तुलसी की सामाजिक-सांस्कृतिक दृष्टि

तुलसी की सामाजिक-सांस्कृतिक दृष्टि

गोस्वामी तुलसीदास ने अपनी रचनाओं में अपने समय की परिस्थितियों का यथातथ्य वर्णन किया है। उस समय समाज की जो दुरवस्था थी उसका निरूपण तुलसी ने कवितावली रामचरितमानस, गीतावली और दोहावली में भी किया है।

समाज में ऊंच-नीच का भेद व्याप्त था। सभी वर्ण अपने-अपने धर्म का पालन नहीं कर पा रहे थे। ब्राह्मण वेद विरोधी हो चला था। लोग ज्ञानियों को नहीं थोथी वकवास करने वालों को पण्डित मानते थे। मिथ्याडम्बर रचने वाले सन्त कहलाते थेः

द्विज सुति बंचक भूप प्रजासन।कोउ नहिं मान निगम अनुसासन।।

मारग सोइ जा कहुं जोइ भावा। पण्डित सोइ जो गाल बजावा।

मिथ्या दम्भ दम्भ रत जोई। ता कह सन्त कहइ सब कोई।।

सामाजिक रूप से शुद्र निकृष्टम समझे जाते थे। समाज में छुआ-छूत चरम पर था। तुलसी जैसे विचारक के लिए इन परिस्थितियों में वैकल्पिक समानता का मार्ग दिखाना आवश्यक था फलस्वरूप तुलसी भक्ति पर सभी का अधिकार बतातें है। निम्न श्रेणी के प्राणी भी भक्त बन सकते हैं। राम ने जंगल में कोल-किरातियों को भी भक्त बनने का अधिकारी दिया था। तुलसी के राम ब्रह्म है। सारी श्रृष्टि उन्हीं की रचना है। राम कहते है कि-

            सब मम प्रिय, सब मम उपजाए। सबसे अधिक मनुज मोहे भाए।।

तुलसी के राम मानते हैं कि यह अखिल विश्व उन्हीं की देन है। तुलसी  के राम यहां भक्ति को लेकर साम्य भावना लाते है। साम्य भावना का मतलब अवसर की समानता हैं। वे इस विश्व को मिथ्या नहीं मानते हैं। वे कहते है कि अखिल विश्व यह मम उपजाया, सब पर मोह बराबर दाया। ये राम अहिल्या का उद्धार करते हैं जो सदियों से पत्थर बनी हुई थी। वे प्रेम वस सवरी के जूठे बेर खाते हैं। तुलसी के राम संबुक ऋषि की बात नहीं करते। न तो इस कथा में तुलसी के राम की आस्था थी न तुलसी की।

तुलसी के इस राम कथा के तीन प्रवक्ता हैं- शिव, याज्ञवल्क्य और काक भुशुंडी उनके तीन श्रोता भी हैं पार्वती, भारद्वाज ऋषि और गरुर। काक भुशुंडी कौआ जाति का है। यह पक्षियों में निकृष्ट है और गरुर पक्षियों में श्रेष्ठ है। काक भुशुंडी के पांडित्य के कारण हीं गरुर उनके शिष्य बनते हैं और उन्हें प्रणाम करते हैं। अर्थ यह है कि यदि निकृष्ट जाति का कोई व्यक्ति गुणी है, ज्ञानी है तो वह पूज्य है। तुलसीदास की आस्था जात-पात में नहीं थीं। उन्होंने  तो भिखारियों की जमात के बीच होश संभाला था। तुलसी कहते है कि मेरी न जात पात, न चाहों काहु की जात पात। अपने जीवन काल में ही तुलसी ब्राह्मणों द्वारा दुत्कारें गये। उन्हें अवधूत योगी कहा गया। तुलसी उनके जवाब में कहते है -

            धूत् कहो अवधूत  कहो  रजपूत कहो  जोलहा  कहो  कोई

            काहू की बेटी से बेटा न व्याहव काहु की जात विगारब न सोइ।

तुलसी के पद इसे स्पष्ट करते है कि तुलसी स्वयं जात पात में विश्वास नही करते थे। तुलसी की राम कथा मे तो मनुष्य ही नही बानर और भालु भी आदर पाता है सब जीवों  के प्रति राम में दया का बराबर भाव है। तुलसी वर्ण व्यस्थावादी है लेकिन उनका वर्णव्यवस्थावाद जातिवाद का पर्याय नहीं है। वह समाज के नियमन और अनुकूलन के लिए है। अयोध्या वापस लौटकर राम चारो वर्णों के लिए चार घाट बनाते हैं लेकिन प्रत्येक घाट पर प्रत्येक वर्ण के लोग स्नान करते हैं वर्णाधारित यह व्यवस्था सुविधा के लिए है सामाजिक भेद के लिए नहीं।

तत्कालीन समाज में स्त्रियों की दशा दयनीय थी। शासकों की रूप लिप्सा बढ़ गई थी और वे नारी को भोग का साधन मात्र मानते थे। सभी लोग नारियों के वशीभूत होकर मदारी के वन्दर की तरह नाचते हैं। सुहागिनी आभूषण रहित हैं, जबकि विधवाएं नित नवीन श्रृंगार कर रही हैं। प्रजा धनहीन है इसीलिए स्त्रियों के लिए केवल उनके केश ही आभूषण रह गए हैं :

नारि बिबस नर सकल गोसाई। नाचहिं नट मरकट की नाई।।

भागिनी विभूषन हीना। विधवन्ह कर सिंगार नवीना।।

        पुरुषों में वासना वृत्ति प्रधान थी। वे कुलवन्ती नारियों को तो घर से निकाल देते थे, जबकि दासियों को घर ले आते थे। कोई भी व्यक्ति बहिन बेटी का विचार नहीं कर रहा थाः

कुलवंति निकारहिं नारि सती। गृह आनहिं चेरि निबेरि गती।

कलिकाल विहाल किए मनुजा। नहिं मानत कोउ अनुजा तनुजा।।

          जिस मध्ययुगीन समाज में रावणों की संख्या बढ़ी हो, दुःशासनों की फौज खड़ी हो, जहाँ सीताएँ अपहरित होती हों और द्रौपदियों का चिर हरण होता हो उस समाज में सम्पूर्ण स्वतंत्रता नारी के अस्तित्व और उसकी अस्मत के बिलकुल विरूद्ध है। तुलसी बर्बर समाज में नारी की नियंत्रित स्वतंत्रता के पक्ष में हैं। सीता के लिए लक्ष्मण रेख सीता की सुरक्षा के लिए है सीता की स्वतंत्रता के विरोध के लिए नहीं। तुलसी ने नारी की स्वतंत्रता को उसकी सुरक्षा के संदर्भ में देखा है और इसलिए लक्ष्मण रेखा खींच करके नारी की नियंत्रित स्वतंत्रता की ओर समाज का ध्यान खींचा है।

    राम को वन भेजने के षड्यंत्र करने वाली कैकयी तक की भावानाओं का ख्याल रखते हैं। वे चित्रकुट में आयी अपनी माताओं में सबसे पहले कैकयी से मिलते हैं ताकि उसे यह भ्रम न हो कि राम ने उन्हें उसके अपराध के लिए क्षमा नहीं किया। वे अपनी प्रिय पत्नी के उद्धार के लिए सागर पर सेतु निर्मित करते हैं। और रावण सहित तमाम राक्षसों को मारकर सीता को मुक्त कराते हैं। यह राम कथा पत्नी प्रेम भी कथा है।

    तुलसी के समय में प्रजा की आर्थिक स्थिति भी शोचनीय थी। बार-बार अकाल पड़ता था। अन्न के अभाव में प्रजा भूखों मर रही थीः

कलि बारहिं बार दुकाल परै। बिनु अन्न दुःखी सब लोग मरै।।

    तुलसी ने कवितावली में बताया है कि किसान को खेती में कुछ नहीं मिलता, भिखारी को भीख नहीं मिलती, व्यापारी के लिए व्यापार नहीं है तथा आजीविका खोजे से भी नहीं मिलतीः

खेती न किसान को भिखारी को न भीख बलि।

बनिक को बनिज न चाकर को चाकरी।।

           वेद विहित मार्ग लोगों ने त्याग दिया है, सदग्रन्थ लुप्त हो गए हैं, धार्मिक व्यवस्था पंगु हो गई हैः

कलिमल ग्रसे धर्म सब लुप्त भए सदग्रंथ।

दम्भिन निज मत कल्पि करि प्रकट किए बहु पंथ।।

    गोस्वामी तुलसीदास ने वेदान्त को लोकप्रिय बनाने के लिए रामानुजाचार्य, निम्बार्काचार्य, विष्णुस्वामी, मध्वाचार्य द्वारा प्रवर्तित भक्ति मार्ग का अवलम्ब ग्रहण किया। सगुणोपासना एवं अवतारवाद के द्वारा उन्होंने जनता में वैदिक धर्म को लोकप्रिय बनाने में विशेष योगदान दिया।

उस काल में राज व्यवस्था भ्रष्ट थी, राजा धर्मपरायण नहीं थे और वे प्रजा को अकारण ही दण्डित करते रहते थे।

नृप पाप परायन धर्म नहीं। करि दण्ड विडम्ब प्रजा नित हीं।।

इस विकट परिस्थिति में भी तुलसी एक नई अवधारणा को सामने लाते है। एक श्रेष्ठ साहित्कार की तरह वे परिस्थिति वास्तविक व्याख्या करते हुए उन परिस्थितियों से उवरने हेतु मार्ग का भी संधान करते है। तुलसी की सामाजिक संरचना में सामंती राजतंत्र की विचार-दृष्टि का प्रतिफलन सर्वत्र दिखाई देता है। गरीबनेवाज, दीनदयालु, कृपानिधान, दलितों-वंचितों के शरणदाता के रूप में सर्वशक्तिमान प्रभु राम की कल्पना से यह स्पष्ट होता है कि गोस्वामी जी सामंती राजतंत्र की व्यवस्था को ही सर्वश्रेष्ठ समझते थे, पर उस व्यवस्था में राजा के पद वे अपने आदर्षो के अनुकूल उदार राजा को अधिष्ठित करना चाहते थे। ऐसा राजा जो सत्य, शील और सौंदर्य की प्रतिमूर्ति हो, अन्यायी का दलन करने वाला वीर और पराक्रमी हो, निर्धन-निस्सहाय लोगों के लिए करुणा-निधान हो और कठिन जीवन संग्राम में अविचलित रहने वाला साधक हो। राजा प्रजावत्सल हो, शरणागत को अभयदान देता हो, राम राज्य की परिकल्पना में तुलसी के ये आदर्श निहित थे। राम राज्य उनकी इसी आशावादी कल्पना की झलक है। राम राज्य के सामाजिक-राजनीतिक आदर्ष के प्रतिलोम के रूप में लंका के राजा का राज्य है। विलासिता, ऐष्वर्य, मदांधता, अविवेक, अनैतिकता और निरंकुशता का प्रतिनिधित्व रावण करता है।

            अपने युग की समस्याओं के समाधान के लिए तुलसी ने राम कथा के आख्यान का जो पुनर्गठित पाठ तैयार किया उसमें कलियुग के प्रतिलोम के रूप में राम राज्य की कल्पना की है। 

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