चित्रकूट सभा का महत्व
रामचरितमानस के
मार्मिक प्रसंगो में से एक चित्रकूट-प्रसंग है जो अयोध्याकाण्ड में नियोजित किया
गया है। जिस समय राम को वनवास दिया गया उस समय भरत-शत्रुध्न अयोध्या में नही थें।
दशरथ की मृत्यु के उपरान्त गुरू वशिष्ठ ने दूत भेजकर भरत को अयोध्या बुलावाया तथा
अयोध्या में आकर जब भरत को अपनी माता कैकेयी की करतूत का पता चला तो वे ग्लानि एवं
दुःख के भावों से भर गए। उन्हें लगा कि अयोध्या के निवासी यह समझ रहे होंगे कि
कैकेयी की कुकृत्य में भरत भी सम्मिलित हैं। भ्रातृप्रेम से भरे हुए भरत गुरू वशिष्ठ
से आज्ञा लेकर सम्पूर्ण समाज सहित राम को मनाने
के लिए चित्रकूट जा पहुंचे और वहां एक सभा का आयोजन किया गया, जिसमें सभी लोगों ने
अपने विचार व्यक्त किए और भरत ने अयोध्या के राज्य को अपने लिए स्वीकार करने से
साफ इन्कार कर दिया। उन्होनें कहा कि यह राज्य राम का है, राम का रहेगा। भले ही
पिता ने यह राज्य मुझे दिया हो, पर मैं इसे स्वीकर नहीं कर सकता। राम ही अयोध्या के राजा हैं और
उन्हें ही यह राज्य स्वीकार करना चाहिए। यदि किसी को वन जाना ही है तो मै वन
जाऊंगा, राम अयोध्या लौटकर अपना राज-पाट संभालें। राज्य के लिए लोग संघर्ष
करते हैं, किन्तु यहां त्याग का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत किया गया है। न राम राज्य
को स्वीकार कर रहे हैं और भरत उसे स्वीकार करतें हैं।
चित्रकूट में राम-भरत
का जो मिलन हुआ वह भ्रातृ स्नेह, शील एवं सदाचार का अद्भुत उदाहरण है। भ्रातृ प्रेम से भरे हुए भरत राम
को मनाने नंगे पैर जाते हैं। वे रथ पर बैठना स्वीकार नहीं करते, उनके पैरों में छाले
पड़ गए है। सुख सुविधा के साधन उपलब्ध होने पर भी वे उन्हें स्वीकार नहीं करते।
मेरे राम जब पैदल वन को गए हैं तो मुझे रथ में बैठने का कोई अधिकार नहीं है।मार्ग
में जब कोई व्यक्ति यह कह देता है कि हमने राम को सकुशल वन में देखा है तो वह
व्यक्ति उन्हें राम के समान ही प्रिय लगता है।
चित्रकूट में जब भरत
को सेना आते हुए लक्ष्मण ने देखा, तो समझा कि ये राम पर चढ़ाई करने आये हैं। उस असवर पर लक्ष्मण को क्रोध, राम के प्रति उनके
भक्ति भाव को दर्शाता है। किन्तु राम को भरत के शील पर कभी शंका नहीं हुई। वे तो
यहां तक कह देते हैं कि भरत को ब्रह्मा बिष्णु महेश का पद पाने पर भी अहंकार नहीं
हो सकता -
भरतहि होइ न राजमदु, बिधि हरि हर पद पाइ।
(ब्रहा, विष्णु और महादेव का
पद पाकर भी भरत को राज्य का मद नहीं हो सकता)
चित्रकुट में राम
सबसे पहले कैकेयी से मिले, क्योंकि वे जानते थे कि कैकेयी को सर्वाधिक पश्चाताप हो रहा है। वह
ग्लानि से गली जा रही है। राम ने उसे यह कहकर दोषमुक्त कर दिया कि आपने कुछ नही
किया, जो कुछ हुआ वह तो ईश्वर की इच्छा थी -
अम्ब ईस आधीन जगु, काहु न देइअ दोषु।
(जगत ईश्वर के अधीन है
किसी को भी दोष नहीं देना चाहिए।)
चित्रकूट की सभा में
नीति, स्नेह, शील, सदाचार, त्याग का जो अद्वितीय उदाहरण प्रस्तुत किया गया, धर्म की जो ज्योति
प्रस्फुुटित हुई उसके आलोक से सर्वत्र धर्म का अद्भुत प्रकाश फैल गया। वहीं
जनकपुरी से मिथिला नरेश भी अपनी रानी
सुनयना के साथ आ गए। चित्रकूट में एक सभा का आयोजन किया गया। यह सभा एक आध्यात्मिक
धटना थी, इतने महान लोगों का एक स्थान पर सम्मिलन। धर्म के उस स्वरूप को देखकर
लोग मोहित हो गए। धर्म, नीति, भ्रातृप्रेम, स्नेह, एवं त्याग का जो स्वरूप उस सभा में राम, भरत, जनक, वशिष्ठ, आदि के द्वारा
प्रस्तुत किया गया उसका कोई जवाब नहीं है।
सबकी इच्छा है कि राम अयोध्या लौट चलें, किन्तु राम इसे
स्वीकार नहीं करते। वे बड़ी विनम्रता से कहते हैं कि इस सभा में वशिष्ठ, विश्वामित्र, आदि धर्मज्ञों के
साथ-साथ, महाराज जनक भी हैं। वे लोग जो निश्चय करेंगे, वह हमें स्वीकार
होगा।
चित्रकूट सभा से कुछ उल्लेखनीय तथ्य इस प्रकार हैं-
1. राजा और प्रजा का सम्बन्ध यहां देखने को मिलता है। अयोध्या की प्रजा
राम से इतना स्नेह करती है कि उन्हें मनाने के लिए भरत के साथ चित्रकूट तक आयी है।
2. भरत के भ्रातृ स्नेह की अद्भुत झलक इस प्रसंग में है।
3. ऋषि एवं गुरू के सम्मुख प्रगल्भता प्रकट करने के भय से राम और भरत
अपने मत व्यक्त करते हुए संकोच का अनुभव करते है।
4. राम का सभी माताओं से - विशेषतः कैकेयी से प्रेमपूर्वक मिलना उनकी
निश्छलता का द्योतक है।
5. सीता के आचरण को देखकर जनकजी यह कहकर उनकी प्रशंसा करते हैं-
पुत्रि पवित्र किए
कुल दोऊ। सुजस धवल जगु कह सबु कोऊ।।
(बेटी तूने दोनो ही
कुल पवित्र कर दिये। तेरे निर्मल यश से सारा जगत उज्ज्वल है ऐसा सब कोई कहते हैं।)
6. सीता के शील, संकोच एवं पति भक्ति अनुकरणीय है। पिता के डेरे में जाकर माता के पास
बैठी सीता को जब देर हो जाती है तो वे असमंजस में पड़कर सोचती हैं -
कहति न सीय सकुचि मन
माहीं। इहाँ बसव रजनीं भल नाहीं।।
(सीता जी कुछ कहती
नहीं है परंतु मन में सकुचा रही है कि रात यहाँ रहना अच्छा नहीं है।)
7. सीता अपनी सासों की सेवा करके वधू धर्म का निर्वाह करती हैैं।
8. अन्त में यह निश्चित होता है कि भरत अयोध्या की व्यवस्था राम के
प्रतिनिधि के रूप में करेंगे। राम ही अयोध्या के राजा होंगे। भरत राम की खड़ाऊँ
मांगकर उन्हें सिर पर धारण कर लेते हैं तथा खड़ाऊं को सिंहासन पर प्रतिष्ठित कर राम
के प्रतिनिधि के रूप में राज्य का संचालन करते हैं।
9. भरत नंदिग्राम में तपस्वी के वेश में रहकर वही दुख स्वयं उठाते हैं जो
राम को वन में भोगना पड़ रहा है।
10. चित्रकूट प्रसंग ‘त्याग’ का अद्भुत उदाहरण है। अयोध्या के राज्य को न भरत स्वीकार करते हैं और
न राम उसे लेने को तैयार है।
निष्कर्ष रूप में कह सकते है कि मानस का चित्रकूट प्रसंग एवं वहां सभा
का आयोजना एक महत्पूर्ण धटना है जो भ्रातृस्नेह, शील, सदाचार एवं त्याग का
अद्वितीय उदाहरण प्रस्तुत करती है तथा तुलसी की प्रबन्ध पटुता का भी परिचय देती
है।