नागार्जुन की कविता बादल को धिरते देखा है का मूल्यांकन

नागार्जुन की कविता बादल को धिरते देखा है का मूल्‍यांकन


नागार्जुन जीवन संधर्ष के ही नहीं प्रकृति सौन्दर्य के भी कवि है। उन्होंने संधर्ष में ही सौन्दर्य देखा था। बादल को धिरते देखा है। शीर्षक कविता हिमालय के अछूत सौन्दर्य का अवगाहन है। इस सौन्दर्य की अनुभूति के लिए कवि हिमालय की चोटियों पर चढ़ने का जोखिम उठाता है। इस निर्मल प्राकृतिक सौन्दर्य के लिए हीं वह संधर्ष करने  से नहीं चुकता है। कवि के पास सौन्दर्य द्रष्टा चक्षु है। वह इससे हर अनछुए दृश्य को अनुभव करने और कराने की ताकत रखता है।

इस कविता में बादल को धिरते  देखा है की आवृत्ति कविता के हर बंद में होती है। कवि सिर्फ एकरसता तोड़ने के लिए आवृत्ति नहीं करता बल्कि वह आवृत्ति करता है नये नये ढंग से बादलों के बार बार धिरने को द्योतित करने के लिए।  साथ ही यह बताने के लिए कि किस तरह हर वार बादल का धिरना उसे एक नये अनुभव तक ले जाता है। इस कविता में हर वार कवि का साक्षात्कार एक सुन्दर शानदार प्रकृति बिम्ब से होता है तो इसके पीछे बादलो की हीं एन्द्रजालिक भूमिका है। कवि ने इस कविता में अपने भाषा संयम का परिचय दिया है। शुरू से आखिर तक वह सधन भावों को सामासिक भाषा में संवहित करता चलता है।

इस कविता में कवि अपना तत्सम संस्कार लेकर आता है। सौन्दर्य चेतना में तत्सम  शब्दों के प्रयोग की परिपाटी रही है। इसी परिपाटी का यहाँ अनुपालन हुआ है। प्रायः हर पेराग्राफ एक लम्बा वाक्य है। कवि इस वाक्य को उपवाक्यों, पदबंधों से सजाता है। इस भाषिक संरचना में वह भावों की तह दर तह पिछा कर एक संश्लिष्ट अर्थ संरचना तैयार करता है।

        कवि हिमालय पर है। वह अपने दृष्टि विस्तार में हिमालय के धवल विस्तार को समेटता है। उसने बार-बार देखा है निर्मल श्वेत गिरि शिखरों पर बादल को धिरते। मानसरोवर के प्रति स्नेह निवेदित करने के लिए ये बादल छोटे-छोटे मोती जैसे तुषार कणों को मनसरोवर में खिले हुए स्वर्णीम कमलों पर वर्षा करते है। मानसरोवर हिमालय के हृदय का दर्पण है। उसी में उसकी आकांक्षाएँ प्रतिबिम्बि होती है। हिमालय बादलों का घर है। ये बादल हिमालय की हीं संतान है। जिस तरह बच्चे घर से बाहर निकलते है एकत्रित होते है क्रीडाएँ करते है और फिर घर में समा जाते है, उसी तरह ये बादल बर्फ के वास्पीकरण से कही उपर एकत्रित होते है जलभार से  बरसते है और फिर अपने धर हिमालय में समा जाते है। असंख्य कमलों पर तुषार कणों की वर्षा सिर्फ एक सुन्दर बिम्ब ही नहीं रचती बल्कि मानसरोवर के इन कमलों के प्रति बादल के स्नेह को भी सूचित करती है।

       उँचे हिमालय के कंधों पर छोटी बड़ी कई झीले हैं। छोटी बड़ी ये झीलें हिमालय के पार्श्व में ही नैसर्गिक रूप से उग आयी है। इन झीलों का छोटा बड़ा  होना हिमालय से जुड़े यथार्थ को उद्धाटित करता है। कवि कृत्रिम नहीं नैसर्गिक सौन्दर्य देखने गया है। इस सौन्‍दर्य को वह हिमालय के फैलाव के साथ पकडता है। इस सौन्दर्य का पूर्णता के साथ चित्रण हीं कवि की कोशिश है। उन झीलों के सावले नीले जल में पावस कालिन उमस से आकुल हंस समतल मैदानों से आ आकर तीक्त मधुर कड़वे-मीठे कमल नाल खोजने तैरते दिखते है।  असंख्य हंसों के तिरने से झील में एक भव्य गतिशील बिम्‍ब निर्मित होता है। झील के जल की स्थितरता और हंसों के तैरने से उत्पन्‍न गति के कानट्रस्ट के कारण ही यह बिम्ब इतना हृदयग्राही बना है। ये हंस गर्मी से आकुल होकर शीलता की तलाश में आए है। उष्णता और शीतलता में कानट्रस्ट ही नहीं बिल्क एक दूसरे के लिए समाधान भी है।

       कवि हिमालय के इस अनुपम सौन्दर्य को सबसे सुन्दर ऋतु बसंत एवं सबसे सुन्दर समय सुप्रभात में देखता है। हिमालय पर मंद-मंद हवा वह रही है। प्रभात कालिन सूर्य की रश्मियाँ हिमालय के अलग-बगल शिखरों पर गिर रही है। रश्मि पात के कारण हीं ये धवलहिम शिखर सुन्दर आभा से दीप्‍त हो उठे हैं। कवि ने फैलाव में इन स्वर्ण शिखरों के सौन्दर्य को पकड़ना चाहा है। कवि को अनायास यह अनुभव होता है कि जो चकवा चकवी अभिशापित होने के कारण एक दूसरे से अलग रहने को विवश होते हैं, रात भर वियोग के कारण ही एक दूसरे से मिलने की व्याकुलता प्रकट करते है, रात भर उनकी विरह रूदन गुंजती रहती है, सुबह होते ही उनका बिरह रूदन थम जाता है। कवि की आँखे इस क्रंदन करने बाले चकना चकवी को ढुंढती हुयी उस सरोवर के किनारे ठहर जाती है जहाँ शैवालो की हरी दरी पर वे चकवा चकवी प्रणय कलह कर रहे हैं। यहां भी एक तरफ कवि र्स्‍वणिम शिखरों के सौन्दर्य को चित्रित करता है तो दूसरी तरफ क्षैतिजीय  विस्तार में फैले हुए सरोवर और उसके उपर प्रणय कलह करते चकवा चकवी के सौन्दर्य का।

       दुर्गम बर्फीली धाटी में सैकड़ों हजारो फुट की उँचाई पर कवि को वह कस्तुरी मृग दिख जाता है जो अपनी ही अलखनाभि से आने वाली उन्मादक सुगंधी की तलाश में इधर-उधर वेतहाशा दौड़ता है और सुंगधी का श्रोत न मिलने  पर अन्ततः अपनी असफलता पर चिढ़ता है। सुगंधी श्रोत के तलाश की दौर और फिर असफलात पर उत्पन्‍न चिढ को मृग से जोड़कर कवि ने इस दृश्य को अधिक संवेद्य बना दिया है।  कवि अपनी जातीय परम्परा से परिचित है। अपने साहित्य में प्रसिद्ध लोक प्रसिद्धियाँ  और काव्य परम्पराओं को जान रखा है। वह पुराण से यह जानता है कि ऐश्वर्य और समृद्धि का देवता कुबेर इस कैलाश पर रहता है। वह उस कुबेर और उसकी अल्‍कापूरी को भी ढुढता है। लेकिन न कुबेर मिलता है न उसकी अल्‍कापूरी मिलती है। कालीदास ने आकाश गंगा का भव्य चित्र खींचा है। इस आकाश गंगा को भी कवि कैलाश पर ढुढ़ता है लेकिन यह भी नहीं मिलती। उसने लगे हाथ उस मेधदूत को भी ढुंढा जो विरह प्रताड़ित यक्ष का संदेश लेकर यक्षिणी के पास गया था। लेकिन यह मेध दूत भी नहीं मिलता। कवि फिर अपने मन को समझाता हुआ कहता है कि संभव है कि वह मेधदूत अपने स्नेह भार से इसी कैलाश पर वरस गया हो। ये सारी कल्पनाएँ, कवि प्रसिद्धयाँ  कवि द्वारा सृजित है इसलिए उनका सच होना जरूरी नहीं है । कवि कल्पनाओं के सच और झूठ को नागार्जुन कवि होने के नाते हीं समझते हैं। इसलिए वे वर्णित कवि कल्पनाओं के सच की खोज के लिए बहुत माथापच्ची नहीं करता मान लेता है  कि वे सब झूठ है। कवि का यथार्यवादी दृष्टिकोण ही जैसे उन कवि कल्पनाओं को कैलाश पर ढूढने से रोकता है। कवि ने तो स्वयं अपनी आँखों से यहाँ आकाश को छुने वाले कैलाश शीर्ष पर भीषण जाड़ों में भी तुफानो से महामेध को गरज-गरज भिड़ते देखा है। यहाँ दृश्य और ध्वनि बिम्ब का शानदार संयोजन है।

       नागार्जुन हिमालय के सौन्दर्य को एक व्यापक चित्रफलक पर अंकित करते हैं। इस कविता का हर पैराग्राफ एक वृहत रंगीन दृश्य पट्ट को उद्धाटित करता है। अंतिम  पैराग्राफ कविता का सबसे लम्बा वाक्य है और इसी में कवि ने सबसे लम्बा और वृहत लैडस्केप निर्मित किया है। हिमालय के एक पार्श्व में देवताओं  का जंगल है। इस जंगल में सैकरों निझर निझरियाँ  कल-कल निनाद कर रहे हैं। लाल और उजले भोज पत्रों के छायी हुयी कुटी के भीतर अपने वालों को सुंगधित रंगबिरंगे फूलो से सजाए, शंख के समान सुन्दर गले में नीलम की माला डाले, कानों में आभूषण  की तरह नीलकमल लटकाए, अपनी बालों की चोटी को लाल कमल से सजाए, चांदी से बने मणि से जड़े कलामय चित्रों से अंकित पान पात्रो को अंगुर की शराब से भरे और उन्हें लाल चंदन की त्रिपटी पर सामने रखे दाग रहित मुलायम बालों वाले कस्तुरी के मृग छालों पर पलथी मारकर  बैठे मदिरा से लाल आँखों वाले प्रेमोन्‍मत किन्‍नड़ किन्‍नड़ियों को कवि ने अपनी मनोरम अंगुलियों से वंसी पर फिरते देखा है। ये किन्‍नड़-किन्‍नड़ियाँ  देवताओं की की ही एक जाति है। उनका मुँह घोड़े जैसा होता है। ये संगीत में प्रवीण होते है। ये कैलाश पर ही रहते है। कवि ने भले ही ऊपर वाले वन्‍ध में कवि कल्पित को झूठा माना हो लेकिन यहाँ वह फिर पुराणों में वर्णित किन्नड़-किन्नड़ियों  का उल्लेख कर कैलाश से उनका सानिध्य दिखाते हुए अपना यह चित्र पूरा किया है।

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