आषाढ़ का एक दिन : प्रमुख पंक्तियाँ
अंक एक
मल्लिका -सौन्दर्य का ऐसा साक्षत्कार मैंने कभी नहीं किया। जैसे वह सौन्दर्य
अस्पृश्य होते हुए भी मांसल हो। मै उसे छू सकती थी, देख सकती थी, पी सकती थी। तभी मुझे
अनुभव हुआ कि वह क्या है जो भावना को कविता का रूप देता है। मैं जीवन में पहली
बार समझ पायी कि क्यों कोई पर्वत-शिखर को सहलाती मेघ-मालाओं में खो जाता है, क्यों किसी को अपने
तन-मन की अपेक्षा आकाश में बनते-मिटने चित्रों का इतना मोह हो रहता है। .....क्या
बात है माँ? इस तरह चूप क्यों हो?
अम्बिका:- और मैं धर में दुकेली
कब होती हूँ? तुम्हारे यहाँ रहते मै अकेली नहीं होती?
मल्लिका:- मैंने भावना में एक भावना का वरण किया है। मेरे लिए वह सम्बन्ध और सब
सम्बन्धों से बड़ा है। मैं वास्तव में अपनी भावना से प्रेम करती हूँ जो पवित्र है, कोमल, अनश्वर है....।
अम्बिका:- तुम जिसे भावना कहती
हो वह केवल छलना और आत्मा-प्रवंचना है। ... भावना में भावना का वरण किया है!....
मैं पूछती हूँ भावना में भावना का वरण क्या होता है? उससे जीवन की आवश्यकताएँ किस तरह पूरी होती है?.. भावना में भावना का
वरण ! हँ !
कालिदासः- हम जिएँगे हरिणशावक ! जिएँगे न? एक बाण से आहत होकर
हम प्राण नहीं देंगे। हमारा शरीर कोमल है, तो क्या हुआ? हम पीड़ा सह सकते है। एक बाण प्राण ले सकता है, तो उँगलियों का कोमल
स्पर्श प्राण दे भी सकता है। हमें नए प्राण मिल जाएँगे। हम कोमल आस्तरण पर विश्राम
करेंगे। हमारे अंगों पर धृत का लेप होगा। कल हम फिर वनस्थली में धूमेंगे। कोमल दूर्वा
खाएँगे। खाएँगे न?
अम्बिका:- तुम्हारे साथ उसका
इतना ही सम्बन्ध है कि तुम एक उपादान हो, जिसके आश्रय से वह अपने से प्रेम कर सकता है, अपने पर गर्व कर सकता
है।
अम्बिका:- सम्मान प्राप्त होने पर सम्मान के प्रति प्रकट की गयी उदासीनता
व्यक्ति के महत्व को बढ़ा देती है। तुम्हें प्रसन्न होना चाहिए कि तुम्हारा भागिनेय
लोकनीति में भी निष्णात है।
मातुल:- मैं राजकीय मुद्राओं
से क्रीत होने के लिए नहीं हूँ। --ऐसे कहा जैसे राजकीय मुद्राएँ आपके विरह में
धुली जा रही हों, और चल दिये।
निक्षेपः- योग्यता एक चौथाई
व्यक्तित्व का निर्माण करती है। शेष
पूर्ति प्रतिष्ठा द्वारा होती है।
विलोम:- विलोम क्या है? एक असफल कालिदास। और
कालिदास? एक सफल विलोम । हम कहीं एक -दूसरे के बहुत निकट पड़ते है।
कालिदास:- मै अनुभव करता हूँ कि यह ग्राम- प्रान्तर मेरी वास्तविक भूमि है। मैं
कई सूत्रों से इस भूमि से जुड़ा हूँ। उस सूत्रों में तुम हो, यह आकाश और ये मेध
हैं, यहाँ हरियाली है, हरिणों के बच्चे हैं, पशुलाक हैं।
मल्लिका:- यह क्यों नहीं सोचते कि नयी भूमि तुम्हें यहाँ से अधिक सम्पन्न और
उर्वरा मिलेगी। इस भूमि से तुम जो कुछ ग्रहण कर सकते थे, कर चुके हो। तुम्हें
आज नयी भूमि की आवश्यकता है, जो तुम्हारे व्यक्तित्व को अधिक पूर्ण बना दे।
मल्लिका:- अब भी उत्साह का
अनुभव नहीं होता...? विश्वास करो तुम यहाँ से जाकर भी यहाँ से अलग नहीं होओगे। यहाँ का वायु, यहाँ के मेध और यहाँ
के हरिण, इन सबको तुम साथ ले जाओगे.....। और मैं भी तुमसे दूर नहीं होऊँगी। जब
भी तुम्हारे निकट होना चाहूँगी, पर्वत शिखर पर चली जाऊँगी और उड़कर आते मेघों में धिर जाया करूँगी।
अंक दो
मल्लिकाः जानते हैं, माँ इस सम्बन्ध में
क्या कहती हैं? कहती है कि जब भी ये आकृतियाँ दिखाई देती हैं, कोई न कोई अनिष्ट
होता है। कभी युद्ध कभी महामारी!.... परन्तु पिछली बार तो ऐसा नही हुआ।
प्रियंगु:- राजनीति साहित्य नहीं
है। उसमें एक-एक क्षण का महत्व है। कभी एक क्षण के लिए भी चूक जायें, तो बड़ा अनिष्ट हो
सकता है। राजनीतिक जीवन की धुरी में बने रहने के लिए व्यक्ति को बहुत जागरूक रहना
पड़ता है।... साहित्य उनके जीवन का पहला चरण था। अब वे दूसरे चरण में पहुँच चुके
हैं। मेरा अधिक समय इसी प्रयास में बीतता है कि उनका बढ़ा हुआ चरण पीछे न हट जाय।....
बहुत परिश्रम पड़ता है इसमें।
अम्बिका:- राज्य के स्थपति घर की भित्तियों का परिसंस्कार कर देंगे! आज वह शासक है, उसके पास सम्पत्ति है। उस शासन और सम्पत्ति का परिचय देने के लिए इससे अच्छा और क्या उपाय हो कता था?
अंक तीन
मातुल:- मुझसे कोई पूछे तो
मैं कहूँगा कि राज-प्रसाद में रहने से अधिक कष्टकर स्थिति संसार में हो ही नहीं
सकती। आप आग्र देखते हैं, तो प्रतिहारी जा रहे है। पीछे देखते हैं, तो प्रतिहारी आ रहे
हैं। सच कहता हूँ, मुझे कभी पता ही नहीं चल पाया कि प्रति हारी मेरे पीछे चल रहे हैं या
मैं प्रतिहारियों के पीछे चल रहा हूँ
राजनीति में कुछ भ
असम्भव नहीं है। जितना सम्भव है कि ऐसा न हो, उतना ही सम्भव है कि ऐसा हो। और यह भी सम्भव है जो हो, वह न हो...।
मै समझता हूँ कि जो
कुछ मै समझ पाता हूँ, सत्य सदा उसके विपरीत होता है। और मैं जब उस विपरीत तक पहुँचने लगता
है, तो सत्य उस विपरीत से
विपरीत हो जाता है। अतः मैं जो कुछ समझ पाता हूँ, वह सदा झूठ होता है।
मल्लिका:- मैं यद्यपि तुम्हारे
जीवन में नहीं रही, परन्तु तुम मेरे जीवन में सदा बने रहे हो। मैंने कभी तुम्हें अपने से
दूर नहीं होने दिया। तुम रचना करते रहे, और मैं समझती रही कि मै सार्थक हुँ, मेरे जीवन की भी कुछ उपलब्धि है।
यह मल्लिका है जो
धीरे-धीरे बड़ी हो रही है और माँ के स्थान पर अब मैं इसकी देख-भाल करती हूँ।... यह
मेरे अभाव की सन्तान है। जो भाव तुम थे, वह दुसरा नहीं हो सका, परन्तु अभाव के कोष्ठ
में किसी दूसरे की जाने कितनी-कितनी आकृतियाँ हैं! जानते हो मैंने अपना नाम खोकर
एक विशेषण उपार्जित किया है और अब मैं अपनी दृष्टि में नाम नहीं, केवल विशेषण हूँ।
इसलिए किम मैं टूटकर
भी अनुभव करती रही कि तुम बन रहे हो। क्योंकि मैं अपने को अपने में न देखकर तुमें
देखती थी। और अपने को अपने में न देखकर तुममें देखती थी। मुझे सत्ता के बोध से इस तरह वंचित कर दोगे?
कालिदास:- अभावपूर्ण जीवन की वह एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया थी। सम्भवतः उसमें
कहीं उन सबसे प्रतिशोध लेने की भावना भी थी जिन्होनें जब-तक मेरी भर्त्सना की थी, मेरा उपह्ास उड़ाया
था।
एक राज्यधिकारी का कार्यक्षेत्र मेरे कार्यक्षेत्र
से भिन्न था। मुझे बार-बार अनुभव होता कि मैंने प्रभुता और सुविधा के मोहे में
पड़कर उस क्षेत्र में अनधिकार प्रवेश किया है, और जिस विशाल में मुझे रहना चाहिए था। उसमें दूर हट आया हूँ।
जो कुछ लिखा है वह
यहाँ के जीवन का ही संचय था। ‘कुमारसम्भव की पृष्ठभूमि यह हिमालय है और तपस्विनी उमा तुम हो।‘मेधदूत के यक्ष की
पीड़ा मेरी पीड़ा है और बिरहविमद्रिता यक्षिणी तुम हो - यद्यपि मैंने स्वयं यहाँ
होने और तुम्हें नगर में देखने की कल्पना की। अभिज्ञान शाकुन्तल’ में शकुन्तल के रूप
में तुम्हीं मेरे सामने थीं। मैंने जब-जब लिखने का प्रयत्न किया तुम्हारे और अपने
जीवन के इतिहास को फिर-फिर दोहराया। और जब उससे हटकर लिखना चाहा, तो रचना प्राणवान्
नहीं हुई। ‘रधुवंध’ में अज का विलाप मेरी ही वेदना की अभिव्यक्ति है और...।
जो अभाव वर्षो से
मुझे सालते रहे हैं, वे आज और बड़े प्रतीत होते है, मल्लिका!
स्थान-स्थान पर इन पर
पानी की बूंदे पड़ी हैं जो निःसन्देश् वर्षा की बूंदे नहीं हैं। लगता है तुमने अपनी
आँखों से इन कोरे पृष्ठों पर बहुत कुछ लिखा है। और आँखों से ही नहीं, स्थान-स्थान पर ये
पृष्ठ स्वेद-कणों से मैले हुए हैं, स्थान-स्थान पर फूलों की सूखी पत्तियों ने अपने रंग इन पर छोड़ दिये
हैं।कई स्थानों पर तुम्हारे नखों ने इन्हें छीला है, तुम्हारे दाँतों ने इन्हें काटा है। और इसके अतिरिक्त ये ग्रीष्म की
धूप के हल्के-गहरे रंग, हेमन्त की पत्रधूलि और इस धर की सीलन...ये पृष्ठ अब कोरे कहाँ हैं
मल्लिका? इन पर एक महाकाव्य की रचना हो चुकी है..... अनन्त सर्गो के एक
महाकाव्य की।
विलोम: न जाने आँखों को क्या
हो गया है? कभी अपरिचित आकृतियाँ बहुत परिचित जान पड़ती हैं और कभी परिचित
आकृतियाँ भी परिचित नहीं लगतीं।... अब यह इतनी परिचित आकृति है और मै इसे पहचान ही
नहीं रहा आकृति जानी हुई है और व्यक्ति नया-सा लगता है।... क्यों बन्धु, तुम मुझे पहचानते हो?
मैने कहा था मैं अथ
से आरम्भ करना चाहता हूँ। यह सम्भवतः इच्छा का समय के साथ द्वन्द्व था। परन्तु देख
रहा हूँ कि समय अधिक शक्तिशाली हैं।