दिनकर के कुरूक्षेत्र का मूल्यांकन
रामधारी
सिंह दिनकर जी ने महाभारत के पौराणिक आख्याण को कुरूक्षेत्र में आधुनिकता के साथ प्रस्तुत किया
है। यह आधुनिकता कहीं कहीं इतनी प्रभावी हो जाती है कि पाठक इसके पौराणिक संदर्भ
को छनभर के लिए भूल जाता है। इस काल में द्वितीय विश्वयुद्ध की भयावहता हीं कवि की चिंता का तात्कालिक कारण
है। इसके आलोक में कवि ने महाभारत कालिन युद्ध एवं युद्ध पश्चात् की चिंताधाराओं का आकलन किया है और फिर ढूंढा
है एक सुलझा हुआ उत्तर।
कुरूक्षेत्र
में स्वलाप की पद्धति अपनायी गयी है। एक ही व्यक्ति जैसे मन के दो खण्ड हो गए हों ओैर
ये दोनों खंड बाद विवाद पर उतर आए हों। यह व्यक्ति मन किसी और का नहीं स्वयं कवि
का मन है। कवि के एक मन का प्रतिनिधित्व युधिष्ठर करते है और दूसरे का भीष्म।
युधिष्ठर और भीष्म के संवाद के माध्यम से जैसे कवि का अभ्यंतर बोल उठा है।
युधिष्ठर और भीष्म का संवाद पाठक को जब-तब गीता के अर्जुन और कृष्ण के संवाद की
याद दिला देता है।
दिनकर
जी ने कुरूक्षेत्र में महाभारत पश्चात् की परिस्थितियों का आधार लेकर युद्ध की
प्रासंगिकता-अप्रासंगिकता पर विचार किया है। और चाहा है मानवतावाद के शक्ति
श्रोतों की खोज करना। क्या युद्ध हर समस्या का समाधान है। क्या अन्यायी पर कहर
बनकर टूट पड़ना ही मनुष्य की नियति है? युद्ध पाप है या पुण्य है? जैसे
प्रश्नों से कुरूक्षेत्र का पाठक टकराता है। कवि ने ही अनुभव किया है कि यदि
युद्ध एक ओर असंतोष और असमानता की उपज है तो दूसरी ओर यह मानव संबंधों और मानव
मूल्यों का हवन कुंड है। युद्ध से कुछ बने या न बने टूटता अवश्य है। युद्ध अन्याय
भी चाहता है और अन्याय से मुक्ति पाने वाला भी। इन सारे प्रश्नों का उत्तर मिले
या न मिले लेकिन इसका निष्कर्ष निकलता है कि युद्ध समस्या का एक समाधान है -
तातकलिक समाधान। यह युद्ध कमजोड़ो को गिराकर सबलों को सत्ता सौंपता है। कुछ छनों के
लिए ही सही उन्हें निरापद बनाता है।
कुरूक्षेत्र
में युधिष्ठर की शंका ही केन्द्रीय चिंता है। युधिष्ठर के मन में रह-रह कर शंकाए
उठ रही है। ये शंकाएं युद्ध से हासिल जीत पर सामुहिक हित को ध्यान में रखकर किए गए
विचार का परिणाम है। युधिष्ठर ग्लानी ग्रस्त है। वे शांति के लिए भीष्म के पास
जाते हैं। वे अपने मन की शंका खोलते हुए कहते है कि अहंकार ने मेरे विवेक पर पर्दा
डाल दिया था। इसलिए मैंने युद्ध से होने वाले सम्भावित नुकसान पर विचार नहीं किया।
यदि मैं यह जानता कि यह युद्ध नरसंहार का कारण बनेगा तो मैं दुर्योधन को तप त्याग
से समझाने की कोशिश करता और उसके नहीं मानने पर जीविका का कोई निकृष्टतम आधार
ढुंढकर अलग जा बैठता। तब मुझे कम से कम ऐसी ग्लानी तो नहीं होती। अपने किए पर
पश्चाताप तो नहीं होता। यह युद्ध विकास, प्रगति और सुव्यवस्था का कारण नहीं है। यह तो
विनाश, दुर्व्यवस्था
और अशांति का कारक है। उसकी इस शंका का समाधान करते हुए भीष्म कहते हैं-
छीनता है स्वत्व कोई और तो
त्याग तप से काम लेना पाप है
पुण्य है विछिन्न कर देना उसे
बढ़ रहा तेरी तरफ जो हाथ है।।
साम्राज्य
सुख खून से सने कीचड़ में उगा हुआ कमल है। निर्दोषों का खून बहाकर जो सत्ता हथियाई
जाती है वह छल है,
प्रवंचना है। उसमें आम आदमी के सुख की कामना तिरोहित हो जाती है। युधिष्ठर समझ
नहीं पाता कि यदि युद्ध शांति की पीठिका है तो फिर उन्हें शांति क्यों नहीं मिलती।
युद्ध के बाद जो सत्ता मिली हैं उसपर उसके जरिए युधिष्ठर कैसे शासन करे? किस
पर शासन करे? लेकिन
निराशा के गर्त्त में डूबे हुए युधिष्ठर की आशा खत्म नहीं होती। वे समझ लेते हैं
कि उनका युद्ध मानवता के विकास के मार्ग का अन्त नहीं है वहाँ से नयी शुरूआत भी हो
सकती है। मानवता तो गिरती-उठती चलती हैः
कुरूक्षेत्र की धूल नहीं इति पथ का
मानव उपर और चलेगा
मनु का यह पुत्र निराश नहीं
नव धर्म प्रदीप अवश्य जलेगा
विकास
में ही मनुष्यता की गति है। कवि इसके लिए समतावाद और सामंजस्यवाद को आधार बनाकर
व्यक्ति और समाज, आध्यात्म
और विज्ञान, युद्ध और शांति, नियतिवाद
और कर्मवाद जैसे परस्पर
विरोधी अतीवादी छोर का आक्कलन किया है। इनमें सामंजस्य लाकर ही संतुलित दृष्टि का
विकास किया जा सकता है। न तो अतिश्य भौतिकता काम्य हो सकती है और न ही वैराग्य
काम्य हो सकता है। व्यक्तिगत भोग अतीवादी प्रवृत्ति विकसित कर अकूत संचय की ओर ले
जाती है। इससे विषमता और असंतोष पैदा होते हैं। इस व्यक्तिगत भोग की प्रवृति को
निरस्त कर सामुहिक हित के लिए समानता का सिद्धान्त अपेक्षित है
शांति नहीं तब तक जब तक
सुख भाग न नर के सम हो
नहीं किसी को बहुत अधिक हो
नहीं किसी को कम हो।
यहाँ
सुख के समान वितरण के आधार पर हीं शांति प्रस्तावित है। कवि बाँटने वाले नीति का
विरोध करता है। गिरकर उठने वाले विकासवादी
प्रगतिवादी होते हैं। कवि उनका पक्ष लेकर प्रायश्चित में आशा दिखाकर गाँधीवाद की
छायाभाष देता हैः
जय हो जग के गहन गर्त में गिरे हुए मानव की
मनु के सरस अबोध पुत्र की पुरूष ज्योति संभव की
कवि
का दृष्टिकोण समुह को केन्द्र में रखने का
है। उसके लिए मानव की मंगल कामना ही अभिष्ट है। कवि ने बताया है कि युद्ध व्यक्तिगत
कारणों से गैर जरूरी हो तब भी सामुहिक हित के लिए युद्ध करना ही पड़ता है। सामुहिक
हित में व्यक्तिक निर्णय पर सामुहिक निर्णय का आरोपन गलत नहीं है। व्यक्तिवाद
स्वार्थी संकीर्ण गलियों का रास्ता है। इससे समानता और सौहार्द का सिद्धान्त खंडित
होता है। जब तक व्यक्ति स्वार्थ को त्यागकर समानता और सौहार्द के लिए प्रयत्नशील
नहीं होता तब तक सामुहिक मंगल की सिद्धि नहीं हो पाती। साम्य भाव की स्थापना ही
जीवन की मुक्ति है। विषमता युद्ध का जनक है। यदि एक ओर अपार धन हो और दूसरी तरफ
अपार गरीबी तो शांति नहीं आ सकती। श्रम के असंतुलित बटवारे के कारण असमानता और असंतोष
समाज में अशांति पैदा करते हैं। विज्ञान भौतिक समृद्धि का वाद बना लेकिन इसने भी
पूंजीवादी गतिविधियाँ बढ़ा असमानता और असंतोष को ही बढ़ाया। इसलिए युद्ध का समाधान
विज्ञान द्वारा नहीं स्नेह द्वारा ही संभव है।
रसवती भू के मनुज का श्रेय
यह नहीं विज्ञान कटु आग्नेय
श्रेय उसका प्राण में बहती प्रलय की वायु
मनवों के हेतु अर्पित मानवों की आयु
कवि
ने बताया कि समानता आत्म त्याग की मांग करती है। यह व्यक्ति को व्यक्ति से जोड़ती है
और दूसरे के सुख-दुःख का हिस्सेदार बनाती है। युद्ध हर विषमता जन्य समस्या का हमेशा
समाधान नहीं बन सकता। सामाजिक असमानता हीं भोगवाद को जन्म देती है। भोगवाद शोषण की
कोख से पैदा हुयी संतान हीं है। जब तक उत्पादन की शक्ति और उत्पादन संबंधों में
असंतुलन दूर नहीं होगा, तब
तक शान्ति संदिग्ध ही बनी रहेगी। इसीलिए वैसम्य बोध को हटाकर साम्य बोध विकसित
किया जाना चाहिएः
श्रेय होगा धर्म का आलोक यह निर्बंध
मनुज जोड़ेगा मनुज से जब उचित संबंध
भीष्म
ने युधिष्ठिर को समझाते हुए कहा कि तप,
संयास, भाग्यवाद, व्यक्तिवाद
के छल हैं। ये पलायन के मार्ग हैं। मनुष्य अपनी समस्या का उत्तर इनमें नहीं ढ़ुढ़
सकता। वैराग्य के मार्ग को मुक्ति मार्ग समझना भ्रम है। आत्मवाद तो जीवन, समाज
और जगत से काटकर हमें आत्म तल्लीन बनाता है तथा दुःखवाद और वैराग्यवाद आत्म-जीवन
से काटकर काल्पनिक, अमूर्त्त
अनन्त जीवन की ओर ले जाता है। आत्मा का आनन्द न तो सिर्फ भौतिकता में है और न ही
दुःख या वैराग्य। अतिश्य भौतिकता या हार्दिकता और अतिश्य बौद्धिकता या उदासीनता दोनों
के समन्वय में आनन्द है। भौतिकता और आत्मिकता, हार्दिकता और बौद्धिकता में समन्वय स्थापित कर
जीवन के हर असंतोष का उत्तर पाया जा सकता है। कवि न तो भौतिकता की उपेक्षा करता है
और न ही इसे हावी होने देता हैः
नर जिसपर चलता है वह मिट्टी है आकाश नहीं
तप, त्याग, संयास
व्यक्तिक निर्णय से जुड़े हुए सवाल है। जब सवाल व्यक्ति से उपर उठकर सम्पूर्ण
मानवता से जुड़ जाता है,
तो सामुहिक निर्णय और सामुहिक मंगल ही अभिष्ट रह जाता है। महाभारत का युद्ध
व्यक्ति मन का निर्णय नहीं है यह अन्याय के दमन के लिए समुह मन का निर्णय है। यह
युद्ध व्यक्तिकता पर सामुहिकता की विजय का परचम है। यदि युद्ध ने बहुत कुछ
निस्तेनाबूत किया है तो सृजन एवं विकास के लिए विरोध रहित स्थिति भी तो दी है। इस
स्थिति में ही नव निर्माण की पौध उगायी जा सकती है। मोक्ष मनुष्य का काम्य नहीं
हो सकता, वह तो व्यक्तिवादी चिंता
की चरम परिणति है। मनुष्य के लिए काम्य हो सकती है सामुहिक मुक्ति। इससे यह
स्पष्ट है कि यह युद्ध मानवता के पक्ष में हीं है तभी तो भीष्म कहते हैं-
पोछो अश्रु उठो द्रुत जाओ बन में नहीं भुवन में
होओ खड़े असंख्य नरों की आशा बन जीवन में
यह
युद्ध जो लड़ा गया मात्र अंतिम पड़ाव नहीं है। यात्रा का अंतिम पड़ाव युधिष्ठर के लिए
समुह की मुक्ति है
धर्मराज गंतव्य देश है दूर न देर लगाओ
इस पथ पर मानव समाज को कुछ आगे पहुँचाओ।
महाभारत
युद्ध के लिए अशांत मन और युद्ध से अशांत मन दोनों की कथा है और कुरूक्षेत्र युद्ध
से अशांत मन एवं उसके निराकरण की कथा है। महाभारत न्याय, नीति
और पुण्य के लिए किया गया युद्ध था। महभारत दो व्यक्तियों का नहीं सम्पूर्ण भारत
में सक्रिय दो परस्पर विरोधी शक्तियों का युद्ध था। जब भी न्याय का अपहरण होगा तो
युद्ध अवश्यंभावी है –
चुराता
न्याय जो रण को बुलाती भी वही।