'अंधेर नगरी' का कथ्य या प्रतिपाद्य /यथार्थ-चित्रण/ प्रासंगिकता/ प्रहसन
प्रहसन हास्य रस का मुख्य नाट्यरूप है। अंधेरनगरी में परिहास
उसके शिल्प का अभिन्न अंग है। इस प्रकार 'अंधेर नगरी' प्रहसन लगता है। इसके स्थापत्य में नीतिपरक आग्रह एवं लोकशैली का
खुलापन भी है। शारदातनय के अनुसार प्रहसन में केवल एक अंक होता है। भारतेन्दु ने
अपने 'नाटक' नामक
लम्बे निबन्ध में प्रहसन के सम्बन्ध में लिखा है- "यद्यपि प्राचीन रीति से इसमें एक ही अंक होना चाहिए, किन्तु
अब अनेक अंक दिये बिना नहीं लिखे जाते।" भारतेन्दु जी ने फार्म को लचीला बनाने एवं
समकालीन परिस्थितियों की माँग के अनुरूप
अंधेर नगरी की रचना छः अंकों के प्रसहन के रूप में की ।
प्रहसन के केन्द्रीय तत्व हैं- हास्य और व्यंग्य। अंधेर नगरी में
ये दोनों तत्व घुले-मिले हैं। सिर्फ एकाध स्थल पर परिहास का स्तर सतही लगता है
जैसे 'पान खाइए महाराज' को शराब के नशे में धुत्त राजा 'सुपनखा आइए महाराज' सुनकर
डर जाता है, किन्तु
ऐसे संवाद को भी नाटकीयता के द्वारा मुक्त हास्य में बदला जा सकता है। गुरू-चेला
के संवाद से भी हास्य की सृष्टि होती है, लेकिन
उसका कारण सधुक्कड़ी भाषा है। हास्य तो वैसे हर संवाद एवं क्रिया-व्यापार में है,
किन्तु वहाँ वह चरम ऊँचाई प्राप्त कर लेता है जहाँ राजा स्वयं स्वर्ग जाने के लालच
में फाँसी पर चढ़ जाता है। गोबरधनदास गाता
है- साच कहें तो पनही खावैं। झूठे बहुविधि पदवी पावै। क्या यह नैतिक-मूल्यों के धराशायी होने की सूचना नहीं है? थोड़े
और बुरे रूप में यह स्थिति आज भी मौजूद है। तभी तो घूमिल 'अंधेर नगरी' की रचना के
लगभग नब्बे वर्ष बाद 'पटकथा' में लिखते हैं-
अपने यहाँ आदमी को अपनी ईमानदारी का मलाल क्यों है,
जिसने सच कह दिया है, उसका बुरा हाल क्यों है
सामाजिक मूल्यों की यह पकड़ ही 'अंधेर नगरी' को
आज की तारीख में भी प्रासंगिक बनाती है।
भारतेन्दु जनता से सीधा संवाद स्थापित करनेवाले लेखक थे। 'अंधेर नगरी' में
उन्होंने सामान्य जनता की समस्या (बकरी मरने की समस्या) को नाटक का केन्द्रीय
बिन्दु बनाकर सांस्कृतिक मोर्चे पर साम्राज्यवादी सत्ता एवं तर्क-शुन्य औपनिवेशिक
मानसिकता के खिलाफ संघर्ष करते हुए देखा जा सकता है। वे बतलाते है ‘‘कि
अन्याय वर्षा करने वाली अघोषित, मूर्खतापूर्ण
नीति के फंदे में केवल प्रजा ही नहीं फँसती, बल्कि
स्वयं राजा भी फँसता है। 'अंधेर नगरी' की
"टके
सेर भाजा, टके सेर खाजा" वाली समातावादी नीति भी एक आकर्षक छलावा है जिससे गोबरधन दास
जैसी लोभी जनता छली जाती है।
'अंधेर नगरी' छः अंकों में पूरा होता है। इसकी कथावस्तु में लोकानुकृति है।
भारतेन्दु ने इससे अंधेर नगरी चौपट राजा की लोक कथा लेकर समकालीन राजनीतिक चेतना
का अर्थ भर दिया है। व्यंग्य के तीखेपन से लेखक केवल राज्य सत्ता पर ही नहीं, ब्राहमण के बिकाऊ मनोवृत्ति, मुनाफाखोरी, नौकरीशाही एवं मुफ्तखोरों की लोभवृत्ति पर भी प्रहार करता है। यह
प्रहसन यदि आज भी प्रासंगिक बना हुआ है तो अपने इन्हीं सवालों की वजह से । इसकी
कथा जिस मासूमियत के साथ हास्य-व्यंग्य का धूप छाही मेल करती है उसकी वजह वह लोकरस
है जो प्रहसन की संरचना में ही निहित है।
'अंधेर नगरी' के प्रथम अंक मे एक गुरू एवं दो चेलों के प्रसंग को रखा गया है
तथा उस उपदेश को भी, जिसमें गुरू ने कहा है -
लोभ पाप का मूल है, लोभ मिटावत मान।
लोभ कभी नहिं कीजिए, या
मैं नरक निदान।।
बाद में चेला गोबरधनदास जब फाँसी के फँदे तक पहुँचता है तब इस
उपदेश की सार्थकता समझ में आने लगती है। साथ बड़ी चतुराई से नाटककार यह भी जतला
देता है कि आजकल उपदेश इसीलिए दिया जाता है कि उसे न माने जाय।
दूसरे अंक में बाजार एवं उसमें गोबरधनदास द्वारा किए गए भ्रमण का
प्रसंग है। यहाँ कवाबबाला, घासीराम, नारंगीवाली, हलवाई, कुंजड़िन, मछलीवाली, जातवाला, बनिया वगैरह अपनी-अपनी बोली में अपने सामान की ब्रिकी करते हैं।
इनकी तुकबन्दी वाली बोली ही इनके माल का विज्ञापन है। एक विज्ञापन -
चना चुरमुर-चुरमुर बोले। बाबू खाने को मुँह खोले।
चना खावै तौकी मैना। बोलैं अच्छा बना चबैना ।।
'अंधेर नगरी' में बाजार का दृष्य काफी जीवंत है। व्यावसायिक संस्कृति को
विज्ञापन की सहायता से व्यापक एवं लुभावना बनाने के पूर्व की यह स्थिति है। इसमें
कबाबवाला चने जोर गरमवाला, नारंगीवाली, हलवाई, कुंजड़िन, मेवाफरोश
तत्कालीन बाजार के यथार्थ चरित्र हैं। ये अपना सामान भी बेचते हैं और समाज के
चरित्र एवं हालात पर टिप्पणी भी करते हैं। घासीराम कहता है: "चना
हाकिम सब जो खाते। सब पर दूना टिकस लगाते ।।" कुंजड़िन की दृष्टि में चरित्रों में
कोई भेद नहीं है "जैसे काजी वैसे पाजी।"
इस
बाजार में एक जात बेचनेवाला ब्राह्मण भी है जो पैसा लेकर मनोनुकूल व्यवस्था देता
है - शूद्र को ब्रह्मण एवं ब्राह्मण को शूद्र बनाता है। वह रूपये के लिए झूठी
गवाही देने, धर्म
और प्रतिष्ठा बेचने, पाप
को पुण्य कहने के लिए तैयार है। मुगल पठान के चरित्र में जो गर्व एवं दिलेरी है, उसका
भौगोलिक एवं ऐतिहासिक आधार है। पठानों ने अंग्रेजों के छक्के छुड़ाए थे। वह कहता
है:"आमारा
ऐसा मुल्क जिसमें अंगरेज का भी दाँत कट्टा ओ गया।"
पाचकवाला
समानान्तर व्यवस्था चलानेवाले मुनाफाखोरों, रिश्वतखोरों, महाजनों
आदि पर कटाक्ष करता है। अंग्रेजों की उपनिवेषवादी, विस्तारवादी नीति की ओर भी वह इशारा करता हुआ कहता है: "चूरन
साहब लोग जो खाता। सारा हिन्द हजम कर जाता ।"
इस बाजार का उसूल समतावादी है। साग से लेकर मेवा तक सब कुछ टके
सेर। तीसरे अंक में गुरू महन्त जी अंधेर नगरी चौपट्ट राजा की नीति में भावी अनिष्ट
देखते हैं और नगर छोड़कर चले जाते हैं। गोबरधनदास सस्ती मिठाई खाने के लोभ में गुरू
की आज्ञा नहीं मानता है और उसी नगर में रह जाता है।
चौथा अंक राजसभा का है। कल्लू बनिये की दीवार गिर पड़ने से किसी
की बकरी दबकर मर जाती है। फरियादी चौपट्ट राजा के दरबार में फरियाद करता है। राजा
उस दीवार को पकड़कर लाने के लिए कहता है जिससे दब कर बकरी मरी। जब मंत्री समझाता है
कि दीवार नहीं आ सकती तो वह एक-एक कर कल्लू बनिया, चूनेवाला, भिश्ती, गड़ेरिया और कोतवाल को बुलवाता है। बचाव में सबकी सफाई
सुनता है और अन्त में कोतवाल को दोषी पाकर फाँसी की सजा सुनाता है। कोतवाल के
भाग्य से फाँसी का फंदा बड़ा था और कोतवाल दुबला।
पांचवा अंक में फंदे की गोलाई के अनुरूप मोटी गर्दनवाले असामी की
तलाश के क्रम में गोबरधन दास के पकड़े जाने का चित्रण है। गोबरधनदास खूब
रोता-चिल्लाता है और गुरू की आज्ञा न मानने के लिए खुद को कोसता भी है। छठे अंक
में वह सब ओर से निराश होकर गुरू को याद करता है। गुरू आते हैं और उनकी तरकीब से
गोबरधनदास छूट जाता है प्रहसन का अन्त अजीबोगरीव है - स्वर्ग जाने के लालच में
अंधेर नगरी का राजा स्वयं ही फाँसी लगा लेता है।
'अंधेर नगरी' का रचनाविधान काफी लचीला है इसलिए इसमें रंगमंचीय प्रयोग की
अनेकानेक संभावनाएँ हैं। इसके जो पद्यात्मक संवाद हैं, उनमें
नृत्य एवं संगीत की गुंजाइश है। इन संवादो के भीतर से ही हास्य एवं व्यंग्य उपजते
हैं। जब गोबरधनदास सुनता है कि यहाँ हलवा, जलेबी, गुलाबजामुन एवं खाजा-सब कुछ टके सेर है तो वह सानन्द पूछता है, " क्यों
बच्चा, मुझसे मसखरी तो नहीं करता"
उल्लास
की यह सहजता स्वाभाविक हास्य की सृष्टि करती है।
प्रहसन आकार से बहुत ही छोटा है, पर
इसके सभी पात्र वर्गीय चरित्र हैं। इसकी भाषा पात्रों के अनुरूप है, गुरू भी चेले को 'बच्चा नारायण दास' या 'बच्चा गोबरधनदास' बोलते हैं।
"देखें, कुछ
भिच्छा-उच्छा मिले तो ठाकुर जी का भोग लगे।" यहाँ
ठाकुरजी का भोग प्रकारान्तर से गुरूजी का ही भोग है। दोनों में यहाँ पर्यायता है।
सधुक्कड़ी भाषा का यह यथार्थ-रूप है। पात्रों के संवादों में उच्चकोटि की कथन
भंगिमाएँ हैं। चूंकि संवादों में पात्र का खास ख्याल रखा गया है, इसलिए
इनसे पात्रों का चारित्रिक वैशिष्टय भी उजागर होता है।
'अंधेर नगरी' की अंधेरगर्दी अंग्रेजी शासन-व्यवस्था की खामियों को ही सामने
लाती है। देश की हवा और मिट्टी से भारतेन्दु का गहरा लगाव था। उनके नाटक सिर्फ
मनबहलाने के लिए नहीं हैं, बल्कि
उनके जरिए वे देश की अनपढ़, अशिक्षित, जनता
को राजनीतिक दृष्टि से जागरूक, जन-चेतन
बनाने का भी प्रयास कर रहे थे।
'अंधेर नगरी' कुशासन का प्रतीक हो गया है। जब व्यवस्था में अराजकता उत्पन्न
होती हैं, कानून
का शासन ढीला पड़ता है, रंगकर्मी
अंधेर नगरी के मंचन की ओर लपकते हैं।
List Contents
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