राम की शक्ति-पूजा का महाकाव्यात्मक औदात्य /महाकाव्यात्मक महत्व

 राम की शक्ति-पूजा का महाकाव्यात्मक औदात्य /महाकाव्यात्मक महत्व



    डॉ॰ रामविलाश शर्मा के अनुसार राम की शक्तिपूजाका संगठन पाश्चात्य महाकाव्यों के ढंग पर हुआ है, प्राच्यो के ढंग पर नहीं। यह एक लम्बी कविता है। यह कविता पात्रो के चारित्रिक औदात्य, भाषा के ओजपूर्ण प्रवाह एवं संतुलित छंद निर्माण के लिहाज से महाकाव्यात्मक महत्व रखती है। डॉ॰ शर्मा पाश्चात्य महाकाव्यों में भी इसे मिल्टन के पाराडाइज लॉस्ट के करीब पाते हैं। उनके अनुसार इस कविता का प्रतीक विधान, बिम्ब गठन, सांकेतिक व्यंजनाएँ इसे मिल्टन के पाराडाइज लॉस्ट से भी अधिक सफल बना देती है।

     किसी भी महाकाव्य में कथा वस्तु, नाटकीयता और विविध वर्गीय चरित्रों का अपना महत्व है। राम की शक्ति-पूजा की आधिकारिक कथा राम की संधर्ष कथा है। हनुमान के उर्ध्वगमन की कथा प्रासंगिक कथा की तरह आती है। हनुमान की कथा, राम की संधर्ष कथा का ही एक उत्प्रेरक अंश है। हनुमान का उर्ध्वगमन आत्मशक्ति की तलाश की क्रिया है। आगे चलकर राम भी, आत्मशक्ति से ही उस महाशक्ति को साधने की कोशिश करते हैं। इससे स्पष्ट है कि योग द्वारा हनूमान का आत्मशक्ति की तलाश हेतु उर्ध्वगमन राम की मौलिक शक्ति के अन्वेषण का पूर्वाभ्यास है। हनुमान ने राम के दोनों चरणों को आस्ति-नास्ति का एक रूप माना है। उन्हें यह ब्र्रह्न के विरूद्धों के विराट समायोजन की तरह लगता है। इस ब्रह्न को साधने के लिए उन्होंने निर्गुण साधना एवं सगुण साधना जैसी परस्पर विरोधी पद्धतियों का समन्वय किया है। आगे चलकर राम दोनों साधना पद्धतियों के समन्वय से हीं महाशक्ति को पिघलाने की कोशिश करते है। इससे भी सिद्ध होता है कि राम की शक्ति साधना एक मानवीय प्रयास है और इसके लिए हनुमान की शक्ति साधना प्रेरक का काम करती है। राम की आधिकारिक संधर्ष कथा के विकास में हनुमान के उर्ध्वगमन की प्रासंगिक कथा सहयोगी भूमिका निभाती हुयी प्रमाणित होती है।

     इस कविता का रूप बन्द नाटकीय है। कविता शुरू होती है- रवि हुआ अस्त से। कवि शुरू में हीं युद्ध की समाप्ति की घोषणा कर यह स्पष्ट कर देता है कि युद्ध वर्णन उसका उद्देश्य नहीं है। लेकिन दो पंक्तियों के बाद कथा के पाश्चात्य भाग को सृर्जित करने के लिए युद्ध वर्णन चलता रहता है। जिस तरह लोकनाटक में कथावाचक भी बोलता है और पात्र भी, उसी तरह यहाँ भी कविता की प्रारंभिक 18 पंक्तियाँ कथावाचक निराला की वक्तिता के रूप में आयी है। इसमें चूँकि परस्पर विरोधी भावों को एक हीं जगह रख दिया गया है इसलिए इस वक्तव्य को बिना अभिनय कला के मंच पर पढ़ा तक नहीं जा सकता। कविता या कहें नाटक शुरू होता है लौटे युगदल से । लौटती हुयी सेना के साथ राम जब एक वार मंच पर आकर बैठ जातें हैं तो फिर उठतें हीं नहीं। कवि ने प्रकाश व्यवस्था का भी पर्याप्त ध्यान रखा है। पूरा नाटक जैसे एक छिन ज्योंति की पृष्ठभूमि में घटित होता है। प्रकाश मूलतः राम के चेहरे पर निक्षेपित होता रहता है और जब विभीषण, जाम्बवान और हनूमान के बोलने या कुछ करने की स्थिति आती है तो प्रकाश अपसरित होकर उनके चेहरे पर पड़ने लगता है। जल्दी-जल्दी भावों का आना-जाना भी नाटकीयता सृजित करने में मददगार है। राम की आँखों के सामने के आकाश को आच्छादित किए भीमा मूर्ति का दिखना, राम के कमजोर क्षणों में ही रावण का अट्टहास सुनायी पड़ना, शक्ति साधना के क्रम में दुर्गा का एक इन्दीवर उठा ले जाना, राम का एक आँख निकालने के लिए उद्यत होना और फिर देवी का त्वरित उदय- बिल्कुल नाटकीय घटनाएँ हैं। नाटक की तरह हीं इसकी कथा वस्तु में विभिन्न कार्यावस्‍थाएँ स्पष्ट दिखती हैं। राम की भीमामूर्ति को देखना और यह कहना- यह नर वानर का राक्षस से रण नहीं है, आरंभ है। जाम्बवान की सलाह पर राम की शुरू की गयी शक्ति साधना, प्रयत्न है। रह गया एक इन्दीवर/वह एक और मन रहा राम का जो न थका /ले अर्पित करने को उद्यत हो गये सुमन, प्राकत्याशा है। होगी जय, होगी जय, होगी जय हे पुरूतोषम नवीन- समाप्ति है। जीत सिर्फ संकेतित भर है।

    महाकाव्य और नाटक दोनों मे रस की परिकल्पना की जाती है। राम की शक्तिपूजा में वीर, श्रृंगार, करूण, रौद्र,  भयानक एवं शांत रस यथा स्थान रखे गए है। राम संधर्ष के दौरान भले ही निराश होते है, लेकिन वे कभी हार नहीं मानते। एक और मन रहा राम का जो न थका - उनका अपराजयेय मन है। राम शक्ति साधना जीत के लिए हीं करते हैं। इसलिए इस कविता में शौर्य कविता के केन्द्र में है इसलिए शौर्य को अंगीरस मानना चाहिए। निराला विभिन्न भावों से जुड़े हुए रसों को थोड़े हीं शब्दों में पल्लवित करते हैं। उनके द्वारा चित्रित भाव और रस रसानुभूति कराने में पूर्णतः सक्षम है। कथावस्तु, नाटकीयता, कार्यावस्था और रस की परिकल्पना यहाँ बिल्कुल महाकाव्य के ढंग पर हुयी है।

     कविता के नायक राम धीरोदात्त नायक हैं। उनके व्यक्तित्व में गजब का संतुलन है। न तो प्रेम के क्षणों में वे असहज दिखते हैं और न हीं दुःख के क्षणों में। सम्पूर्ण पुष्पवाटिका प्रसंग में राम कहीं भी अतिशय अह्लाद की दशा में नहीं दिखते जबकि प्रणयातिरेक से उनका रोम-रोम पुलकित है। गहरे दुःख के क्षण में भी सीता के स्मरण से राम की आँखों से दो बूंद आँसू भर टपक जाते हैं। आँसू उनके संघनित दुख का हीं व्यक्त रूप है। राम अपने भीतर के हहाकार या गहरी विफलता को भी बिल्कुल संयमित रूप में व्यक्त करते हैं। इससे उनके व्यक्तित्व का संतुलन उजागार होता है। जब एक मात्र शेष बचा इन्दीवर चोरी चला जाता है। तब उनका आत्मधिकार फूट पड़ता है। लेकिन उस आत्मधिकार के क्षण में भी वे अपने दूसरे मन के सहारे बुद्धि के दुर्ग में पहुँचते हैं। संधर्ष को मानवीय फलक देने के कारण हीं राम का चरित्र विशिष्ट है। उनकी लड़ाई सिर्फ सीता मुक्ति की नहीं है बल्कि मानवता को भी त्राण देने की है। उनके अलावा विभीषण, हनुमान, जाम्बवान, लक्ष्मण जैसे पात्रों के चरित्र को भी कवि ने थोड़े हीं शब्दों में निखारा है। विभीषण प्रत्यक्ष गतिविधियों का आकलन कर सकते है। लेकिन गहन भाव के ग्रहण की शक्ति उनमें नहीं है। जाम्बवान अनुभवी हैं। वे गहन भाव को ग्रहण कर सकते हैं और सही समय पर सही सलाह देकर समस्या का समाधान कर सकते हैं। वही राम को दृढ़ आराधन के द्वारा मौलिक शक्ति को पाने की सलाह देते हैं। हनुमान का वीर एवं भक्त रूप चित्रित है। लक्ष्मण का चरित्र परम्परागत है- चमका लक्ष्मण तेजस। जिस तरह महाकाव्य में प्रतिनिधि चरित्रों का आकलन होता है उस तरह इस कविता में भी कवि ने थोड़े ही शब्दों में सारे चरित्रों की विशिष्टताएँ उभार कर रख दी है।

     महाकाव्य में चिरंतर मूल्यों की प्रतिष्ठा होती है। कवि प्रारंभ में हीं राम और रावण की लड़ाई को सत् और असत् जैसी परस्पर विरोधी प्रवृत्तियों के बीच का टकराव बताकर इसकी सनातनता ध्वनित करता है। हर युग में रावणत्व रामत्व के विरूद्ध सिर उठाता है। वह बार-बार पराजित होकर भी हार नहीं मानता बल्कि नए-नए रूप में सामने आता है और संधर्ष को अपरिहार्य बना देता है। रामत्व और रावणत्व के बीच का संधर्ष समाज की दो प्रतिरोधी शक्तियों का हीं संधर्ष नहीं बल्कि एक हीं मनुष्य के भीतर के रामत्व और रावणत्व के बीच का संधर्ष भी है। अराधन या शक्ति की मौलिक कल्पना भी चिरंतर चेष्टा है। हर युग का मानव परम्परा का सर्जनात्मक प्रयोग करता हुआ नवीन शक्ति का अन्वेषण करता है। अन्वेषण की कामना पुराने मूल्यों और औजारों के बेअसर होने से जगती है। इसलिए जब भी मनुष्य के सामने नयी चुनौती आएगी, वह दृढ़ आराधन के जरिए शक्ति के मौलिक कल्पना के लिए प्रयत्नशील होगा। दृढ़ अराधन में निहित पूजा भाव अन्वेषण के प्रति प्रतिबद्धता के अलावा कुछ नहीं है।

     महाकाव्यात्मक कविता में मांगलिक भाव होता है। राम की शक्ति-पूजा का सारा पूजा विधान मांगालिक भावों से युक्त है। उनका प्रयत्न है जीवन से रावण जय भय को समाप्त करने की। वे इसके लिए हीं महाशक्ति का दृढ़ आराधन करते हैं। उनके  आराधना के मूल में लोकहित हीं सक्रिय है। वे उस दुर्गा को साधना चाहते हैं जिसके पाँव हमेशा असुरों के संहार के लिए उठते है। इससे स्पष्ट है कि यह कविता लोकमंगल के प्रति प्रतिबद्ध है। किसी भी महाकाव्य का अंत आशा में होना चाहिए। कालिदास के रघवंशम् में रघु की मृत्यु के बाद प्रजा दुःखी है। लेकिन अचानक उसे यह सूचना मिलती है कि रानी गर्भवती है। जनता हर्षित हो जाती है। यहाँ अन्त आशा में हुआ है। इसी तरह टी0एस0 इलियट के वेस्ट लैंड का अन्त भी आशा मूलक है। वंजर भूमि के उपर काले-काले बादल घुमड़ने लगते हैं। महाकाव्यों के ढंग पर ही राम की शक्ति-पूजा का अंत जीत की प्रत्याशा में हुआ है - ‘‘होगी जय, होगी जय, हे पुरूषोत्तम नवीन!

     महाकाव्य का फलक विराट होता है। उसमें विराट बिम्बों की योजना होती है। शिल्प सौन्दर्य और भाषिक अभिजात्य के लिहाज से भी वह निर्विवाद होता है। राम की शक्ति-पूजा में राम की समस्या जितनी व्यक्तिक है उतनी हीं सामाजिक, जितनी सनातन है उतनी ही तात्कालिक, जितनी आन्तरिक है उतनी ही बाह्य। इससे उसके फलक की व्यापकता का पता चलता है-

    अन्याय जिधर है, उधर शक्ति!

            X           X           X 

    देखा है महाशक्ति रावण को लिए अंक,

    लांछन को ले जैसे शशांक नभ में अशंक,

     जैसी पंक्तियाँ तो हर युग के लिए प्रासंगिक हैं। छायावादी काव्य विराट बिम्ब योजना के कारण भी जाना जाता है। निराला इस कविता में एक के बाद एक विराट चित्र खड़ा करते हैं।

    है अमानिशा, उगलता गगन घन अंधकार

        X           X           X 

    नयनों का - नयनों से गोपन-प्रिय सम्भाषण

        X           X           X 

    ये अश्रु राम के, आते ही मन में विचार

        X           X           X 

देखा, बंधुवर, सामने स्थित जो यह भूधर

उपरोक्त संदर्भ अपने विराट बिम्बों के लिए स्मरणीय हैं। निराला की खूबी है कि वे एक ही शब्द चित्र से मनुष्य के भीतर और उसके बाहर के परिवेश दोनों का चित्र खड़ा कर देते हैं। दूसरी बात यह कि एक ही बिम्ब में लघु का विराट में और विराट का लघु में रूपान्तरण होता रहता है।

     यह पूरी कविता मुक्त छंद में लिखी गयी है। छंद योजना के क्रम में कवि का ध्यान मात्राओं की गिनती पर नहीं है। उनका ध्यान है भाव के अनुरूप पंक्ति की लम्बाई निर्धारित करने पर। कवि भाव की गति के अनुरूप आघात नियोजित करने में सिद्धहस्त है- सिहरा तन, क्षण भर भूला मन, लहरा समस्त में तीन आघात है लेकिन इसके बाद की पंक्ति में एक ही आघात है- हर धर्नुभंग को पुनर्वार ज्यों उठा हस्त। निराला ने इस कविता में प्रारंभ में ही सामासिक पदों की झड़ी लगाकर छंद की गति को आवश्यकतानुसार नियोजित किया है। युद्ध वर्णन में संयुक्ताक्षरों का प्रयोग किया गया है। निराला संयुक्तार के वर्णों की गुथम-गुथी के जरिए युद्ध का सांकेतिक चित्र उपस्थित करते हैं। राम की शक्ति-पूजा की प्रतीक व्यवस्था भी उसे अर्थवत्ता से लैश करती है। राम स्वयं प्रतीक है निरालाकालिन मुक्ति संर्धष, जनता की आजादी और अस्मितता का। इस आजादी का अपहरण विदेशी शक्ति ने किया है। रह गया एक इन्दीवर में इन्दीवर प्रतीक है राम के मन में शेष बची जानकी की कामना का। भाषा के ओजस्वी प्रवाह की झलक हनुमान के उर्ध्वगमन में मिलती है।


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