आषाढ़ का एक दिन : अभिनेयता / रंगमंच की दृष्टि से मूल्यांकण / शिल्प

 आषाढ़ का एक दिन : अभिनेयता / रंगमंच की दृष्टि से मूल्यांकण / शिल्प

    भारतेन्दु की रंगमंचियता, जयशंकर प्रसाद की काव्यात्मकता, लक्ष्मी नरायण मिश्र की बौद्धिकता तथा धर्मवीर भारती के आधुनिक भावबोध को आत्मासात कर मोहन राकेश के निजी दृष्टि की खोज का परिणाम आषाढ़ का एक दिनहै। मोहन राकेश ने हिन्दी रंगमंच को एक आंदोलन की शक्ल में ढाला। वे नाटक और रंगमंच के ढीले रिश्ते को कस देते है। नाटक एक प्रस्तुति-धर्मी कला है। मोहन राकेश मानते है कि नाटक और रंगमंच एक गंभीर  कला माध्यम है जिन्हें निष्ठा के साथ अपनाने की जरूरत है। उन्होंने नाटक में रंगमंचीयता को आवश्यक माना है। नाटक और रंगमंच का रिश्ता सीधा नहीं जटिल और संशिष्ट है। उनका नाटक आषाढ का एक दिन आधुनिक हिन्दी रंगमंच आंदोलन का प्रस्थान बिन्दु माना जाता है। इसके अनेकानेक प्रदर्शनों ने हिन्दी रंगमंच के बिखराव को एक सूत्रता प्रदान की है।

    किसी भी नाटक का नाटकीय विधान उसकी द्वन्द्वात्मकता से सृजित होता है। आषाढ़ का एक दिनकी द्वन्द्वात्मकता कथा वस्तु, चरित्र एवं प्राकृतिक परिवेश में गुथी हुयी है। जेठ की तपती हुयी धरती आषाढ़ के पहले ही दिन धारासार वर्षा से तृप्त हो जाती है। नाटक में वाह्म क्रिया व्यापार का द्वन्द्व उतना नही जितना कि भीतरी क्रिया व्यापार का द्वन्द्व है। पहले अंक में अम्बिका और मल्लिका के बीच का संधर्ष कर्त्तव्य और भावना, यथार्थ और आदर्श के बीच का द्वन्द्व है। कालिदास और विलोम के बीच सर्जनाशक्ति और जीवनाशक्ति, कालिदस और मातुल के बीच जनसत्ता और राजसत्ता के बीच का संधर्ष है। दूसरे अंक में प्रियंगुमंजरी और मल्लिका के बीच का वैसम्य सत्ता दर्प और जन स्वाभिमान के बीच के द्वन्द्व को मुखर बनाता है। मल्लिका में स्वत्व के अपहरण का और प्रयंगुमंजरी में स्वत्व के अपहरण से हुयी क्षतिपूर्त्ति का भाव। तीसरे अंक में कालिदास मल्लिका और विलोम सब टूटे हुए हैं। कालिदास सत्ता और साहित्य, प्रणय और परिणय, राजमोह और सर्जनात्मकता के द्वन्द्व में उलझा हुआ है।  जब वह राजमोह छोड़कर मल्लिका के पास वापस आता है और मल्लिका के गोद में बच्ची देखता है, तो मल्लिका से भी उसका मोह भंग हो जाता है। मल्लिका, अपने ग्राम प्रांतर और प्रदेश को छोड़कर किसी अनिश्चित की ओर कालिदास का बढ़ जाना उसके द्वन्द्व और तनाव को ही सूचित करता है। विलोम के लिए मल्लिका के मन विहीन तन की प्राप्ति उतनी हीं अधुरी है जितना मल्लिका की तन विहीन मन के रूप  में कालिदास के लिए। मल्लिका भी तन और मन के स्तर पर बटी हुयी है। इस नाटक के सारे चरित्र अर्न्तद्वन्द्व ग्रस्त हैं और उनके इस अर्न्तद्वन्द्व से नाटक का पूरा वस्तु-विधान द्वन्द्वात्मक हो जाता है। इससे अनुकूल नाटकीयता सृजित होती है।

     इस नाटक में नाटककार ने चारित्रिक वैसम्य एवं मानव नियति की विडम्बनाओं के लिए कई रंग युक्तियों का सहारा लिया है। पहले अंक में मल्लिका आषाढ़ की पहली बारिस में भींग कर सुख का अनुभव करती है। लेकिन अन्तिम अंक के अन्त में वह अपनी बाहों में बच्ची को लिए कालिदास को पुकारती आगे बढ़ती है लेकिन बारिस में बच्ची को भींगते देख वापस धर आ जाती है। मल्लिका भावना और कर्तव्य को लेकर गहरे तनाव में है । दो अलग-अलग वर्षों में वारिस को लेकर दो अलग-अलग प्रभावों का निरूपण मल्लिका के व्यक्तित्व की परिवर्त्तनशीलता को द्योतिक करता है। इससे जो संकेत व्यंजनाएँ फूटती है वे बहुत मर्मस्पर्शी है। नाटक में मेध के अनेक प्रतीकार्थ है। पानी से जुड़कर जो मेध जीवनदायी लगता है, वही अंधकार और बिजली से जुड़कर दुःखदायी। मेध गर्जन, बिजली एवं वर्षा के दृष्यश्रव्य बिम्ब नाटक में अलग-अलग प्रभाव पैदा करते है।

    इस प्रकार नाटक का शिल्प सुगठित है। नाटक में चरित्रों के घात-प्रतिघात के साथ-साथ चरित्रों की समानान्तरता और व्यक्तित्व के विभाजन में उजागर होते चलते हैं। इस नाटक में नाटककार ने कई नाट्य युक्तियों का सहारा लिया। दूसरे अंक में कालिदास अनुपस्थित रहकर भी अपनी परोक्ष उपस्थिति का एहसास कराता रहता है। अनुपस्थित को उपस्थित बनाने वाली तकनीक बहुत प्रभावोत्पादक है। नाटककार ने बिम्ब योजनाओं के द्वारा भी इस शिल्प को अधिक व्यंजन और काव्यात्मक बनाया है। घायल हरिण शावक राज पुरूषों की क्रूरता से रौंदी हुयी सुकुमारता को बिम्बित करता है। यह कालिदास के व्यथा के बिम्ब को उभारता है। घोड़ों की टांपें राजपुरूषों की क्रूरता को चित्रात्मक बनाती है। गर्जन तर्जन करने वाले मेघ, तन-मन को भिंगोने वाले मेघ, यहाँ-वहाँ आवारा घुमने वाले मेघ, मन की चंचलता को बिम्बित करते हैं। मल्लिका कहती है, ‘‘देखो माँ, चारो ओर कितने गहरे मेघ धिर हैं! कल ये मेध उज्जविनी की ओर उड़ जाएँगे...।’’ यहाँ उज्जैनी की ओर उड़ जाने वाला मेघ कालिदास हीं है। नाटक की शिल्प संरचना और रंग शिल्प चरित्रों की द्वन्द्वात्मकता को अधिक उजागर करती है। रंगिनी, संगिनी, अनुस्वार, अनुनासिक, राज्यधिकारी कालिदास के चिरत्र में आए बदलाव का संकेत देने के लिए आये हैं। ये अपने असंगत सबादों से हास्य भी पैदा करते हैं। इससे एकरसता टूटती है।

    इस नाटक का दृश्य विधान अभिनेयता के बिल्कुल अनुकूल है। नाटक की दृश्य योजना में मल्लिका और अम्बिका की आर्थिक सामाजिक स्थिति, सुरूचि एवं संस्कार द्योतित है। पूरा नाटक एक ही दृश्य की पृष्ठ भूमि में धटित होता है। काल क्रम के साथ दृश्य में परिवर्तन मल्लिका की शारीरिक मांसिक स्थिति में परिर्वतन का सूचक है। डॉ॰ जगदीश शर्मा कहते है एक ही स्थान पर समय की गति के साथ बदलता हुआ परिवेश समाज के हाथों उत्पीड़ित मानव नियति की कथा कहता है। पहले अंक में अम्बिका द्वारा सूप में ध्यान फटकना उसकी कर्म निष्ठा एवं भावात्मक उद्वेलन को तो द्योतित करता हीं है वह खाद्य मल्लिका के जीवन एवं पारिवारिक प्रतिष्ठा में से अखाद्य कालिदास को बाहर निकालने के प्रयास का भी द्योतक है। तीसरे अंक में एक हीं दीपक का जलना मल्लिका के एकाकीपन, उसकी उर्ध्वमुखी भाव निष्ठा एवं अम्बिका के न रहने का संकेतक है। घोड़ों की टाप को सुनकर अम्बिका, मल्लिका और निक्षेप के मन पर अलग-अलग प्रतिक्रियाओं का उभरना भी बहुत व्यंजक है। इस सांकेतिक व्यंजनाओं से नाटक में भावानुकूल अभिनेयात्मकता सृजित होती है। यह सांकेतिकता नाट्य निर्देको को भी अपनी सर्जानात्मक प्रतिमा दिखाने का अवसर उपलब्ध कराती है।

    नाटक में नियोजित प्रकाश व्यवस्था से भी अभिनेयता में मदद मिलती है। विलोम रंगमंच पर अग्निकाष्ठ के साथ उमस्थित होता है। मोहन राकेश अग्निकाष्ठ जैसे इस मंच उपकरण का उपयोग स्पॉट लाइट की तरह करते है। विलोम जब कालिदास पर व्यंग करता है तो अग्निकाष्ठ को कालिदास के मुख के निकट लाता है। विलोम और कालिदास के बीच मल्लिका आ जाती है तो तब अग्निकाष्ठ का प्रकाश मल्लिका के चेहरे पर पड़ने लगता है। फिर विलोम जब कालिदास से मुखातिब होता है तो वह अग्निकाष्ठ का प्रकाश कालिदास के मुख पर छोड़ता है। अंधकार की पृष्ठभूमि में अग्निकाष्ठ से आलोकित चेहरे पर हीं दर्शक का ध्यान टिका होता है। अभिनेता की भावभंगिमा उस प्रकाश में साफ साफ दिखती है। इस प्रकाश व्यवस्था से कालिदास और विलोम के बीच मल्लिका का विभाजन ही संकेतित होता है। यह प्रकाश व्यवस्था नाटक को अधिक अभिनेय बनाने में सहायक है।

    नाटक की सफल रंगमंचीयता का श्रेय नाटक के संवादो को भी है। छोटे संकेतिक व्यंजनाओं से भरे चूभते हुए संवाद नाटक में व्यापक असर छोड़ते है। वे क्रिया व्यापार को गतिशील करने के भी सहायक हैं। संवादों से ही नाटक के चरित्रों की चारित्रिक बिडम्बनाएँ भी प्रत्यक्ष होती है। दूसरे अंक में मल्लिका निक्षेप से राज कर्मचारियों के सबन्ध में कहती है, ‘‘ जानते हैं, माँ इस सम्बन्ध में क्या कहती हैं? कहती है कि जब भी ये आकृतियाँ दिखाई देती हें, कोई न कोई अनिष्ट होता है। कभी युद्ध कभी महामारी!.... परन्तु पिछली बार तो ऐसा नही हुआ।’’ निक्षेप का उत्तर है नहीं हुआ? यहाँ इस संवाद नहीं हुआ से मल्लिका के जीवन में दो हो चुकें अनिष्ट व्यंजित होने लगता है। तीसरे अंक में कालिदास का संवाद ‘‘ मैने कहा था मैं अथ से आरम्भ करना चाहता हूँ। यह सम्भवतः इच्छा का समय के साथ द्वन्द्व था। परन्तु देख रहा हूँ कि समय अधिक शक्तिशाली हैं। यह परन्तु एवं इसके बाद का मौन कालिदास की काल प्रेरित नियति मूलक लाचारी को व्यक्त करता है। तीसरे अंक में भी मल्लिका के 49 पंक्तियों के लम्बे एकालाप को कालिदास का संजीव प्रतीक बना कर मोहन राकेश ने बड़ी चतुराई से इस एकालाप को संलाप में बदल दिया है। उन्होंने इस एकालाप को नौ स्थानों पर विभक्त कर इसकी एकरूपता और लम्बाई को तो तोड़ा हीं है साथ ही अभिनेत्री के सामने वैविध्य पूर्ण अभिनय की चुनौति भी पेश कर दी है। इसके बाद कालिदास का 81 पंक्तियों का संलाप है। कालिदास मल्लिका से संबोधित होकर भी इस संलाप में अपने आप से बातचीत करता हुआ लगता है। यहाँ मोहन राकेश ने संलाप को एकालाप में बदल दिया है। इस संलाप को भी सात स्थानों पर विभक्त कर भाव भंगिओं में परिवर्तन के द्वारा कालिदास में आए परिवर्तन को प्रत्यक्ष कर दिया है। इस संवाद योजना से अभिन्यात्मकता अधिक सहज हो गयी है।

    नाटक की मंज सज्जा रंगमंचीयता के बिल्कुल अनुकूल है। इसे किसी भी मंच (रंगद्वारी मंच, मुक्ताकाशी मंच, अग्रमंच) पर खेला जा सकता है। राम गोपाल बजाज का कहना है कि ‘‘ इस नाटक का कथ्य, कथा और पात्र भले ही भारतीय हो परन्तु इसका टेकनीक, गठन, ढाँचा और स्वरूप  - सबकुछ विदेशी है इसलिए मै मानता हूँ कि इसे अग्रमंच में किया जाए तो अधिक असरदार होगा।

    इस नाटक की भाषा भी सफल अभिनेयता में अहम भूमिका निभाती है। भाषा की तत्समता कालिदास कालिन प्राचीन भारतीय परिवेश और तत्कालिन यथार्थ को व्यंजित करने में सक्षम है। रचनाकार ने कठिन तत्सम शब्दो को पात्रों कि भाव भंगिमाओं, आंगिक चेष्टाओं एवं संकेतो से व्यक्त करने की गुंजाईस छोड़कर इनके अर्थ को सामान्य शिक्षित या अशिक्षित दर्शकों के लिए भी सहज सम्प्रेष्य बना दिया है। इस नाटक की भाषा कम बोलकर के भी अधिक कहती है। इसमें रंग-गतिविधियों के लिए बहुत संभावनाएँ है। निक्षेप कालिदास के बारे में कहता है ‘‘ मुझे विश्वास है कि उन्हें राजकीय सम्मान का मोह नहीं है।’’ अम्बिका कहती है ‘‘नहीं चाहता!..... हूँ!’’ इस नाटक के  दूसरे संस्करण में राकेश ने हूँ! के जगह हँ: कर दिया है। यह मोहन राकेश की विकासशील रंग दृष्टि का परिचायक है। हूँ! में एक खास ढंग की निश्चयात्मकता होती है जबकि हँ: में उपेक्षा, अपमान, तिरस्कार और शंका भाव समहित होता है। हँ: बोलने में गर्दन एक झटके के साथ दाहिने हाथ की और मुड़ती है। इस नाटकी भाषा चरित्रों के विडम्बनाओं को मुखर बनाने के साथ साथ प्रतीक धर्मी और बिम्बधर्मी भी है। कालिदास सर्जानात्मकता का प्रतीक है, मल्लिका इसी की विस्तारित आस्था है। विलोम दुराग्रह की शक्तियों का प्रतीक है। यदि ग्रंथ और मेध कालिदास को प्रतीकित करते है, तो ग्रामप्रांतर और भूमि मल्लिका के स्त्रीत्व के प्रतीक है। नाटक बिम्बों से भी पटा हुआ है। धायल हरिण शावक कालिदास की व्यथा के बिम्ब को उभारता है। घोड़ों की टापें राजपुरूषों  की क्रूरता और मेध मन मी चंचलता बिम्बित करते है।

    नाटक तीन अंको का है। अंकों का बंटवारा दृश्यों मे नहीं किया गया है। नाटककार महत्वपूर्ण पात्रों के प्रवेश के पहले हीं उनके नाम उनकी पहचान और अन्य पात्रों से उसके सम्बंध का संकेत दे देता है। पहले ही अंक में मल्लिका अपने पहले ही संवाद में अम्बिका को माँ पुकारती है। इससे अम्बिका और मल्लिका का संबंध स्पष्ट हो जाता है। मल्लिका और अम्बिका के संवाद के क्रम में कालिदास के उल्लेख के बाद कालिदास का प्रवेश होता है। इससे दर्शक को कालिदास को पहचानने में कोई दिक्कत नहीं होती। मातुल अपने पहले ही संवाद में अपने चरित्र का पता दे देते है। दूसरे अंक में नाटककार निक्षेप द्वारा पहले ही यह बता देता है कि कालिदास का प्रिंयगुमंजरी से विवाह हो चुका है, और वह कश्मीर का शासक नियुक्त किया गया है। एक तो इस नाटक में कम पात्र है आर इन पत्रों के प्रवेश के पहले ही उनके नाम और चरित्र का पता दे देने से दर्शक पात्रों को पहचानने के क्रम में तनाव या बेचैनी का शिकार नहीं होता। रंगिणी, संगिणी, अनुस्वार, अनुनासिक अपने असंगत संवादों से हास्य पैदा करते है। यह हास्य मल्लिका की त्रासदी के कारण उत्पन्न हुए तनाव को शिथिल करता है।

    नाट्य विडम्बनाएँ भी इसकी सफल अभिनेयता का घटक है। जो कालिदास धायल हरिण शावक के प्रति अपनी सहृदयता से दर्शक को प्रभावित करता है वही जब मल्लिका के बाद के हरिण शावक को देखकर अपने को निर्वाशित कर लेता है, तब दर्शक को बहुत निराश करता है।

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