कबीर की साधना पद्धति/साधना के श्रोत


 कबीर की साधना पद्धति/साधना के श्रोत

  कबीरदास जी का दर्शन भारतीय साधना पद्धतियों का हीं तर्कसंगत विकास है। कबीरदास जी में जात-पात विरोध की जो बाते हैं उसे देखकर कुछ लोग उसे मुसलमानी प्रभाव का परिणाम मानते हैं। जबकि यह सिद्धो-नाथों का प्रभाव है। अंग्रेज इतिहासकारों ने कबीर को एकेश्वरवादी कहा है। कबीर ने एकेश्वरवाद का खंडण किया है। उन्होंने कहा है कि

    !मुसलमान का एक खुदायीकबीर का राम घटि-घटि रहया समाई

    यहाँ एकेश्वरवाद का खंडन और अद्वैतवाद का मंडन है। कबीर का ब्रह्म निरगुण होकर भी हर घट में समाया हुआ है सब घट मेरा साईया सुनि सेज न कोय। चुँकि उस ब्रह्म के अलावा कोई है ही नहीं, इसलिए वह अद्वैत है। इस्लाम में ब्रह्म सर्वशक्तिमान है। इस्लाम में ब्रह्म सबसे बड़ी शक्ति है लेकिन एक मात्र नहीं। कबीर कहते हैंजिस अल्लाह के सत्तर हजार शालार हैंअस्सी लाख पैगम्बर है, 33 करोड़ खिल्वतखाने है वहाँ उसकी मजलिश में मुझ गरीब को भला कौन पूछेगा। जाहिर है कि कबीरदास इस्लाम के अनुयायी नहीं है। उन्होंने एकेश्वरवाद के साथ-साथ अल्लाह की उस व्यवस्था को भी नकारा है।

    कबीर की साधना पद्धति पर सूफी प्रभाव भी माना जाता रहा है। सूफियों ने प्रेम की पीर' की बात की है। कबीर की जीवात्मा भी उस प्रिय के लिए तड़पती है। हर क्षण मिलन की व्याकुलता देखकर ऐसा लगता है कि कबीर की यह वियोग साधना सूफियों के प्रभाव के कारण ही है। सम्भव है यह प्रभाव हो भी| लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारे यहाँ बाउल संतो की परम्परा है जिसमें प्रेम विरह की परिपाटी रही है। कबीर पर सूफी दर्शन का अन्य प्रभाव खोजना मुश्किल है क्योंकि कबीर का अद्वैत दर्शन सूफियों के अद्वैत दर्शन से मेल नहीं खाता। सूफी इस संसार को मिथ्या नहीं मानते हैंं। वे तो उस अलौकिक नूर तक पहुँचने के लिए इसे जरूरी माध्यम बताते है। इसके विपरीत कबीरदास जी इस संसार के मिथ्यात्व की बात करते हैं, ‘यह संसार कागद की पुड़ियाबुंद परे गलि जाना है’, इससे स्पष्ट है कि कबीरदास जी की साधना पद्धति सूफी मत से बिल्‍कुल भिन्न है।

    कबीर पर सबसे अधिक प्रभाव हैबज्रयानी सिद्धो और नाथपंथी योगियों का। वे ही पदवे ही राग रागिनियाँवे हीं दोहेवे ही चौपाईयाँ कबीर आदि ने व्यवहृत की है जो उनके पूर्ववर्ती साधकों ने व्यवहृत की थी। क्या भावक्या भाषाक्या अलंकारक्या छंद क्या पारिभाषिक शब्दसर्वत्र वे ही कबीरदास के मार्गदर्शक थे।

    कबीर दास जी में जाति भेद विरोध सिद्धो-नाथों का ही प्रभाव है। जाति भेद ने देश को जर्जर किया है। यह प्रथा हर मानवतावादी साधक को बुरी लगी। पाँचवी शताब्दी में अश्वधोष ने बज्रसूचि लिखी इसमें जाति व्यवस्था का तीव्र विरोध है। सरहपा कहता है कि ब्रह्मण ब्रह्म के मुख से पैदा हुए, जब पैदा हुए तब पैदा हुए। अब तो वे उसी तरह पैदा होते हैं जिस तरह दूसरे। फिर कहो ब्राह्मणत्व रहा कहाँ। यदि कहते हो कि वेद पढ़ने से कोई ब्रह्मण होता है तो चांडालों को भी वेद पढ़ने दो। यदि कहते हो कि कोई संस्कार से ब्रह्मण होता है तो चाण्डालों को भी संस्कार दो। कबीर में यदि जाति भेदसम्प्रदाय भेद के विरूद्ध उग्रता है तो इसके मूल में है उनका भुक्त-भोगी होना। उन्होंने जाति व्यवस्था के दंश को झेला था। वे ब्रह्मणों और तुर्को को अपना निशाना बनाते हुए कहते हैं

            जो तु बाभन बभनि जायाआनबाट भय काहे न आया।

            जोत तु तुरक तुरकनि जायाभीतर खतना क्यों न कराया।।

    हिन्दूओं और मुसलमानों में बढ़ते हुए झगड़े को देखकर गोरखनाथ के शिष्यों ने घोषित किया कि हिन्दू और मुसलमान दोनों एक की प्रभु की संतान हैं फिर भेद कैसा। कबीर भी कहते हैं

            ‘हिन्दु तुरक का करता एकैतागति लखि न जाई

सिद्धो-नाथों ने अपने ग्रंथो में पांडित्यशास्त्रवाद का मजाक उड़ाया है। कबीर भी इसका विरोध करते हैं। वे कहते है

            पंडित और मशालचीदोनो सूझे नाहि।

            औरन को करे चांदनाआप अंधेरे माहि।।

नाथ पंथ के ही सिद्धान्त ग्रंथ में हिन्दू धर्म की रूढ़ियों की छीछा-लेदर है। गंगा स्नान से मोक्ष मिलने के विश्वास की खिल्ली उड़ाते हुए कण्हपा कहते है

            ‘‘धर्मो यदि भवेत स्नानातकैवर्तानाम् कृर्थातता

              नक्तंल दिवं प्रविष्टानाम्मत्यस्यो दीनाकंतु का कथा‘‘

      संतो के बीच में इसी तरह का विश्वास प्रचलित है

            ‘‘गंगा मे नहाए कहो को नर तरिगे

              मछलि न तरि जाको पानी में ही घर है‘‘

     कबीरदास जी की उलटबाँसी भी सिद्धो-नाथों की उलटबाँसियों  से प्रभावित है। कबीर या अन्य संतो के नाम पर जो उलटबाँसी मिलती हैं उनमें कुछ तो उनकी अपनी है कुछ पूर्ववर्ती साधकों की और कुछ उनके शिष्यों द्वारा उनके मत्थे मढ़ी गयी।

    गोरखनाथ कहते हैं नाथ बोले अमृत वाणीबरसेंगी कम्बली भीजेंगा पानी‘ यह उलटबाँसी कबीर के नाम पर इस रूप में प्रचलित हैं कबीर दास की उलटी वाणीबरसेगा कम्बल भींजेगा पानी

    सरहपा के यहाँ गगन मंडल में जीवात्मा के प्रवेश का व्योरा इस प्रकार है

            जेहि वन पवन न संचरैरवि शशि नाहि पवेश

            तेहि वन चित्त विसाय करूसरूहे कहिए उमेश।

    कबीरदास जी के नाम पर हल्‍के शब्द भेद के साथ यही उलटबाँसी इस प्रकार मिलती है-

            जेहि बन  सिंह   न संचरैपँखि  उडै नहीं जाए।

            रैन दिवस का गम नहींतहाँ कवीरा रहा लौलाए।।

    कबीरदास जी को गुरू के ऊपर जो इतनी श्रद्धा दिखती है वह भी पूर्ववर्तियों का ही प्रभाव है। सिद्ध पंथी गुरू को बुद्ध से बड़ा बताते हैं। कबीर भी कहते है

            ‘‘गुरू गोविंद दोउ खड़े काको लागू पाए

            बलिहारी गुरूदेव की जिन गोविन्द दियो बताए।

    पंचमकारो की यदि कबीर के यहाँ चर्चा है तो उसे भी सिद्धों-नाथों का असर समझना चाहिए। पंचमकारों में सबसे अधिक चर्चा मदिरा की की गयी है। कबीर ने भी मदिरा की सबसे अधिक चर्चा की। उनकी मदिरा भाव की भट्ठी में ज्ञान रूपी गुड़ और ध्यानरूपी महुए को चुआने से तैयार हुयी थी

            अवघू मेरा मन मतवारा

            उन्मुनि चढा गगन-रस पीवैत्रिभुवन भया अजियारा

            गुड़करि  ज्ञान,  ध्यान करि महुआपीवै  पीवन हारा।

    कबीरदास की साधना पद्धति में जो शब्दावलियाँ प्रयोग की गयी हैं, वे भी सिद्धो-नाथों की भाषा से उठायी गयी है। कबीर ने अपने ब्रह्म को खसम कहा है। अरबी में खसम का अर्थ होता है पति। कबीर चुकि  अपने ब्रह्म को पत्नी भाव से साधते हैंइसलिए यह बिल्कुल सही प्रयोग है। कबीर का ब्रह्मशून्य है इसलिए खसम का अर्थ हुआ शून्य। सिद्धों ने भी इस खसम शब्द का प्रयोग शून्य के अर्थ में किया है ख + सम = शून्य।

    कबीर दास जी पर वैष्णव साधना और बारकरी सम्प्रदाय का प्रभाव द्रष्टव्य है। कबीरदास जी जिस रामानन्द को अपना गुरू बताते हैं वे वैष्णव हीं है। कबीर कहते है -

             ‘कबीर का संगी दोयि जनएक वैष्णव एक राम

    कबीर दास जी जिस तरह सिद्धों और नाथों से प्रभावित होकर भी सिंद्ध पंथी और नाथ पंथी नहीं है। उसी तरह वैष्णवों से प्रभावित होकर भी वैष्णव नहीं है। सिद्धों नाथों के यहाँ प्रेम तत्व नहीं था कबीर में है। वैष्णवों के यहाँ योग और निर्गुणसाधना नहीं है लेकिन कबीर के यहाँ है। कबीर के कांत भाव की साधना पर बारकरी सम्प्रदाय के नामदेव का प्रभाव देखा जा सकता है। नामदेव की एक उक्ति है- मैं वओरि मेरे राम भरतारू रचि रचि ताकौं करऔं सिंगारो। कबीर के नाम पर यही पद प्रचलित है - मै बओरि मेरे राम भरतार ता कारनि करौं स्यंगार । कबीर दास जी विभिन्न धर्म मतों का प्रभाव पचाकर भी अततः मौलिक बने रहते है। उन्होंने भारतीय धर्म साधना से ही रस लेकर अपनी साधना की जमीन तैयार की थी। इसलिए उनकी साधना पद्धति पूर्णतः भारतीय है।

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