साक्षात्कार के लिए हिंदी साहित्य से संबंधित महत्वपूर्ण प्रश्न श्रृंखला-2

 साक्षात्कार के लिए हिंदी साहित्य से संबंधित महत्वपूर्ण प्रश्न श्रृंखला-2


1.      काव्य प्रयोजन क्या होता है \

      कविता का उद्देश्य काव्य प्रयोजन होता है।

a)   व्यैक्तिक आनंद के लिए अनुभव को व्यक्त करना

b)   यश के लिए कविता की रचना

c)   अर्थ प्राप्ति हेतु रीतिकाल

d)   उपदेश हेतु


2.      शब्द शक्ति क्या है \

 शब्द शक्ति वह माध्यम है जो शब्द का अर्थ बताती है।

  शब्द/वाचक - जो बोध कराए

  अर्थ/ वाच्य - जो बोध है

  अभिधा - जिससे शब्द का मुख्य/प्रसिद्ध अर्थ मिलता है

  लक्षण - मुख्य प्रसिद्ध अर्थ बाधित होने पर जिस शक्ति से           एक अन्य अर्थ मिलता है उस लक्षणा कहते है।      व्यंजना - जहाँ अभिधा या लक्षणा से अर्थ न मिले कोई               तीसरी शक्ति अर्थ दे व्यंजना कहलाती है।


3.      रस क्या है \

रस का अर्थ आनंद है। यदि हम कहते हैं कि कविता रसात्मक है तो इसका अर्थ है कि कविता आनन्ददायक है।

o   रस स्वयं कवि में नीहित है

o   रस कवि में नहीं उसकी रचना के पात्रों में निहित है

o   रस कवि या पात्र में नहीं मंचित पात्र को देखने में है

o   रस पाठक या दर्शक में है

रस कविता का ही नहीं, जीवन का भी आयाम है । 

रस नौ हैं -

स्थायी भाव      

रस

रति या प्रेम

श्रृंगार

हंसी

हास्य

शोक

करूण

क्रोध

रौद्र

उत्साह/ओज

वीर

जुजुप्सा

वीभत्स

विस्मय

अदभूत

वैराग्य

शांत

भय

भयानक

वात्सल्य

वत्सल

भागवत विषयक प्रेम

भक्ति

भरत मुनि की परिभाषा - स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव और संचारि के सहयोग से रस निकलता है।

    स्थायी भाव   – किसी भी भाव में आश्रय/ जिसके                          द्वारा भाव उत्पन्न हुआ है

विभाव       - जिसके कारण मन में कोई भाव उत्पन्न                    हुआ है।

अनुभाव     - जो भाव का अनुभव करा दे। कायिक -           जो शरीर से उत्पन्न हुआ है, सात्विक -            सहज रूप से भीतर से पैदा हो

     संचारी भाव   - एक जगह नहीं ठहरने वाले भाव


 4.      अलंकार क्या है \

अर्थ-आभूषण। शब्द और अर्थ के सौन्दर्य को अलंकार के जरिए और बढ़ाया जाता है।

    अलंकार के भेद:

    शब्दालंकार - शब्द पर आश्रित अलंकार अर्थात यदि कोई शब्द         बदल जाए तो अलंकार नष्ट हो जाए

1. छेकाअनुप्रास - अनेक वर्णों की यदि एक बार स्वरूपता औेर क्रमशः आवृति छेकानुप्रास है।

          उदा॰: बंदौ गुरूपद

2वृत्यानुप्रास - एक वर्ण की एक बार या अनेक बार आवृति

     उदा॰: पलक पराग- पल पलक

3लाटारनुप्रास - एक ही शब्द अर्थ की आवृति को लाटानुप्रास कहते हैं।

     उदा॰: लड़की तो लड़की है

4- श्लेष - जहाँ एक शब्द में कई अर्थो का जुड़ा होना श्लिष्ट पद कहलाता है। जहाँ कविता में प्रयुकत शब्‍द के अनेक अर्थ होते हैं वहाँ श्लेष अलंकार होता है।

उदा॰: रहिमन पानी राखिए बिन पानी सब सून

     पानी गए न उबरे मोती मानुष चून

5. वक्रोक्ति -श्लेष के कारण जब वक्ता के कथन का श्रोता अन्य अर्थ करे     

    उदा॰: कौ तुमहैं घनश्याम हम ।

तो बरसों कित जाई॥

6. यमक - भिन्नार्थक प्रयोग किए गए शब्द का अर्थ हर बार अलग होता है।

उदा॰: माला फेरत जग गयाफिरा न मन का फेर।

कर का मनका डारि देमन का मनका फेर। 

 

अर्थालंकार - अर्थ पर आश्रित अलंकार

1.  उपमा - यहां किसी वस्तु की तुलना किसी अन्य वस्तु से की जाती है। उदा॰:  पीपर पात सरिस मन डोला।

2.  रूपक-  जहां उपमेय और उपमान भिन्नता हो और वह एक रूप दिखाई दे

      उदा॰:  चरण कमल बंदों हरि राइ।

3. उत्प्रेक्षा - जहां प्रस्तुत में अप्रस्तुत की संभावना व्यक्‍त की जाए ।

   उदा॰: वृक्ष ताड़ का बढ़ता जाता मानो नभ को छूना चाहता।

4. भ्रांतिमान -जहां समानता के कारण उपमेय में उपमान की निश्चयात्मक प्रतीति हो और वह क्रियात्मक परिस्थिति में परिवर्तित हो जाए।

       उदा॰: फिरत घरन नूतन पथिक चले चकित चित भागि।
                फूल्यो देख पलास वनसमुहें समुझि दवागि ।।

5. सन्देह - यहां उसी वस्तु के समान दूसरी वस्तु की संदेह हो जाए ।

   उदा॰: सारी ही की नारी है कि नारी ही की सारी है।

6. अतिशयोक्ति अलंकार- जहां किसी वस्तु का वर्णन बढ़ा चढ़ाकर किया जाए वहां अतिशयोक्ति अलंकार होता है ।

   उदा॰: हनुमान की पूंछ में लगन न पाई आगिलंका सिगरी जल गई ,गए निशाचर भागी।।

7. विभावना अलंकार - जहां कारण के अभाव में कार्य की उत्पत्ति का वर्णन किया जाता है विभावना अलंकार होता है।

   उदा॰: चुभते ही तेरा अरुण बाण

        कहते कण – कण  से फूट – फूट

        मधु के निर्झर के सजल गान ।

8. मानवीकरण- निर्जीव में सचिव के गुणों का आरोपण होता है।

        उदा॰: फूल हँसे कलियाँ मुसकाई।  



5. नायकभेद

            भरत ने नाटक के नायक के चार भेद किए हैं 

  •  धीरोदात्त- अर्थात् जिसका हृदय शोक, क्रोध आदि से अप्रभावित हो, अति गम्भीर स्वभाव वाला, दूसरे की गलतियों को क्षमा करने वाला, आत्मप्रशंसा न करने वाला, सुख दुख आदि सभी परिस्थितियों में स्थिर स्वभाव वाला, अहंकार भाव को दबा कर रखने वाला, धैर्य धारण करने वाला, कार्य में दृढ़ता रखने वाला नायक धीरोदात्त होता है। उत्तररामचरित में राम धीरोदात्त नायक हैं। इसी प्रकार अभिज्ञान शाकुन्तलम् का दुष्यन्त इसी श्रेणी का है।
  •  धीरललित नायक- चिन्तामुक्त विविध कलाओं से प्रेम करने वाला भोगों में आसक्त रहने वाला, श्रृंगारप्रिय, सुख भोगने वाला, मृदु स्वभाव, शिष्ट व्यवहार करने वाला नायक धीर ललित कहलाता है। रत्नावली नाटिका का नायक उदयन
  •  धीरप्रशान्त नायक- नम्रता, उदारता, दान आदि गुणों से युक्त ,अति गम्भीर शान्त चित्त वाला ब्राह्मण कुल में उत्पन्न नायक को धीरप्रशान्त कहते हैं।  मृच्छकटिकम् का नायक चारूदत्त इस श्रेणी में आते हैं।
  •  धीरोद्धत नायक- शूरता आदि गुणों के अहंकार से युक्त होता है,वह दूसरों की संपन्नता से ईर्ष्या करने वाला,माया कपट आदि कर्मों में तत्पर रहने वाला, क्रोधी, अस्थिर स्वभाव वाला और स्वयं की प्रशंसा स्वयं करने वाला होता है। भीमसेन और परशुराम इस श्रेणी के नायक माने जाते है।

6. नायिका भेद

  निष्ठा के आधार पर 

  1.  स्वकीय - पति या प्रेमी से प्रेम 
  2.  परकीय - पति या प्रेमी के अतिरिक्त अन्य से भी
  3.  सामान्या - अनेको से । वेश्या

 

 

7. हिन्‍दी साहित्‍य का काल विभाजन


काल

कालक्रम की दृष्टि से

प्रवृत्ति की दृष्टि से

सम्‍वत् 1050-1375

आदि काल

वीरगाथात्मक

सम्‍वत् 1375--1700

पूर्व-मध्य काल

भक्तिकाल

सम्‍वत् 1700-1900  

उत्तर मध्य काल

रीतिकाल

सम्‍वत्1900 -अबतक

आधुनिक काल

गद्यकाल

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