सूर की भक्ति
सूरदास जी ने पुष्टिमार्ग की लीकवद्ध भक्ति को लोकवद्ध बनाया। धर्म में पहले
लोभ, भय, कृतज्ञता के कारण ईश्वर से जुड़ने का विधान था। सूरदास
जी ने लोभ भय, कृतज्ञता का तिरस्कार कर प्रेम को भक्ति का आधार बनाया। वल्लभचार्य जी
के राय के अनुरूप ही सूरदास जी निर्गुण और सगुण दोनों को ब्रह्म का रूप मानते हैं –
'आदि सनातन हरि अविनाशी , निर्गुण सगुण धरे तन दोयि' । निर्गुण साधना ज्ञान साधना
है। सगुण साधना भक्ति साधना है। जो ब्रह्म ज्ञान से जाना भी नही जा सकता वह भक्ति से
पाया जा सकता है। इस कारण भी सूरदास जी के लिए भक्ति का आकर्षण है। सूरदास जी ने कृष्ण
के वय विकास के अनुरूप शांत, दास्य भाव से वात्सल्य, सख्य और कान्त की साधना करते हैं।
सूरदास जी ने विनय के पदों से अपनी भक्ति यात्रा शुरू की। विनय के पद दास्य भाव
के पद है। इसमें भक्त आत्मसमर्पण और आत्म निवेदन के साथ ईश्वर के चरणों में स्वयं को
छोड़ देता है। सूरदास जी ने बिना किसी बिचौलिए के कृष्ण से सीधा संवाद बनाया। इस संवाद
में उन्होंने अपने ही दुःख को नहीं, निरीह जनता की समस्या को प्रभु के समक्ष रखा। उन्होंने
कृष्ण के उज्ज्वलता के समक्ष अपनी मलीनता, उनकी विराटता के समक्ष अपनी लघुता, उनकी कृपालुता के समक्ष अपने लोभ-मोह को समानान्तर करके
रखा है। विनय के पदों में सूरदास जी का आत्मधिक्कार फूट पड़ा है।
प्रभु हौं सब पतितन को टीको
और पतित सब दिवस चारि के हौ तो जनमत हीं कौ।
वात्सल्य भाव की भक्ति में सूरदास जी यशोदा भाव से कृष्ण का स्मरण करते हैं। नन्द और यशोदा कृष्ण के सौंदर्य को देखकर अभिभूत हैं। उनका सौंदर्य
शोभा का सिंधु है। वे चाहते हैं कि उनके नन्हें कृष्ण जल्दी-जल्दी बड़ा हो जाये। नन्द
यशोदा का संयोग वात्सल्य जितना सुखद है वियोग
वात्सल्य उतना ही दुखद। वियोग वात्सल्य में यशोदा की दयनीयता छिपाए नहीं छिपती। वह तो कृष्ण का सानिध्य
पाने के लिए देबकी की दासी होने के लिए भी तैयार है।
सख्य भाव की भक्ति में कृष्ण आदर्श मित्र के रूप चित्रित हैं। गोकुल में माखन
चोरी प्रसंग में, वृंदावन में गोचारण प्रसंग में, मथुरा में उद्धव संवाद में, द्वारिका में सुदामा प्रसंग में, कुरूक्षेत्र मे अर्जुन के साथ रथि-सारथी प्रसंग में
कृष्ण का सख्य भाव प्रकट हुआ है। सख्य भाव समानता का भाव है। उनका आदर्श, सख्य भाव ग्वाल वालों के साथ मैत्री प्रसंग में प्रकट
हुआ है।
कान्त भाव की भक्ति ही माधुर्य भक्ति है। माधुर्य भक्ति श्रृंगारिक भाव का ही
आध्यात्मीकरण है। माधुर्य भक्ति भी दो प्रकार की है - संयोग्यात्मक माधुर्य और वियोगयात्मक
माधुर्य। बाल लीला और किशोर लीला में संयोगात्मक माधुर्य है। गोपियों के कृष्ण रस रूप
है। उनका दही प्रेम दुग्ध में रूप लिप्सा का जोड़न डाल कर तैयार किया गया है। इसे मथने
से जो मक्खन निकलता है वही माधुर्य रस या भक्ति है। सूरदास जी पनघट लीला, मान लीला, दान लीला, रास लीला, माखन चोरी आदि में इस
संयोगात्मक माधुर्य को विकसित करते हैं।
सूरदास जी की भक्ति में एक उर्ध्वारोहन क्रम है। उसके विकास को तीन अवस्थाओं
में देखा जा है - रूपा शक्ति, कामाशक्ति और कामातीताशक्ति।
संयोग श्रृंगार में रूपाषक्ति और कामाशक्ति से संबंधित दोनों अवस्थाएं समाहित है। कामाशक्ति
का चरम है रास लीला। वह देह से देह का ही नहीं मन से मन का समागम है। लेकिन विरह श्रृंगार
में गोपियों का काम दग्ध हो जाता है। वे अपने कामेन्द्रियों को जलाकर कामातीत हो जाती
हैं। जब उद्धव उन्हें भस्म लगाने, योग साधने की सीख देते
हैं, तो गोपियों को उनपर हँसी आती है। जो गोपियाँ रूप पर
लूट चूकी हों वे अरूप को क्यों साधे? विरह गोपियों की आत्मसुधी
का जरिया है। यही गोपियों की प्रेम की गहराई का पता चलता है। गोपियों का प्रेम वासनामय
नहीं है। यह प्रेम यदि वासनामय होता तो उद्धव इससे बिल्कुल प्रभावित नहीं होते। दूसरी
बात कि तब गोपियाँ संयोग की जगह वियोग को क्यों सहती। वे तो कहती हैं ‘उद्यो विरहो प्रेम कहे’! यह प्रेम व्यक्ति से विराट
तक फैला हुआ तप है। गोपियों ने अपनी कृष्ण भक्ति के जरिए यह बता दिया कि ब्रह्म ज्ञान
अभिव्यक्ति मूलक हीं हो सकता है। यदि कृष्ण ने रूप में पुत्र, सखा, प्रेमी वाले संबंध को
अपने में प्रकट किया है तो उन्हें जानने में रूप और ये संबंध सहायक हो सकते हैं। अभिव्यक्ति
ही ज्ञान का सबसे समर्थ साधन है, अनअभिव्यक्ति नहीं। गोपियाँ
जब उद्धव से पूछती है - ‘निर्गुण कौन देस को वासी’ तो यह उनकी मूर्खता नहीं है। अभिव्यक्त बह्म एवं जगत
में उनकी आस्था का यह डंका है।
निर्गुण कौन देस को बासी?
को है जनक, जननि को कहियत, कौन नारि, को दासी?
कैसो बरन, भेस है कैसो केन्हि रस कै अभिलाषी।।
यहाँ जनक, जननी, नारी, दासी, वर्ण, वेशभूषा ही तो जगत है। कृष्ण ने यदि इसी जगत में अपने को अभिव्यक्त किया है तो उसी के
जरिए उन्हें जाना भी जा सकता है। आध्यात्मिक क्षेत्र में राग के तीन चरण है - प्रेम, आशक्ति और व्यसन। प्रेम रूपाकर्षण से शुरू होता है।
यह परिचय और निरन्तर मिलने जुलने से प्रगाढ़ होता है। कृष्ण और राधा गोकुल के गली में
एक दूसरे को देखते हैं और ‘नैन नैन मिली परी ढगोरी’ की स्थिति बन जाती है। आशक्ति प्रेम के पुराने होने
से बनती है। जिस तरह आदत छुड़ाए नहीं छुटती उसी तरह यह प्रेम भी गोपियों से छुड़ाए नहीं
छुटता। कृष्ण ने जैसे उनके अंग-अंग में घर बना लिया है। पुरानी आदत ही व्यसन का रूप
ले लेती है। आदत तो छूट भी जाती है व्यसन नहीं छुटता। वह जान के साथ ही जाता है। गोपियों
का प्रेम व्यसन का रूप ले चुका है। यह व्यसन ही प्रेम की पराकाष्ठा है।
‘लड़िकाई को प्रेम, कहौ अलि, कैसे करिकै छूटत’।
सूरदास की भक्ति पुष्टि मार्ग की भक्ति है। पुष्टि का अर्थ है पोषण। पोषण का
अर्थ है अनुग्रह। कृष्ण की मुरली ही पुष्टि है। वे अपने इस मुरली को बजाकर ही गोपियों
पर प्रेम कृपा बरसाते हैं। यह मुरली ही माधुर्य भक्ति में उद्धीपन का काम करती है।
पुष्टि भक्ति दो प्रकार की है। कारण रूपा और कार्य रूपा। कारण रूपा पुष्टि भक्ति में
साधक प्रयास करके प्रभु का अनुग्रह प्राप्त करता है लेकिन कार्य रूपा भक्ति में भगवान
अपना स्नेह भक्त पर पहले ही बरसा देते हैं और तब वह उनकी और उन्मुख होता है। गोपियों
की भक्ति कार्य रूपा पुष्टि भक्ति है। सूरदास जी ने भक्ति क्षेत्र के लगभग सभी आशक्तियों
का चित्रण किया है, जिसके कारण ही वे कालजयी
कवि हैं। तनमया भक्ति को बजोड़ उदाहरण है -
उर में माखनचोर गड़े।
अब कैसेहू निकसत नहिं ऊधो! तिरछै ह्वै जु अड़े।।