कृष्ण भक्ति काव्य की विशेषताएँ

 कृष्ण भक्ति काव्य की विशेषताएँ

            कृष्ण भक्ति काव्य सगुण काव्य धारा की एक उदार काव्य धारा है। इस धारा में विभिन्न सम्प्रदायों, वर्गो, वर्णो के रचनाकार शामिल होते हैं। कृष्ण भक्ति की लम्बी परम्परा है। भक्ति आंदोलन में इस परम्परा का ही अधिक व्यापक और विशाल रूप उभरा है। पुष्टि मार्ग, गौड़ीय सम्प्रदाय, राधावल्लभ सम्प्रदाय, राधा स्वामी सम्प्रदाय और हरिदासी सम्प्रदाय से जुड़े हुए कवियों ने कृष्ण भक्ति काव्य का स्वरूप व्यापक बनाया है। वल्लभाचार्य जी ने पुष्टि मार्ग में 4 शिष्यों - सूरदास, परमानन्द दास, कुंभन दास और कृष्ण दास को दीक्षित किया था। उनके पुत्र विट्ठलनाथ ने बाद में चार और शिष्य नन्ददास, चतुर्भुजदास, गोविन्दस्वामी और छीतस्वामी बनाए। पहले चार और बाद के चार को जोड़कर ही अष्ठछाप निर्मित हुआ। अष्ट छाप कोई वैचारिक संस्था नही है यह तो आठ पुष्टिमार्ग के भक्तों के समूह का वाचक है। कृष्ण भक्ति काल में इन्हीं कवियों की वीणा का स्वर सबसे अधिक निनादित हुआ है हरिदासी सम्प्रदाय के स्वामी हरिदास एवं राधा वल्लभ सम्प्रदाय के हित हरिवंश भी इस धारा के प्रमुख कवि है। सम्प्रदाय निर्पेक्ष कवि कवित्रियों में रसखान और मीराबाई उल्लेखनीय है। कृष्ण भक्ति काव्य में वर्ग-वर्ण की समानता के साथ साथ स्त्री पुरूष की भी समानता पर जोड़ हैं। तभी तो कृष्ण भक्ति काव्य में मीरा के अतिरिक्त 24-25 कवित्रियों ने शिरकत की जिनमें प्रमुख है - सत्यभामा, सहगौरी, उवैठी, सीता आदि।

विशेषता:

      आध्यात्मिकता

    कृष्ण भक्तों के ब्रह्म निर्गुण और सगुण दोनो है।

हरि अविनाशी निरगुण सगुण धरे तन दोयी

ब्रह्म विरूद्ध धर्म युक्त है अर्थात् वह उभयात्मक है। जो मानवीय बुद्धि के लिए अकल्पनीय है उसका ब्रह्म में सहज अर्न्तभाव संभव है। कृष्ण भक्तों के कृष्ण निर्गुण ब्रह्म के ही सगुण रूप हैं। वे स्वतंत्र होकर भी भक्त पराधीन हैं। भक्तों की पुकार पर दौड़े चले आते हैं।

कृष्ण दैदिप्यमान् सूर्य की तरह हैं और गोपियाँ हैं उनके चारों ओर चक्कर काटने वाली जीवात्माएँ। राधा और गोपियाँ में सिर्फ देय और आत्मा का फर्क है।

        सोलह सहस्र पीर तनु एके राधा जीव सब देह

गोपियाँ देंह हैं और राधा है उनकी आत्मा। राधा कृष्ण की अन्तर्निहित शक्ति और वाम भाग में विराजती है। वह उनकी अन्तर्निहित शक्ति  है। कृष्ण भक्त इसीलिए कहीं राधा के माध्यम से कृष्ण तक पहुचते हैं और कहीं कृष्ण के माध्यम से राधा तक। सभी कृष्ण भक्तों ने कृष्ण को पाने के लिए माधुर्य भक्ति का सहारा लिया। माधुर्य भक्ति हीं प्रेमा भक्ति है या प्रवृत्ति मूलक भक्ति है।

 बाललीला/वात्सल्य चित्रण

कृष्ण भक्तों ने कृष्ण के बालरूप का चित्रण सिर्फ इसलिए नहीं किया कि बल्लभाचार्य जी ने कृष्ण के बाल रूप को ही उपाष्य बताया था, इसलिए भी चित्रण किया कि बालक घर के केन्द्र में होता है। जिस घर में बालक की प्रतिष्ठा होगी उसमें माँ को भी मान मिलेगा। जहाँ एक ओर कबीरदास जी जो घर जारे आपना चले हमारे साथकी हाक लगा रहे थें वहीं दूसरी ओर कृष्ण भक्त कवियों ने टूटे हुए घर को बहाल करने की कोशिश की। जिस देश में बच्चे हीं वैरागी बन रहे हों, बाल वैरागियों की फौज खड़ी हो रही हो, उस देश में बालक और माँ को केन्द्र में रखकर कृष्ण भक्त कवियों ने परिवार और समाज के ढीले पड़ते हुए बंधन को कसने की कोशिश की। यह अकारण नहीं है कि सूरदास या अन्य कृष्ण भक्त कवि बाल चित्रण के क्रम में ही बार-बार यशोदा का नाम उल्लेख करते हैं, ‘जसोदा हरि पालने झुलावे‘, ‘सिखवत चलन जसोदा मइया। जिस देश में नारियाँ हजारो वर्षो से बंदनी हो जो विवाह के पहले पिता के नाम से, विवाह के बाद पति के नाम से और पति के मर जाने के बाद पुत्र के नाम से जानी जाती है, उसी देश में माँ और पत्नी का नामोल्लेख नारी गरिमा और अस्तित्व को सम्मानित करने का ही प्रयास है। निश्चय हीं कृष्ण के बाल रूप के चित्रण में अलौकिकता की परत है। इस परत को हटाते ही इस चित्रण का सामाजिक संदर्भ उद्धाटित होने लगता है। कृष्ण कुछ बड़ा होकर गाय चराने जाते हैं वहाँ खेल में मित्रों से झगड़ा हो जाता है। लंगड़ा श्रीदामा कहता है कि खेलन में को का को गोसइयाँ। खेलों के समता मूलक संसार के जरिए कृष्णभक्त कवि सामाजिक समता का संदेश दे रहे है।

            कृष्ण भक्ति काव्य में वात्सल्य का दो पक्ष उभरता है- संयोग वात्सल्य और वियोग वात्सल्य। देवकी और वसुदेव का संयोग वात्सल्य क्षणिक है और वियोग वात्सल्य दीर्धकालिक। नन्द यशोदा का संयोग और वियोग दोनों वात्सल्य दीर्धकालिक है। कृष्ण शोभा (सौन्दर्य) के सिंधु हैं। उनके जन्म पर पुरा गोकुल उमर पड़ा है हर गली जैसे नन्द के घर की ओर मुड़ गयी है। एक आता है और एक जाता है। कृष्ण भक्त कवियों के कृष्ण के वय विकास का ध्यान रखा है और यह भी कि कैसे बच्चे के वय विकास के साथ मनोभाषिक विकास होता चलता है। जब कृष्ण 7-8 महींने के है तो एक पदीय वाक्य बोलते हैं जैसे मईया, गईया, दईया। जब वे थोड़ा  बड़ा होते हैं तो द्विपदीय वाक्य और बड़ा होने पर वे पूरे वाक्य का प्रयोग करते हैं। यशोदा और नन्द का स्नेह बालक कृष्ण पर बरसता है। यशोदा सिर्फ उनकी रूचि का ही ध्यान नहीं रखती उनके शारीरिक विकास का भी ध्यान रखती है। बच्चे के लिए मक्खन से अधिक स्वास्थ्य परक है दूध। कृष्ण दूध पीना नहीं चाहते। यशोदा उन्हें यह प्रलोभन देकर दूध पिलाती हैं कि तुम्हारी चोटी बढ़ेगी। कृष्ण दूध पीते भी जाते है और चोटी छुकर देखते भी जाते हैं की कितनी बढ़ी। कृष्ण के व्यक्तित्व की दो विशेषताएँ हैं विनोदप्रियता और चातुर्य। यशोदा का वियोग वात्सल्य बड़ा मार्मिक है।

     श्रृंगार- 

    श्रृंगार का स्थायी भाव है प्रेम। श्रृंगार के दो पक्ष हैं संयोग श्रृंगार और वियोग श्रृंगार। कृष्ण जब तक गोकुल में है तब गोपियों के साथ उनकी संयोग श्रृंगार की स्थिति बनती है। जब कृष्ण मथुरा चले जाते हैं तो वियोग श्रृंगार शुरू होता हैं। कृष्ण और गोपियों का प्रेम आकस्मिक नहीं हैं जीवन व्यापार के भीतर से ही प्रेम व्यापार प्रकट हुआ है। आते-जाते ,खाते-खलते कृष्ण और गोपियों का प्रेम आकार लेता है। इस प्रेम की शुरूआत भी रूपाकर्षण से हुर्इ्र है। कृष्ण गलियों में घुमते हैं बड़ी आँखों वाली राधा को देखते हैं सूरश्याम देखत ही रीझै नैन नैन मिली पड़ी ढिंगोरी

            आँखों  से आँखें मिलती हैं और वे ठगे रह जाते हैं। कृष्ण और गोपियों का प्रेम सहज ढंग से विकसित हुआ है। बाल काल के सखा सखी ही यौवन काल के प्रेमी प्रेमिका हो गए। सखा सखियों का यह प्रेम परिचय के बाद प्रगाढ़ बना है। तभी तो गोपियाँ उद्धव से कहती है-

    लरिकाई को प्रेम, कहौ अलि, कैसे करकै छूटत ?

            आचार्य शुक्ल ने कृष्ण और गोपियों के संयोग श्रृंगार की मुक्त कंठ से सराहना की है। इस प्रेम में कोई बंधा नहीं हैं। लोक-लाज की बंदिश भी छिन्न-भिन्न हो जाती हैं। यह प्रेम समानता और स्वातंत्रता की भूमि पर खड़ा है। गोपयाँ कृष्ण की बाँसूरी की ध्वनि सुनते ही दौड़ पड़ती हैं। न उनके लिए कोई रोक टोक है और न वे रोक-टोक में आस्था रखती है। कृष्ण भक्त कवियों ने नारी स्वातंत्रता को प्रतिष्ठित करने के लिए कृष्ण और गोपियों के प्रेम का उन्मुक्त संसार रचा है। मर्यादा वादी शुक्ल भी इसकी प्रशंसा करते हुए कहते है कि सूर की गोपियाँ पशु पक्षियों की तरह स्वतंत्र है। जिस तरह की उन्मुक्त समाज का स्वपन शैली ने देखा था बिल्कुल वैसा ही उन्मुक्त समाज सूर के काव्य में चित्रित हैं।‘‘

            श्रृंगार रस राज इसलिए कहा जाता है कि उसमें सुख और दुख दोनों के चित्रण की गुंजाइश होने के कारण उसका फलक बड़ा है वह पूरे जीवन को छूता है या उसकी व्याप्ति पूरे जीवन में है। कृष्ण भक्त कवियों ने संयोग से भी अधिक रूचि ली है   वियोग चित्रण में। वियोग की हर वेदना, कचोट और त्रास को उन्होंने वाणी दी हैं। जो कवि वियोग में जितना रमेगा, ठहरेगा, प्रेम के उद्धातरूप को उतना ही चित्रित करेगा। गोपियाँ का वियोग इसलिए उतना पीड़ादायक है कि उनका संयोग बहुत अहलादक था।

कवियों ने परिस्थिति के परिवर्तन से भाव में आए परिवर्तन की पहचान की है। जो राधा संयोग श्रृंगार या संयोग के क्षणों में अत्यन्त शोख और चंचल दिखाई पड़ती थी जो अपने नेत्र से कृष्ण को धायल कर देती थी गोरी तेरे नैन किन्धौं री बाण। जो कृष्ण की कलाई मड़ोर कर लाठी और कम्बल छीन लेती थीं वही वियोग में उदास और गमगीन है। उसके चेहरे पर मलिनता हैं:

  अति मलीन वृषभानु कुमारी।

    हरि-स्रमजल अंतर-तम भीजे तेहि लालचि न धुवति सारी।

   अधोमुख रहति पुरध नहिं चितवति ज्यों गथ हारे थकित जुआरी।

  छुटे चिहुर, बदन कुम्हिलाने, ज्यों नलिनी हिमकर की मारी।।

यह भावदशा के परिवर्तन से देहदशा की परिवर्तन की सूचना है। गोपियाँ विराहाग्नि में जलकर ही अपने प्रेम को निस्वार्थ और निर्व्याज्य बनाती हैं। इस आग में उनकी सारी काम वासनाएँ जलकर खाक हो गयी हैं। वे महसूस करती हैं कि विरह में जो सुख है वह संयोग में कहाँ। विरह तो प्रेम की परीक्षा है। गोपियों उद्धव से कहती हैं  - उघो विरहो प्रेम कहे

*    लोक संस्कृति का चित्रण

            कृष्ण काव्य में गोचारण संस्कृति, कृषि संस्कृति और जन संस्कृति से संवद्ध चित्र उभरते हैं। इसमें कवियों ने कुष्ण के जन्मोत्सव, कर्णछेदन, दुग्धदोहन नामकरण संस्कार, कुरूक्षेत्र के मेले आदि का रमणीय चित्रण किया है। बालक गाय चराते है। गोपियाँ गाय दुहवाती हैं, दही जमाती हैं, मक्खन विलोती हैं और फिर उसे बेचने हाट बाजार जाती हैं। जीवन के कारोबार के साथ-साथ प्रेम का कारोबार भी चलता रहता है। कृष्ण भक्त कवियों ने नागर संस्कृति की तुलना में ग्राम्य संस्कृति को तरजीह दी है। कृष्ण की बाँसुरी लोक संस्कृति की ही चीज है। कदम्ब लोक संस्कृति की ही अपनी चीज है। कदम्ब एक तो काम भावों को प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति देता है, तो दूसरी तरफ यह लोक जीवन से गहरे जुड़ाव को भी सूचित करता है। संयोग श्रृंगार में इस कदम्ब की अहम भूमिका रही है। कृष्ण इसी कदम्ब पर अपना पैर टेक कर बाँसुरी बजाते हैं। कृष्ण की बाँसुरी गापियों को प्रेम निमंत्रण हैं।

*    सामान्यता पर बल

सम्पूर्ण कृष्ण भक्ति काव्य अन्य भक्ति काव्य की तरह ही सामान्यता को सराहने वाला काव्य है। कृष्ण भक्त कवियों ने यदि आभिजात्य संस्कृति की तुलना में ग्रामीण संस्कृति, गोचारण संस्कृति को मान दिया है तो यह सामान्यता की ओर उनका झुकाव है। मध्ययुगीन मंहगे बाद्य यंत्रो के मुकाबले बाँसुरी की महत्ता प्रतिपादित करना है। समान्यता और सर्व सुलभता को ही महत्व देना है। रसखान तो अपना राजपाठ त्यागकर कृष्ण भक्त बनते हैं। उनके लिए कृष्ण की लाठी और कम्बल राजपाट से बढ़कर है।

वा लकुटि अरू कमरिया पर,

राज तिहुँ पुर को तजि डारों।

            वे तो उस कौवे के भाग्य को भी सराहते हैं जो कृष्ण के हाथ से माखन और रोटी छीन ले जाता है।

काग के भाग को का कहिए,

हरि हाथ से ले गयो माखन रोटी।

            गोपियाँ गोकुल के मोर पंखधारी, वृंदावन बिहारी कृष्ण से प्रेम करती है मथुरावासी या द्वारिकाधीश कृष्ण से नहीं। वे तो मथुरापति बनने वाले और स्वयं को बडे़ वंश का कहने वाले कृष्ण पर व्यंग करती है। गोपियाँ द्वारिका जाकर या मथुरा जाकर कृष्ण से नहीं मिलती, जरूरत भी नहीं समझती क्योंकि उनके हृदय में गोकुल वाले कृष्ण बसे है। यह सामान्यता के प्रति उनकी दृढ़ आस्था है।

*    राजाश्रय का विरोध

            वैसे तो सभी भक्त कवियों ने राजाश्रय को दुतकारा है लेकिन कृष्णभक्त कवियों में मुखरता अधिक है। ये कवि अन्य भक्त कवियों की तरह ही जनता की अनुभूतियों का आश्रय लेकर चल रहे थे। तभी तो इन्होनें हर तरह के राजाश्रय और मनसवदारी को नकारा । कुंभनदास अपने समय की सबसे बड़ी सत्ता के आग्रह को नकारते हुए कहते हैं।

संतन को कहा सीकरी सों काम?

आवत जात जूता टूटी बिसरी गयो हरिनाम।।

जिनकी मुख देखें दुखे उपजत तिनकी करिबे परी सलाय।।

कुंभनदास लाल गिरधर बिनु और सबै बेदाम

सूरदास जी भी अकबर के अनुरोध को ठुकराते हुए कहते हैं कि

उर में रहियो नाहिन ढ़ौर

नंद नंदन अक्षत कैसे आनिय उर और।

*    लोकमंगल

कृष्णभक्त कवियों पर यह आरोप उचित नहीं है कि लोक मंगल में उनका मन रमा नहीं। कृष्ण भक्तों के अराधय कृष्ण, द्रौपदी की पुकार पर दौड़े चले  आते है । द्रौपदी कृष्ण के प्रति कृतज्ञता प्रकट करती है।

जितनी लाज गोपालहि मोरी,

तितनी नाहि वघु हौं जिनकी ।

सूरदास जी की प्रजा राजा वर्ग के अत्याचार से अकूला उठती हैः परै वज्र या नृपति सभा पर कहत प्रजा अकुलानि। कृष्ण वकासुर, अधासुर, पूतना, कंस आदि दुष्टों का बध करतें है। वे जनता के कल्याण के लिए ही दवाग्नि को पी जाते हैं। कृष्ण दुर्योधन के राजमहल में रहने, स्वर्ण पर्यंक पर सोने और 56 प्रकार के व्यंजनों को खानें के बजाए विदुर के टूटे घर में टूटी खाट पर सोने और साग खाने में आनंद लेते हैं।

*    नारी मुक्ति

कृष्ण भक्ति काव्य का मूल स्वरूप नारी मुक्ति है। कृष्ण भक्त कवियों ने बालक कृष्ण को केन्द्र में रखकर यशोदा को अधिक मान दिया है। यह मान उसके मातृत्व का सम्मान हैं क्योंकि मां बालक के लिए कामना पूर्ति का मंदिर है। वही उसकी हर जिज्ञासा का शमन करने वाला सर्वज्ञ है। कृष्ण फरमाईश भी करते हैं तो यशोदा से, मईया मैं चंद खिलौना लैहियों, रूचि का इजहार भी करते हैं तो उसी से, मईया मोही माखन भायो, शिकायत भी उसी से मईया मोही दाउ बहुत खिजायों और गुस्सा भी उसी से, मइया हौं नही गाय चरइयों।

मातृत्व को सम्मानित कर कवियों ने नारी के सामजिक पारिवारिक महत्व को महसूस कराया है। संयोग/वियोग श्रृंगार में भी गोपियाँ स्वतंत्र हैं वे कोई बंदिस कबूल नहीं करतीं।  वियोग की हर पीड़ा को सहकर वे कृष्ण से मिलने मथुरा नहीं जाती तो वह इसलिए की मान नारी का सबसे बड़ा धन है। वे स्वाभिमान को खोकर कृष्ण को पाने के पक्ष में नहीं है। गोपियों को ऐसा चित्रित करके भक्त कवियों ने नारी की गरिमा और प्रतिष्ठा बरकरार रखी है। कृष्ण भक्ति काव्य में मीरा की भक्ति समाजिक विद्रोह के रूप में सामने आती है। वह कृष्ण प्रेम के लिए राणा द्वारा भेजे गए विष के प्याले और सास ननद द्वारा जड़े गए ताले की भी परवाह नहीं करती। मीरा के काव्य में सास ननद, चौकी, पहरा आदि का जो इतना जिक्र मिलता है वह इसलिए कि ये चीजें नारी पराधीनता का सूचक है। विष पराधीनता का ही प्रतीक है और अमृत स्वाधीनता का। मीरा का घर के बाहर निकला हुआ कदम नारी पराधीनता के विरूद्ध विद्रोह है। मीरा लोक लाज कुल की मर्यादा जैसे बंधनों को भी झटक देती है।

  हरि गुण गावत नाचूगी

  आपने मंदिरमों बैठ बैठकर। गीता भागवत बाचूँगी।

 ग्यान ध्यानकी गठरी बांधकर।हरीहर संग में    लागूँगी।

   मीरा के प्रभु गिरधर नागर। सदा प्रेमरस चाखुँगी।

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     आली रे मेरे नैणा बाण पड़ी।

      चित्त चढ़ो मेरे माधुरी मूरत उर बिच आन अड़ी।

   कब की ठाढ़ी पंथ निहांरू अपने भवन खड़ी।।

   कैसे प्राण पिया बिन राखूं जीवन मूल जड़ी।

   मीरा गिरधर हाथ बिकानी लोग कहै बिगड़ी। 

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