नागार्जुन की कविता अकाल और उसके बाद का मूल्यांकन
नागार्जुन रोजमर्रा के बिम्बों और
शब्दों से अपनी कविता बनाते है। इस कविता में एक भी शब्द ऐसा नहीं जिससे कोई
अनभिज्ञ हो। एक भी विवरण ऐसा नहीं जिससे कोई अपरिचत हो। और लय भी सुगम जानी पहचानी
सी है। नागार्जुन राजमर्रा की जिंदगी के बारे में लिख रहे है, साधारण लोगों के जीवन के
बारे में उन्हीं की भाषा में उन्ही के जीवन प्रसंगों का उपयोग कर। कई दिनों तक
चूल्हा रोया -यानी कई दिनों तक चूल्हा जुड़ा ही नहीं, जला नहीं क्योंकि अन्न आया ही नहीं। चक्की रही उदास चक्की
में कुछ पिसा ही नहीं क्योंकि दाने थे ही नहीं। कई दिनों तक कानी कुतिया सोयी उनके
पास। इसका मतलब एक तो यह कि चूल्हा-चक्की खाली पड़ी थी तो कुतिया वहाँ आकर सो गयी उसे भगाता कौन? दूसरा यह कि जब पूरा घर ही भूखा था तो कुतिया भी भूखी थी।
इसलिए कुतिया सबके दुःख में सहभागी थी। लेकिन कानी कुतिया क्यों? सिर्फ कुतिया क्यों नहीं? इसलिए कि यह एक गरीब
परिवार है जहाँ की कुतिया भी कानी है। कुत्तों की मार-काट में बेंचारी की एक आँख
जाती रही । कमजोर परिवार की कमजोर कुतिया। कई दिनों तक लगी भीत पर छिप्कलियों की
गश्त-यानी छिप्कलियों को खाने को कीड़े नहीं मिले क्योंकि बत्ती नही जली। इसी तरह
चूहों की भी हालत शिकस्त रही । उन दो पंक्तियों में युद्ध की शब्दावली का प्रयोग
हुआ है- गश्त शिकस्त। इस तरह कविता पाठक को
प्रच्छन्न तरीके से जीवन संग्राम में ले जाती है –यह संग्राम है अन्न के
लिए भूख की लड़ाई। भूख ही सबसे बड़ा युद्ध है यहाँ। लेकिन चूहों की भी हालत रही
शिकस्त क्या सही मुहावरा है? शायद नहीं व्याकरण की द़ष्टि से नहीं। लेकिन बोलचाल
में चलता है। इसलिए नागार्जून ने रख लिया।
दूसरे बंद की लय पहले बंद की लय से भिन्न है। पहले बंद की लय धीमी है सुस्त, क्योंकि अन्न नहीं है। दूसरे में तेज निकली हुई, क्योंकि दाने आ गये हैं। लय में
यह परिवर्तन कई कारणों से हुआ जिनमें एक यह है - पहले बंद
में कई दिनों तक शुरू में आता है जबकि दूसरे बंद में अंत में, एक परिवर्तन के साथ, अब है ‘कई दिनों के बाद’ और
दोनों का आना प्रकट होता है आंगन में धुआ उठने से-धुआ उठा आंगन से ऊपर कई दिनों के
बाद। पहली पंक्ति का चूल्हा, अब वह खुश है, धुआ उठा, चकम उठी घर भर की आंखे- पहले बंद में कहीं
भी घर वालों का जिक्र नहीं है। चूल्हा है, चक्की है,
कानी कुतिया है, छिपकली और चूहे हैं पर आदमी
कहीं नहीं है। क्यों? अकाल ने मानों आदमी के अस्तित्व को ही समाप्त कर दिया है।
आदमी का होना अन्न के होने पर निर्भर है।
बहुत ही प्रच्छन्न तरीके से
नागार्जुन यह कहते है। पूरा पहला बंद बिना आदमी का नाम लिए आदमी के बारे में, उसके अस्तित्व, उसकी सत्ता के बारे में है। यह एक
बहु विशिष्ट प्रविधि है। जिसमें सुपरिचित को अपरिचित और निकट को दूर कर दिया जाता
है। और अब आता है घर भर जिसकी आखें चकम उठी है, अन्न देख कर।
घर भर में कुटुम्बी जन तो है ही कानी कुतिया, छिपकली और
चूहे भी है और कौए भी-कौए ने खुजलाई पॉखे, लेकिन पहले बंद
में कौआ क्यों नहीं है? वह तो चालाक है और कही चला गया होगा। अब जब दाना आ गया है
तो लौटा है वापस और अपनी पॉखें खुजाला रहा है उम्मीद में।
अन्न का नहीं रहना और फिर अन्न का आना यही कविता का विषय है और नागार्जुन
किस कौशल से शब्दों और भाषा के तत्वों के कितने कुशल उपयोग में इन से हमें दो
स्थितियों का बोध कराते हैं। कविता यही करती है। वह हमें स्थिति या दिशा विशेष का
अनुभव कराती है। वही रचना विधान सफल है जो कवि के मंतव्य को पूर्णत: व्यक्त
करे।
नागार्जुन हिन्दी भाषा के विविध
स्तरों का इस्तेमाल करते है। बोल चाल के शब्द तो हैं ही कई बार तत्सम, संस्कृतनिष्ठ शब्दावली है, अंग्रजी
के शब्द भी है और लौक भाषाओं के भी शब्द।