संधा/संध्या
भाषा
हरप्रसाद शास्त्री ने संध्या भाषा को 'प्रकाश-अंधकारमयी'
भाषा कहा है। उनका मानना है कि जैसे संध्या में कुछ
प्रकाश और कुछ अंधकार रहते हैं, उसी
तरह संध्या भाषा में भी कुछ समझ में आता है कुछ समझ में नहीं। पंडित विधुशेखर
शास्त्री का मत है कि वास्तव में यह शब्द 'संध्या
भाषा' नहीं
बल्कि 'संधा
भाषा' है।
संधा शब्द का अर्थ है 'अभिसंधि' सहित या अभिप्राय युक्त। 'अभिसंधि'
का तात्पर्य अभीष्ट अर्थ अथवा दो अर्थों का मिलना है। यहाँ
एक साधारण अर्थ है तथा दूसरा अभिष्ट अर्थ। इसलिये संध्या के धुँधलेपन से इस शब्द
का संबंध बतलाना उचित नहीं है। बिना प्रतीकों का अर्थ जाने इसका अर्थ नहीं लगाया
जा सकता है।
सिद्धों
की रचनाएँ भाषायी अभिसंधि के काल
में मुख्यतः अपभ्रंश और
पुरानी हिंदी में
की गयी है। सिद्धों द्वारा
अपनी आंतरिक एवं साधनात्मक अनुभूतियों
को व्यक्त करने के लिए प्रतीकों का प्रयोग किया गया। प्रतीकों के खुलने पर ही उनके कथन का मर्म
स्पष्ट होता है। इस कारण से इनकी भाषा को
संधा भाषा कहते है।
संधा भाषा वास्तव में इन रचनाओं में प्रयुक्त भाषा शैली है। सिद्धों के 'चर्यापद'
में संग्रहित पदों की रचना रहस्यात्मक ढंग से ऐसी भाषा में
की गई है कि बिना उसके मर्म को समझे इन पदों का अर्थ समझना कठिन है। सरहप्पा की भाषा में संधा भाषा को देखा जा सकता है। सरहप्पा ने पंडितों को फटकारते एवं
अन्ततः साधना पर जोर देते हुए कहते हैं -
पंडिअ सअल सत्थ बक्खाणइ। देहहि बुध्द बसंत ण जाणइ॥
तरूफल दरिसणे णउ अग्घाइ। पेज्ज देक्खि किं रोग पसाइ॥
अर्थात पंडित सकल शास्त्रों की व्याख्या तो करता है, किंतु अपने ही शरीर में स्थित बुध्द (आत्मा)
को नहीं पहचानता। वृक्ष में लगा हुआ फल देखना उसकी गंध लेना नहीं है। वैद्य को देखने मात्र
से क्या रोग दूर हो जाता है?
सरहपा के यहाँ गगन मंडल में जीवात्मा के प्रवेश का व्योरा
इस प्रकार है -
जेहि वन पवन न संचरै, रवि शशि नाहि पवेश
तेहि वन चित्त विसाय करू, सरूहे
कहिए उमेश।
सिद्ध लूइप्पा के चर्यागीत तथा दोहों में भी संधा भाषा के प्रयोग को देखा जा सकता है।
भाव की दृष्टि से बौद्ध धर्म की मान्यताओं को ही घुमा-फिरा कर बताया गया है। जैसे –
काआ तरूवर पंच बिड़ाल। चंचल चीए पइठो काल।
दिट करिअ महा सुइ परिणाम। लूइ भणइ गुरू पुच्छिअ जाण।।”
लूइप्पा के इस दोहे का रहस्यात्मक अर्थ है। इस प्रकार की
रहस्यात्मक प्रवृत्ति परवर्ती सन्त-साहित्य को प्रभावित करती है। इन पंक्तियों को
सरलार्थ है कि काया रूपी वृक्ष को पंच बिडाल नष्ट कर रहे हैं। चंचल चित्त मृत्यु
की ओर ले जाने वाला है। इसका परिणाम महाशून्य है। लूइया कहता है कि इसका रहस्य
गुरू से जानिए।
संधा भाषा के
माध्यम से अपने श्रोताओं को चमत्कृत करते हुए पंडितो को शास्त्रार्थ में पराजित
करना एवं अपना वर्चस्व स्थापित करना सरल था। इस कारण सिद्धों ने एक विस्तृत
क्षेत्र पर अपना प्रचार अभियान चलाया।
इस संधा भाषा की
उपयोगिता के कारण ही नाथों के यहाँ भी इसका उपयोग व्यापकता से किया गया। गोरखनाथ कहते हैं नाथ बोले अमृत
वाणी, बरसेंगी कम्बली भीजेंगा पानी।‘
कबीर आदि संत कवियों ने भी संधा भाषा का प्रयोग अपनी रचनाओं में
किया है। कबीर की
ऐसी ही भाषा को 'उलटबाँसी' कहा जाता है। कबीरदास जी की उलटबाँसी भी
सिद्धो-नाथों की उलटबाँसियों से प्रभावित है। कबीर या अन्य संतो के नाम पर जो
उलटबाँसी मिलती हैं उनमें कुछ तो उनकी अपनी है कुछ पूर्ववर्ती साधकों की और कुछ
उनके शिष्यों द्वारा उनके मत्थे मढ़ी गयी।
उपर वर्णित सरहप्पा के यहाँ गगन मंडल में जीवात्मा के
प्रवेश का व्योरा कबीरदास जी के नाम पर हलके शब्द भेद के इस प्रकार मिलती है-
जेहि बन सिंह न संचरै, पँखि
उडै नहीं जाए।
रैन दिवस का गम नहीं, तहाँ कवीरा रहा लौलाए।।
इसी तरह गोरखनाथ की उक्ति भी कबीर के नाम पर इस रूप में
प्रचलित हैं ‘कबीर
दास की उलटी वाणी, बरसेगा
कम्बल भींजेगा पानी।
उलटबाँसिया दरअसल अध्यात्मिक मार्ग को इस जगत मार्ग से
विपरीत बताने के लिए हैं। बिना प्रतीकों का अर्थ जाने इन उलटवासियों का अर्थ नहीं
लगाया जा सकता। कबीर की एक उलटबाँसी हैः
एक अचम्भ देखा रे भाई, ठाड़ा
सिंह चरावै गाई।
पहले पूत पीछे भई माई, चेला
के गुरू लगै पाई।।
मैने एक अचम्भा देखा। सिंह खड़ा खड़ा गाय चरा रहा था। पहले
पुत्र जन्मा, बाद में माता ने जन्म लिया।
गुरू चेला के पैर लग रहा था। तात्पर्य - स्वभाव संस्कार एक प्रकार का सिंह है बुरी
आदतों का अभ्यस्त हो जाने पर सब कुछ चीर फाड़ कर रख देता है पर यदि उसे साध लिया
जाय तो गाय चरा लेने जैसा भोलापन प्रदर्शित करता है। फिर हानि के स्थान पर लाभ ही
लाभ करता है। आत्मा माता है मन पुत्र। पर आत्मबोध मन को सुसंस्कृत बनाने के बाद
होता है। इस प्रकार पुत्र पहले जन्मा और माता पीछे। आत्म ज्ञान गुरू है और संसार
ज्ञान चेला। संसार ज्ञान के उपरांत आत्म ज्ञान होता है। इस प्रकार चेला का पैर
गुरू नमन करता है।
ये संत अपने निर्धन श्रोताओं को विश्वास में लेने के लिए, उनपर
से पंडित वर्ग के ज्ञान के आतंक को खत्म करना चाहते थें। इसलिए उनके लिए जरूरी था
पंडित वर्ग को निरूतरित करना।
आगि जो लागा नीर मे कादो जलईया झाई।
उत्तर दक्षिण के पंडिता मुए विचारी विचारी।।