो इस अर्थ में कि जहाँ
आचार्य द्विवेदी भक्ति काव्य के मूल में लोक धर्म को देखते हैं, जिसे वे तंत्रों, आगमों,
बौद्ध मत के
परवर्ती रूपों, सिद्धों-नाथों की अन्तर्धारा से उपजा
मानते है जबकि आचार्य शुक्ल उसे मूलतः वैष्णव भक्ति की विकसित अभिव्यक्ति मानते हैं। समानता
की दृष्टि से देखें तो आचार्य शुक्ल भक्ति के विकास में इस्लाम को त्वरित करने
वाला कारक मानते हैं। द्विवेदी जी भी बारह आने की बात करते हुए चार आना श्रेय तो
प्रकारान्तर से इस्लाम को दे ही डालते हैं।
भक्तिकाल गहरे आत्मविश्वास की उपज है। ‘संतन को सिकरी सो का काम’ या ‘अब का तुलसी होहिंगे नर के मनसवदार’ जैसे पंक्तियां इसे सत्यापित करती है। कृष्णोपासना का प्रचार मुसलमानों के
आगमन के बहुत पहले अलवार भक्त कर चुके थे। संत काव्य धारा की प्रवृत्तियॉं भी पहले
से ही सिद्धो-नाथों की रचनाओं में मिल रही थी। लिहाजा आचार्य शुक्ल की इस मान्यता
से सहमत नहीं हुआ जा सकता कि भक्ति काव्य एक हताश जाति की रचना है।
अधिकांश विद्धानों के अनुसार भक्ति
आंदोलन की शुरूआत अलवार भक्तों द्वारा दक्षिण भारत में हुई। अलवारों ने अपनी भक्ति
को जनसमुदाय से जोड़ा तथा कर्मकाण्ड की अनिवार्यता को शिथिल किया था। अपनी
प्रेरणाएँ उन्होंने देश भाषा में ही प्रस्तुत की। भक्ति आंदोलन के सूत्रपात में
शंकराचार्य की देन को विस्मृत नहीं किया जा सकता क्योंकि वैदिक ग्रंथों के
पुनर्मूल्यांकन के सिलसिले में उन्होंने अद्वैतवाद की जो प्रतिष्ठा की और माया के
प्रति जो निषेधात्मक दृष्टिकोण अपनाया उसका विरोध करने के लिए जैसे समस्त भक्ति
आंदोलन उठ खड़ा हुआ। भक्ति काव्य इसी वैचारिक भूमि पर भावना का उद्रेक है। दक्षिण
में आलवार, उत्कल के पंचसखा (बलरामदास, जगन्नाथदास, यशोवंत दास अनन्तदास और अच्युतानन्ददास), असम में शंकर देव, महाराष्ट्र का बारकरी सम्प्रदाय, बंगाल में चतैन्य एवं मध्यभारत में रामानन्द,
वल्लभचार्य आदि
प्रमाणित करते हैं कि भक्ति आंदोलन का स्वरूप देशव्यापी रहा है। यह सही में एक
सांस्कृतिक जन-आंदोलन था।
उत्तर भारत में वैष्णव धर्म का प्रचार
पहले से ही था। जनता स्मृति सम्मत धर्म का अनुपालन करती थी। भारतीय जनता विष्णु के
विविध अवतारों में विश्वास करती रही है। इन अवतारों में भी राम और कृष्ण के अवातर
बहुत लोकप्रिय हुए क्योंकि वे मनुष्य रूप में थे।
उत्तर भारत में भक्ति आंदोलन के
सूत्रपात का श्रेय स्वामी रामानंद को है, उसके बाद महाप्रभु वल्लभचार्य को।
रामानन्द ने दो श्रेणी के भक्तों का मार्गदर्शन किया एक तो उनका जो निर्गुण भाव से
ब्रह्म के उपासक थे दूसरा उनका जो राम की उपासना अवतार रूप में करते थे।
वल्लभाचार्य ने कृष्ण के लीला रूप का प्रचार किया।
प्रेमाख्यानक काव्य सूफी दर्शन से प्रभावित, भारतीय प्रेम के लोक कथा रूप है। इस कारण प्रेमाख्यानक काव्य को सूफी काव्य भी
कहा जाता है। सूफी उदारतावारी थे उन्होने हिन्दू लोक कथाओं को आधार बनाकर हिन्दू
मुसलमान में सौमनस्य स्थापित करना चाहा। इधर हाल में कुछ विद्वानों ने अद्वैतवाद
एवं सिद्धों-नाथों के रहस्यवाद से जोड़कर, प्रेमाख्यानक काव्य धारा को शुद्ध
भारतीय बताया है।
अतः कहा जा सकता है भक्ति काल अखिल
भारतीय सांस्कृतिक संवाद थी उपज है।