हरिजन गाथा का मूल्यांकन
राजनीति
और साहित्य में एक गहरा सम्बंध है। मनुष्य की राजनीतिक क्रियाएँ साहित्य में ही
स्थायी अभिव्यक्ति पाती है। नागार्जुन के लिए राजनीति और साहित्य के रिश्ते का बड़ा
महत्व है। उन्होंने समाजिक धटनाओं पर एक जागरूक कवि की तरह प्रतिक्रिया की है।
हरिजन गाथा बिहार के बेलछी गाँव में हुए हरिजन दहन की प्रतिक्रिया में ही लिखी गई
कविता है। इसमें नागार्जुन ने उन अर्द्ध-सामंती शक्तियों को कठधरे में खड़ा किया है
जो सामाजिक परिवर्तन के विरूद्ध यथास्थिति बनाए रखने के लिए निर्दोष श्रमजीवियों को जिंदा जलाते है। ये
शक्तियाँ नहीं चाहती कि शिक्षा एवं जनतांत्रिक अधिकार खेतिहार मजदूरों तक पहुँचे, कृषि दास स्वतंत्र हों और वे अपना काम स्वयं करें।
इसलिए ये शक्तियाँ मजदूरों में पनप रही जागृति और अधिकार चेतना को कुचलने के लिए
धर्मांघता एवं जातीय हिंसा का सहारा लेती है।
नागार्जून
ने इस कविता में जिस सामाजिक संरचना का उल्लेख किया है उसकी जड़े बहुत गहरी और
पुरानी हैं। इसमें सवर्ण एवं मध्य जातियाँ के लोग प्राय: भूमिपति है और अवर्ण
प्रायः भूमिहीन। दोनो की जीविका भूपतियों के खेतों में किए गए श्रम पर निर्भर करती है। जब इन्हें श्रम का उचित पारिश्रमिक नहीं
मिलता है तो इनका असंतोष फूटता है, पर भूपत्ति इनके असंतोष को मिटाने के लिए मुँह खोलने
वालों का अस्तित्व ही मिटा डालते है।
हरिजन
गाथा तीन खण्डों में समाप्त होती है। पहले खण्ड में इस दुष्कर्म का व्योरा है
जिमसें सौ-सौ मनुपुत्र किरासन तेल के कनस्तरों, मोटे लक्कड़ों का इस्तेमाल कर खोदे गए गड्ढे को
हवन कुण्ड बनाते हुए तेरह दलित मनुपुत्रों को उसमें जिंदा झोक देते है। थाना को सूचना दे दी गई थी, पर
थाना बेअसर बना रहा। तभी तो यक भीषण नरमेध बिना रोक टोक के सम्पन्न हुआ, कवि
इस खण्ड में आढ बार ऐसा तो कभी नहीं हुआ था
टेक पंक्ति को दुहरा कर धटना की बर्बरता एवं वहशीपन का अहसास कराता है। इस
खण्ड में धटना का प्रवक्ता स्वयं कवि है। दूसरे खण्ड में दलित गुरू महाराज की
भविष्यवाणी है। तीसरे खण्ड में नवजात शिशु कलुआ और उसकी माँ को झरिया गिरिडीह, बोकारो
में कहीं अपनी जाति के मजदूरों के बीच रख आने के संकल्प एवं तैयारी का विवरण है।
प्रथम
खण्ड में नरमेध की कथा कहने वाला व्यक्ति दूसरे खंड में स्वयं को प्रवक्ता के पद
से हटा लेता है तथा नर मेध झेलनेवाली बस्ती से ही खदेरन और बुद्दू को चुनककर प्रवक्ता
के रूप में खड़ा करता है। जिन तेरह अभागे मनुपुत्रों को जला दिया गया उनमें से ही
किसी एक की पत्नी सुखिया चमारिन एक नवजात शिशु को जन्म देती है। इस बिरादरी के दो
बुढे खदेरन और बुद्धू इस बच्चे का विचित्र हुलिया देखकर चकित हैं। यों तो बंधूआ
मजदूरों की इस बस्ती में पैदा होने वाले बच्चों का भविष्य मिट्टी गोड़ते, ढेला फोड़ते, हैवानों की तरह जिंदगी
गुजारते , बनमानुष की तरह अधपेटे अधनंगे
होकर डोलते-भटकते निर्मित होता है। इन्हें सामाजार्थिक परिवर्तन का लाभ नहीं मिला, न्यूनतम
मजदूरी एवं भूमि सुधार कानून भी इन्हें राहत नहीं दिला सके। फलतः ये गाँव के शोषण, उत्पीड़न
से तंग आकर झरिया, गिरिडीह, बोकारो
जैसे शहर की ओर भागते है और वहाँ कुली मजदूर बनकर अपना दोजख भरने का उपाय करते
हैं। खदेरन और बुद्धू को लगता है कि ऐसा न तो देखा था, न
सूना ही था आज तक इसलिए कलुए बच्चे के लम्बे कान, छोटी
पर तेज आखें जिनसे तेज रौशनी फूट रही है तथा हाथ के निशान उन दोनों बुजुर्गों को
विस्मित कर देते है। वे दोनो रैदासी कुटिया के गुरू महाराज को बुलाते हैं।
रैदासी
कुटिया के गुरू महाराज संत गरीब दास तेंहरवें दिन दलित बस्ती में आते हैं। दलित संत
का रेखा चित्र है
बकरी
वाली गंगा जमुनी दाढी थी;
..........
कद था नाटा,
सूरत थी साँवली,
कपार
पर बाई तरफ घोड़े के खुर
का
निशान था
चेहरा
गोल-मटोल, आँखे थी घुच्ची
बदन कठमस्त था.........।
संत
गरीबदास ने शिशु की हथेलियों के निशान देखकर कहा यह बच्चा सचमुच अवतारी बराह है
तथा सारी धरती इसकी लीलाओं का चरागाह है। यह बालक मजदूर वर्ग का नायक, वर्ग संधर्ष की ऋचाओं का निर्माता तथा नये वेद का गायक होगा। इसके दाये
हाथ की रेखाओं में ही खुखरी, वान, असि, गँड़ासा आदि हथियार के निशान उभरे हैं। ये चारों
हथियार तेरह हरिजनों के संहार के तेरह दिनों बाद उसकी हथेली पर प्रकट हुए
है। यह संयोग आकस्मिक नहीं है, नैमितिक है। यह किस्मत की रस्सी से बंधा हुआ
नहीं है करोड़ों शोषितों वंचितों की किस्मत
उससे बंधी हुई है। वही भारतीय समाज की भविष्य है, सामाजिक न्याय नीति का
निर्धारक है। जब तक वह बड़ा नहीं हो जाता उसे सुरक्षित स्थान पर पहुँचाना होगा। रचनाकार
ने इस वर्णन में पृथ्वी के उद्धारकर्त्ता महावराह के अवतार के मिथक का धार्मिक- दार्शनिक पक्ष रखते हुए उसे निम्न वर्गीय नायक
कलुआ के द्वारा समाज दर्शन से जोड़ दिया है।
यहाँ धर्म दर्शन और समाज दर्शन एक दूसरे से आकर मिल जाते हैं। कवि ने उसके जरिए मिथक इतिहास और समाज के विकास की
दिशा को एक सूत्र में पिरो दिया है।
संत
गरीब दास की भविष्यवाणी में समाजवादी दर्शन एवं कल्पना लोक का मिश्रण है। बालक के
भविष्य दर्शन के साथ उनकी सलाह है- इस बालक को जल्दी भागओं नहीं तो फेरे लाग रहे
गीदड़ इसे नोच खाएँगे,
जिन भूमिधरों ने तेरह को मिटाया, वे इसे भी मिटा देंगे। इसे झरिया, गिरिडह,
बोकारो जहाँ सुरक्षित हो भेज दो। वह वहीं
फौलादी साँचे में ढलेगा। बड़ा होकर जुल्म मिटाएगा। यह जनबल धनबल का सही सार्थक
उपयोग कर सामाजिक समता लाएगा। यह लुम्पेन आवारो (आवारों) को नियंत्रित करेगा।
इसकी अपनी श्रमिक पार्टी होगी। बड़े -बड़े लोग इससे मिलने के लिए लालायित होंगे। इस
लधुमानव के अभियान से शोषण की जड़े हिलेंगी। यहाँ नागार्जुन लुम्पेन सर्वहारा की
भागीदारी के कारण वामपंथी आंदोलन जिस तरह दुषित एवं दिशा हीन हुआ उसकी ओर भी इसारा
करते हैं।
कविता
के तीसरे खण्ड में अपने भावी नेता की रक्षा करने के लिए बालक को छिपाकर बाहर भेजने
की तैयारी कर वर्णन है। बच्चे की माँ सुखिया,
उसकी दादी, बुद्धु
एवं खदेरन चारों बच्चें को झरिया गिरिडीह या बोकारो ले जाने की योजना बनाते है
क्योंकि यहीं उनकी बिरादरी के कुली मजदूर मिलेंगे।
यह
कविता जातीय युद्ध से शुरू होती है और सामाजिक समता और न्याय के भविष्य की प्रस्तावना
लाती है। यहाँ कवि अपने समय के इतिहास की भयावहता का साक्षात्कार तो करता है साथ
ही सुखद भविष्य के दर्शन को भी सामने लाता है। कवि का लक्ष्य है सामाजिक आर्थिक समानता
तक पहुँचना।