कामायनी में अभिव्यक्त प्रसाद का जीवन दर्शन

 

कामायनी में अभिव्यक्त प्रसाद का जीवन दर्शन


कामायनी का दर्शन तत्कालिन सामाजिक जीवन दृष्टिकोण का ही वाचक है प्रसाद अपने समय की सामाजिक समस्याओं के प्रति सजग और जन जीवन के प्रति संवेदनशील है। प्रसाद जी अन्य भारतीय दार्शनिकों की तरह इस जीवन जगत के मिथ्यात्व में आस्था नहीं रखते। वे रहस्यवादी हैं लेंकिन उनका रहस्यावाद भी ज्ञात सत्य से परे किसी अरूप सत्ता की ओर इशारा नहीं करता। प्रसाद जी तो स्थूल और सूक्ष्म, जड़ और चेतन को एक ही तत्व की अवस्था के रूप में देखते हैं। न तो सूक्ष्म स्थूल से अलग हैं और न चेतन जड़ से। कामायनी के प्रारंभ से ही उन्होंने जड़ और चेतन के नकली भेद का विरोध किया है-

    नीचे जल था उपर हिम था, एक तरल था एक सधन,  

एक तत्व की ही प्रधानता- कहो उसे जड़ या चेतन।

जड़ का अर्थ है पदार्थ। पदार्थ को देखकर ही आकांक्षा, कल्पना या चेतना जागती है। इसलिए इस पदार्थ से हटकर चेतना की कल्पना करने पर वह शून्य नहीं होगी। प्रसाद ने चेतना को किसी शून्य में ढूँढने के बजाए इसी जीवन जगत में ढूँढा है। प्रसाद जी अद्वैतवादी हैं लेकिन उनका अद्वैतवाद वेदान्त का अद्वैत नहीं है, क्योंकि वे इस जगत को प्रतिभाषिक सत्ता कहकर उसे त्यागने की सलाह नहीं देते। वे तो अपने अद्वैत को इसी संसार में देखते हैं-

अपना दुःख सुख से पुलकित, यह भूत विश्व स चरा चर

चिति की विराट वपु मंगल यह सत्य सत्त चिर सुन्दर।

प्रसाद जी की राय में यह जड़ विश्व ही चर अचर है। यह सुख और दुःख के द्वन्द्वात्मक संबंध से बंधा हुआ है। प्रसाद जी इस जड़ विश्व को ही सत्य, शिव और सुन्दर बनाने का संकल्प लेकर चलते हैं। उनके इस अद्वैतवाद का ही सामाजिक रूप है मानवतावाद। प्रसाद जी ने कामायनी में इस मानवतावाद के प्रतिनिधि पात्र के रूप में श्रद्धा को खड़ा किया है। श्रद्धा रागात्मिक वृत्ति का प्रतीक है। वह आस्था और विश्वास का ही मूर्तिमान रूप है। वह काम गोत्रजा है। अस्तित्व में सहज आस्था का ही नाम श्रद्धा है। विश्व कल्याण में वह अपने जीवन की सार्थकता ढूंढती है। उसका संदेश है विजयनी मानवता हो जाए। उसके परिचय में कामायनीकार ने कहा है कामायनी, विश्व की मंगल कामना अकेली। यह मनु को मानवता का प्रशस्थ पथ दिखाती है। मनु में भटकाव है विचलन है। यह विचलन परस्पर विरोधी प्रवृत्तियों के कारण है। मनु कभी तो आत्मावादी हो जाते हैं तो कभी विवेकवादी। कभी उनका आत्मवाद अतिशय हार्दिकता के कारण उश्रृंखल भोगवाद का रूप ले लेता है और कभी उनका विवेकवाद अतिशय बौद्धिकता के कारण दुःखवाद या तप वैराग्य का रास्ता पकड़ लेता है। प्रसाद जी ने अतिशय दुःखवाद तथा अतिशय भोगवाद दोनों का विरोध किया है। इसलिए तो उन्होंने कामायनी में दुःखवाद और विवेकवाद में समन्वय स्थापित किया है। न अतिशय भौतिकता काम्य हो सकती है और न ही वैराग्य काम्य हो सकता है। कामायनी में जब भी मनु में तप या वैराग्य का भाव जागता है तो श्रद्धा उन्हें रास्ते पर लाती है। मनु में कभी तो तप या वैराग्य की प्रवृत्ति मिलती है तो कभी भोग की। प्रसाद जी ने बताया कि वैराग्य और भोग की प्रवृतियों का उद्गम एक ही है और वह है जीवन की क्षणभंगुरता का बोध। प्रसाद जी शिव से प्रभावित रहे हैं। शिव जोगी भी है और भोगी भी। मनु के भीतर योगी और भोगी का समाहार दिखाकर प्रसाद ने यह बताने की कोशिश की है कि यह द्वन्द्व न केवल शिव का है, न मनु का यह सनातन मानवता का द्वन्द्व है। इस द्वन्द्व से छुटकारा दोनों प्रवृत्तियों के समन्वय से ही संभव है। श्रद्धा दुःखवाद का विरोध करते हुए कहती हैः

दुःख के डर से तुम, अज्ञात जटिलताओं का कर अनुनय,

काम से झिझक रहे हो आज भविष्यत से बनकर अनजान।

      इच्छा हीं पाप का मूल है। यही इस संसार से जोड़ती है। जीवन जगत से परानमुख होने के लिए उन्होंने इच्छा से दूर जाना जरूरी समझा। प्रसाद जी चूकि सभी जीवन जगत की सत्यता में विश्वास करते हैं इसलिए उन्होंने इच्छा के अनदार की नहीं समाहार की बात की। श्रद्धा मनु से इच्छा को अपनाकर सृजन के लिए प्रेरित करती हैः

काम मंगल से मंडित श्रेय सर्ग इच्छा का है परिनाम

तिरस्कृत कर इसको तुम भूल बनाते हो असफल भवधाम।

      इच्छा ही विकास और प्रगति के मूल में है। श्रद्धा इसी इच्छा से कर्म और भोग की चक्रीय प्रक्रिया को गतिशील करती है। उनका दर्शन इसी संसार को कर्म के जरिए आनन्दमय बनाने का है। यदि कामायनी जीवन की मंगल कामना है तो इस जीवन को कर्ममय बनाकर ही मंगलमय बनाया जा सकता है। जीवन तो कर्म और भोग के चक्र में उलझा है फिर इसमें वैराग्य और तप के लिए अवकाश कहाँ है। श्रद्धा मनु से कहती हैः

एक तुम यह विस्तृत भू खंड अखिल वैभव से भड़ा अभंग

कर्म का भोग, भोग का कर्म यही जड़ का चेतन आनंद।

      कर्म और भोग की यह चक्रीय प्रक्रिया इस जीवन को ही अर्थवान बनाने के लिए है। मनु यदि कैलाश पर जाते हैं तो यह पलायन नहीं है व्यक्तिगत सक्रियता से अवकाश लेकर सामुहिक जीवन की ओर अभिमुखता है।

      सारस्वत प्रदेश में मनु इड़ा के विज्ञानवाद और कर्म संगठन की सहायता से एक औद्योगिक सभ्यता निर्मित करते हैं। कल-कारखानों, बड़े-बड़े क्षेत्रों से जो पूंजीवाद विकसित हुआ उसमें श्रम का संतुलन नहीं था। श्रम के ही असंतुलित बटवारे की वजह से वर्गों की सृष्टि हुयी। जिनके हाथ में पूंजी आयी। उनके साथ शक्ति भी जुड़ी और वे उसी पूंजी और शक्ति के बल पर दूसरों के जीवन को दुर्भर बनाने के लिए नियम भी बनाने लगेः

श्रम भाग वर्ग बन गया जिन्हें

अपने बल का है गर्व उन्हें

नियमों की करनी सृष्टि जिन्हें

      इस असंतुलन के कारण ही एक वर्ग शोषक हो गया और दूसरा शोषित। मनु जनता के सेवक थें वे उसके शासक बन गए। जब उन्होंने इड़ा पर भी अधिकार करना चाहा, जनता हिंसक संघर्ष पर उतर आती है।

      इड़ा संगठित होकर मनु को ललकारती है- आ यायावर? अब तेरा विस्तार कहाँ है। प्रसाद ने दिखाया है कि पूंजीवाद से ही जनतंत्र और जनतंत्र से ही अधिनायकवाद पनपता है। मनु श्रद्धा के साथ कैलाश की ओर प्रस्थान करते हैं। कैलाश पर तीन जाज्वल्यमान बिन्दु हैं। श्रद्धा के मुसकुराते ही उनमें एक विद्युत की रेखा सी दोड़ जाती है और तीनों बिन्दु मिलकर एक हो जाता है। त्रिपुर प्रदेश के ये तीनों बिन्दु इच्छा, ज्ञान और क्रिया है। इनमें एकता का अभाव ही जीवन की बिडम्बना है। ये तीनों जैसे ही एकीकृत होते हैं जीवन की विडम्बना भी खत्म हो जाती है। मनु श्रद्धा की सहायता से कैलाश पर समरसतावाद की स्थापना करते हैं। इड़ा जब मानव एवं अन्यों के साथ मनु से मिलने कैलाश पर आती है वह कहती हैः हम एक कुटुम्ब बनाकर यात्रा करने हैं आये। मनु जबाब देता है-

शापित न यहाँ कोई तापित पापी न यहाँ है,

जीवन वसुधा समतल है समरस है जो कि जहाँ है।

यह है मनु का समरसतावाद। मनु कहते हैं- 'देखो कि यहाँ पर कोई भी नहीं पराया'। मनु का समरसतावाद समन्वयवाद है। यह मानवता की उच्च भूमि है।

      अन्ततः कह सकते हैं कि कामायनी अद्वैतवाद से शुरू होती है और अद्वैतवाद में खत्म होती है। इसका अद्वैत यदि सामाजिक स्तर पर मानवतावाद है तो सांस्कृतिक स्तर पर समरसतावाद है।


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