मैला आँचल में राजनैतिक चेतना
मैला आँचल फणीश्वरनाथ 'रेणु' का प्रतिनिधि उपन्यास है। आंचलिक
उपन्यास की स्वस्थ्य एवं समृद्ध परंपरा मैला आँचल से हीं शुरू हुयी। नेपाल की सीमा से सटे
उत्तर-पूर्वी बिहार के एक पिछड़े ग्रामीण अंचल को पृष्ठभूमि बनाकर रेणु ने इसमें
वहाँ के जीवन का, जिससे वह स्वयं ही घनिष्ट
रूप से जुड़े हुए थे, अत्यन्त जीवन्त और मुखर
चित्रण किया है। इसमें
ग्रामीण जीवन के सभी पहलूओं का सीधा साक्षात्कार है। सन् 1954 में प्रकाशित इस उपन्यास की कथावस्तु बिहार राज्य के पूर्णिया जिले के मेरीगंज की ग्रामीण जिंदगी
से संबद्ध है। यह स्वतंत्र होते और उसके तुरंत बाद के भारत के राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक परिदृश्य का ग्रामीण संस्करण है। इस उपन्यास में प्रामाणिक जिंदगियों से जुड़े हुए
सिर्फ दृष्य नहीं उभरते, दृष्टि
भी उभरती है। इस उपन्यास में एक साथ व्यक्ति और समाज, व्यक्ति और दल, अंचल और राष्ट्र, आंचलिकता और सार्वभौमिकता के
द्वन्द्वात्मक संबंध उभरते हैं। संबंधों की तासीर कहीं मधुर भी है और कहीं तल्ख
भी। वास्तविकता की एक पैनी लकीर हमें दृष्टि सम्पन्न यथार्थ तक ले जाती है। इसमें गरीबी, रोग, भुखमरी, जहालत, धर्म की आड़ में हो रहे व्यभिचार, शोषण, बाह्याडंबरों, अंधविश्वासों आदि का चित्रण है। नलिन विलोचन शर्मा जी ने बहुत पहले मैला आँचल की
समीक्षा करते हुए कहा कि मैला आंचल व्यक्ति और समुह का एक द्वन्द्वात्मक आख्यान
है। डा0
देवराज कहते हैं कि ‘‘ मैला
आँचल के थीम की व्यापकत्व को देखते हुए यह कहना कठिन है कि यह राष्ट्रीय है, आंचलिक है या सार्वभौमिक। ‘ मैला आँचल’ सिर्फ जनपदीय जीवन और समस्याओं को ही
चित्रित नहीं करता इसमें राष्ट्रीय सामाजिक समस्याएँ भी प्रतिबिम्बित होती हैं।
मैला आँचल में
लेखक आजादी पूर्व की यातना, त्रासदी एवं आशामुलक उत्साह का चित्रण करते हुए आजादी
बाद की गाँधी की हत्या, बावनदास की हत्या, अत्याचारियों, भ्रष्टाचारियों के साथ कांग्रेस के गठजोड़, किसानी उत्पीड़न, तहसीलदार विश्वनाथ प्रसाद के हृदय
परिवर्तन आदि ब्यौरों को समेटता हुआ उपन्यास का अन्त करता है। रचनाकार आजाद भारत की
नयी राजनीतिक व्यवस्थाओं से संतुष्ट नहीं
है। वह यह महसूस करता है कि जो राष्ट्रवादी शक्तियाँ आजादी पहले शोषण मूलक उपनिवेशवादी
शक्तियों से लड़ रही थी। वहीं आजादी बाद जनसेवा के उच्चतम आदर्शों को भूल कर लाभ और
लोभ केन्द्रित होती चली गयीं। आजादी आदर्श विनाशक साबित होगी यह बावन दास जैसे
लोगों ने नहीं सोंचा था। आजादी बाद कुछ भी तो नहीं बदला - वही किसानी उत्पीड़न, वही धोखाधड़ी,
कानून के सिद्धान्त और व्यवहार में वहीं अन्तर। बावनदास कहता है ‘भारत माता अब भी जार-बेजार रो रही है।’ यह कथन बावनदास का
मोह भंग है आजाद भारत से। क्यों ने हो? हमारी स्वतंत्र
भारतीय राजनीतिक व्यवस्था उस छली उपनिवेशवादी
व्यवस्था का भारतीयकरण हीं तो थी। वह मच्छरों और खटमलों की व्यवस्था बन गयी।
कालीचरण कहता है कि ‘‘ये पूंजीपति और
जमींदार खटमलों और मच्छरों की तर सोसख हैं। ............ खटमल! इसलिए बहुत से
माड़वारियों के नाम के साथ मल लगा हुआ है और जमिंदारों के बच्चे मिस्टर कहलाते हैं।
मिस्टर ...... मच्छर।’’ यदि खटमल खून
चूसने वाले पूंजीपतियों और व्यापारियों के प्रतीक हैं तो मच्छर प्रतीक है शिक्षित
उच्च मध्यवर्गीय शोषकों का।
मैला आँचल में
मेरी गंज महज एक गाँव नहीं है, वह राष्ट्रीय
राजनीति की प्रयोगशाला है। रेणु जी मैला आंचल में सभी पार्टियों को आजमाकर बावन
दास के शब्दों में कहते हैं ‘सब पार्टी समान’। जब राजनीति में पतन का सिलसिला शुरू हो जाता है तब पार्टी, संविधान और उनके
राजनीतिक मूल्यों का कोई मतलब नहीं रह जाता है। भ्रष्टाचार राजनीतिज्ञों के जीवन
जीने का ढंग बन जाता है तथा राष्ट्रीय, सामाजिक, मानवीय मूल्यों को बलि दे दी जाती है। आंचलिक स्तर पर बावन दास की बलि और
राष्ट्रीय स्तर पर महात्मा गाँधी की बलि मूल्यों की ही बलि है। मूल्यों के कारण ही
कालीचरण की दुर्गति हुयी। डकैती का आरोपी कालीचरण अपने को निर्दोष साबित करने के
लिए जेल से भागता है। पार्टी उसकी एक नहीं सुनती,
वह
डाकू घोषित कर दिया जाता है। वह अंततः कर्मकार के यहाँ आश्रय लेता है। उपन्यास में
लेखक ने संकेत दिया है कि जनता बावनदास या कालीचरण की समाज सेवा को सम्मान देती
है। लेकिन उनके सेवा मूल्यों को सामाजिक जीवन प्रवाह का हिस्सा नहीं बनाती।
उपन्यास में अंचल
और उसके जीवन के जीवन्त दृश्य ही नहीं है उनके पीछे जीवन्त दृष्टि भी झांकती है।
यह जीवनत दृष्टि मानवतावादी जीवन्त दृष्टि है निम्न उद्धरणों से इसका संकेत मिलता
है।
‘‘डाक्टर का रिसर्च पूरा हो गया, एकदम कम्पलिट वह
बड़ा डाक्टर बन गया। डाक्टर ने रोग की जड़ पकड़ ली है।’’
‘‘गरीबी और जहालत (मूर्खता) इस रोग के दो कीटाणु हैं’’
‘‘दरार पड़ी दीवार यह गिरेगी’’
‘‘डाक्टर प्रशान्त का रिसर्च पुरा नहीं हुआ लेकिन उसने वह जमीन तलाश ली है जिसपर
सामाजिक परिवर्तन का लक्ष्य लेकर सामाजिक दर्शन की नींव रखी जा सकती है। विचार
धारा अपने विषय से आशक्ति की मांग करती है। डा0 प्रशान्त की आशक्ति
बनी है मेरी गंज की जमीन से । उसने समझ लिया है कि गरीबी और जहालत के कीटाणु लोगों
के खुन में प्रवेश कर गये हैं। उसकी इसी समझ को डाक्टर ममता श्रीवास्तव समाशोध की
संज्ञा देती है। वह कहती हैं कि उसका रिसर्च असफल नहीं हुआ है। मिट्टी और मनुष्य
से इतनी गहरी मुहबत किसी लेबोरेट्री में नहीं बनती। डा0 प्रशान्त वैज्ञानिक है लेकिन उसमें वैज्ञानिक की टतस्थता नहीं है। वह गरीब
और गरीबी से असंवेदित होकर नहीं रह सकता। वह कहता है ‘ममता! मैं फिर काम शुरू करूँगा, यहीं इसी गांव
में। मैं प्यार की खेती करना चाहता हूँ, आँसू से भिंगी
हुयी धरती पर प्यार के पौधे लहलहायेंगे मैं साधना करूंगा, ग्रमवासिनी भारतमाता के मैला आँचल तले।’ यहाँ निम्नवर्गीय
समाज से उच्च मध्यवर्गीय व्यक्ति के नये सम्बन्ध का बोध होता है। इससे ग्रामीण
संरचना के तमाम आर्थिक सामाजिक राजनैतिक सरोकार ध्वनित होने लगते हैं। हमारे समाज
में वर्गों के बीच की खाई शेर की आँख की तरह एक घूरती हुयी सच्चाई है। इस खाई को
सपनों की बिम्ब मालाओं के सहारे ढंक कर समानता की बात करना, नीरिह जनता के साथ छल है। आर्थिक सामाजिक, राजनीतिक समाज के
लिए किए जाने वाले संघर्ष से हीं इस खाई को खत्म किया जा सकता है। डा0 प्रशान्त की यह अर्न्तदृष्टि समय की वास्तविकताओं के भीतर से फुटती है। यह किताबी
नहीं है बल्कि समाज के द्वन्द्वों और तनावों के भीतर से निकली है। इसलिए मैला
आँचल की कोई भी घटना राष्ट्रीय सामाजिक घटना से अलग नहीं की जा सकती है।
इस उपन्यास में
रेणु जी उस समय की तमाम राजनैतिक विचारधारा को उसी शक्ति और सीमा के साथ पकड़ा है।
उस समय के तीन महत्वपूर्ण मतवाद से जनता प्रभावित थी। समाज के सबसे बड़े व्यापक
तपके पर गाँधीवाद का असर था। दूसरा मतवाद है साम्यवाद और तीसरा है राष्ट्रीय
स्वयंसेवक संघ द्वारा प्रायोजित हिन्दु सम्प्रदायवाद। काली टोपी वाला स्वयंसेवक
इसका प्रतिनिधित्व करता है। साम्यवाद की ओर अपने अपने दृष्टिकोण के साथ कालीचरण, डाक्टर प्रशान्त और चलित्तर कर्मकार है। चलित्तर कर्मकार का रास्ता बम-बंदूकों
का रास्ता है। कालीचरण भी उग्र है लेकिन वह शुरू में हिंसा को लात और थप्पर तक हीं
रोके रखता है। वह भी एक विद्रोही युवक है। जमीन की बंदोबस्ती के समय में वह गाँव
में नेता बनकर उभरता है। जमीन की लड़ाई के क्रम में गाँव के जातिवादी समुह, वर्गवादी समुह में बदलने लगते हैं। बदलाव के क्रम में लोग कुछ नये से जुड़ते
हैं तो कुछ पुराने से अलग भी होते हैं। इससे पुरानी सामाजिक संरचना के विन्यास
अचानक छिन्न भिन्न हो जाते हैं। व्यक्तिक हित प्रमुख हो जाता है। राजनैतिक संघर्ष
के क्रम में ही कालीचरण और प्रशांत की अपनी राजनैतिक समझ तैयार होती है। सामुहिक
जीवन में भागीदारी पुनः एक नया संदेश देती है। कालीचरण और डाक्टर प्रशांत के
अर्न्तजीवन और वर्हिजीवन में एक संबंध है विच्छेद नहीं। उनकी व्यक्तिकता और
सामाजिकता भी एक दूसरे से स्वतत्र नहीं है। डाॅक्टर प्रशांत के साम्यवाद की ओर
झुकने, अपने साथियों के
साथ कालीचरण के शोषण के खिलाफ उठ जाने तथा अन्याय के विरूद्ध चरित्तर कर्मकार की
हिंसा मूलक राजनीति देखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि नयी रचनात्मक शक्तियाँ
निर्मित हो रही हैं। उपन्यास में बावन दास की हत्या और बालदेव के अध्यःपतन को
देखकर यह नहीं मान लेना चाहिए कि ग्रामीण प्रगति ह्रासोन्मुख है। यदि पुरानी
शक्तियों खण्डित और क्षतिग्रस्त हुयी है तो नयी परिवर्तनवादी शक्तियों का उदय भी
हुआ है।
डा0 कमला प्रसाद रेणु की जीवन दृष्टि को गाँधीवादी मानते हैं। ऐसा मान लेने पर और
न्यासिक अर्न्तदृष्टि अस्पष्ट ही रह जाती है। रेणु जी के इस उपन्यास में गाँधीवाद
की सैद्धान्तिक और व्यवहारिक दोनों रूपों को उजागर करने के लिए बाबन दास और बालदेव
जैसे चरित्रों का गढ़ा है। इस उपन्यास में बालदेव रेणु का वैसा ही प्रवक्ता नहीं है
जिस तरह जीवन में देवीदीन प्रेमचंद का प्रवक्ता बनकर आता है। गाँधीवाद के अधकचड़ेपन
और ढ़ोगी रूप के जरिए उन्होंने बालदेव का चरित्र निर्मित किया है। इसलिए उन्हें
जहाँ भी अवसर मिलता है वे बालदेव में मौजूद गाँधीवाद के रूढ़िबद्ध रूप की खिल्ली
उड़ाने से नहीं चुकते। गाँधीवादी निग्रह धर्म का सहारा लेकर किस तरह भ्रष्ट और पतीत
रूप अख्तियार कर रहा था इसका उदाहरण्ण है लक्ष्मी वासिन के साथ बालदेव का संबंध।
मेरीगंज की जनता ऐसे ही बालदेव के अनषन को अंट-संट नहीं कहती।
बवनदास में
गाँधीवाद की सैद्धान्तिक रूप प्रकट होता है। वह गाँधीवाद के भोले निर्दोश रूप को
प्रटिकीत करता है। बावनदास सत्य के साथ उसी तरह निरन्तर प्रयोग करता रहा जिस तरह
गाँधी जी सत्य के लिए जीवन भर प्रयोग करते रहें। गाँधी के लिए भुख हड़ताल और अनशन
आत्मशुद्ध्िा का जरिया है और बावनदास के लिए भी। बावन दास चंदे के पैसे से दो आने
की जिलेबी खा लेने पर मुँह में अंगुली डाल कर कै करता है। उसके लिए उपवास आत्मशोधन
है। जिला स्तर पर यह बावनदास कांगेसियों के बीच उसी तरह अलग थलग पड़ गया था जिस तरह
राष्ट्रीय स्तर पर गाँधी जी कांग्रेसियों के बीच अलग-थल पड़ गए थे बावनदास की
कांग्रेसी तस्कर द्वारा हत्या गाँधी की ही शारीरिक वैचारिक हत्या है। यह संकेत है
इस बात का कि आजाद भारत में गाँधीवादी भावनाएँ सिर घुनेंगी।
तहसीलदार विश्वनाथ
प्रसाद के द्वारा किए गए भूमि दान को हृदय परिवर्तन समझना भूल है। विश्वनाथ प्रसाद
तो अपनी बेटी के अवैध संतान पर वैधता की मुहर लगाने के लिए ग्रामीण जनता की
सहानुभूति अपने पक्ष में करना चाहता है। वे जमींदारी उन्मुलन कानून से परीचित है
इसलिए वे किसानों की छीनी गयी जमीन को उन्हें लौटा कर मुफ्त का यश लुटना चाहते
हैं। यह शुद्ध रूप से एक सर्वजनिक हवाई उत्कोच (घूंस) है। यदि सब फुक समझ कर भी
मेरीगंज की जनता तहसीलदार साहब का जयजयकार करती है तो यह उस जनता के जटिल संश्टिष्ट
मनोविज्ञान का एक पहलु है। तहसीलदार साहब प्रत्याशित भूमि हदबंदी कानुन से बेखबर
नहीं हैं। इसलिए वे अपनी बेटी की संतान होने की खुशी एवं उसके प्रेमी के लौटने के
अवसर का लाभ उठाकर उन लोगों को जमीन लौटा देते हैं जिन्हें कभी उन्होंने हड़पी थी।
वे किसी और को जमीन नहीं देते। उनके इस जमीन बालों को जमीन लौटाने की प्रक्रिया को
भूदान या सर्वोदयी हृदय परिवर्तन भी नहीं कहा जा सकता। स्वयं रेणु ने विश्वनाथ
प्रसाद का धूर्तता के संकेत कई अवसरों पर दिए हैं।
उपन्यास का
चलित्तर कर्मकार कई साम्यवादी संगठनों से होकर गुजरता है उनके भीतर झांक कर देखता है
और यह अनुभव करता है कि उन संगठनों का मध्यवर्गीय बुर्जुआ नेतृत्व जनता का भला
नहीं कर सकता है। इसलिए वह बम बंदुकों की राजनीति कर रास्ता अपनाता है। यह चरित्तर
कर्मकार पूर्णिया जिले के नक्षत्रमालाकार का साहित्यिक नाम है। रेणु
नक्षत्रमालाकार के कभी मित्र रहें तो कभी विरोधी। वे कभी उसकी बंदुक वाली राजनीति
से प्रभावित थे। रेणु एक ओर अहिंसक समाजवादी राजनीति से जुड़े हुए थे और दूसरी ओर
बंब बन्दुकों वाली राजनीति भी
उन्हें आकर्शित करती थी। यह उनके अपने जीवन दर्शन का अर्न्तविरोध था जो इस उपन्यास
में बावनदास और चलित्तर कर्मकार के रूप में उभरा है। क्या माना जाए कि रेणु का
जीवन दर्शन बावन दास और चलित्तर कर्मकार का योगफल है या दोनों के बीच की राह।
रेणु की यह खुबी
है कि उपन्यास के किसी एक पात्र को अपने जीवन दर्शन के प्रतिनिधि के रूप में नहीं
उभारतें। आम तौर पर हिन्दी में जो राजनैतिक उपन्यास लिखे जाते रहे हैं उनमें जीवन
की विविधता एवं व्यापक संवेदनशीलता के स्थान पर बौद्धिक राजनैतिक शब्दजाल मात्र
मिलता है। वहाँ बहुरूपी या परस्पर विरोधी जीवन तत्वों से निर्मित इंसानों की जगह
विचार था। भारतीय के कठपुतले मिलते हैं। उनके बिल्कुल विपरित मैला आँचल में सजीव
इंसानों की श्रृष्टि हुयी है। यहाँ राजनीति आयी है लेकिन पृष्ठभूमि के रूप में यह
पात्रों को अलग-अलग व्यक्तित्व को उभारती है। यह चारों ओर से पात्रों को घेर कर
गला नहीं घोटती मैला आँचल में रेणु जी विभिन्न राजनैतिक पार्टियों विचारधाराओं
संगठनों का यथास्थान चित्रण करते हैं। यह भी दिखाते हैं कि विचारधारा और मतवादों
से आंचलिक जीवन प्रभावित भी होते हैं लेकिन उन विचारधाराओं में से किसी एक
विचारधारा को वे अपने जीवनबोध और सौंदर्यबोध पर हावी नहीं होने देते और इसी कारण
उनके उपन्यास में जिंदगी की प्रामाणिकता और सजीवता सुरक्षित रहती है।