‘राम की शक्ति-पूजा' का शिल्प
राम की शक्ति-पूजा का शिल्प उसके द्वन्द्वात्मक वस्तु विधान के कारण द्वन्द्वात्मक है। इसकी द्वन्द्वात्मकता कवि एवं कवि के नायक राम के स्तर पर है। राम की संघर्ष कथा और उनका आत्मधिक्कार, निराला की अपनी संघर्ष कथा और आत्मधिक्कार की याद दिलाता है। जिस तरह निराला सरोज स्मृति में दुःख की जीवन की कथा रही/ क्या कहूँ आज जो नहीं कहीं के द्वारा अपने दुःखी जीवन को कोसते नजर आते हैं। उसी तरह राम की शक्ति-पूजा में राम अपने आप को कोसते हैं।
‘धिक जीवन को जो पाता ही आया
विरोध,
धिक साधन जिसके
लिए सदा ही किया शोध
जिस तरह राम
विरोधियों के सामने घुटने नहीं टेकते। अग्रीम मोर्चे पर, और संभल कर आते हैं उसी तरह निराला भी कभी हार नहीं
मानते, हमेशा हार को जीत
में बदलने की जिद पालते हैं। इस कविता में द्वन्द्वात्मकता प्रकाश और अंधकार, आशा और निराशा के बीच के संघर्ष को लेकर भी उभरती है।
कविता सूर्यास्त के बाद अंधकार की प्रभावशाली भूमिका के साथ शुरू होती है। अंधकार
के विरूद्ध सक्रिय है - कहीं चमकतीं दूर ताराएँ। कहीं केवल जलती मशाल और कहीं पृथ्व-तनया-कुमारिका-छवि। अंततः नभ के ललाट
पर रवि किरण के साथ अंधकार तिरोहित हो
जाता है। इस कविता में काव्यात्मक आशा का
संकेत है। द्वन्द्वात्मकता को कवि ने कहीं पदबंधो के स्तर पर राधव-लाधव-रावण-वारण कहीं उपवाक्य के
आधार पर - राक्षस-विरूद्ध प्रत्यूह- क्रुद्ध- कपि- विषम- हुहं कही पंक्तियों के
स्तर पर रखा है।
विच्छुरितवह्नि
-राजीवनयन- हतलक्ष्य-बाण
लोहित
लोचन-रावण-मद मोचन महियान
कवि ने पूरी कविता
में ही कॉनट्रास्ट गुंथ रखा है। द्वन्द्वात्मकता के कारण ही इस कविता का रचना
विधान नाटकीय है। नाटकीयता दृश्य परिवर्त्तन
से आती है। राम दिवा स्वपन की दशा
में लगातार मशाल को देख रहे हैं। उनकी
आँखो के सामने कभी पुष्पवाटिका प्रसंग उभरता है, कभी देवदूतों की तरह पंख फरकाकर उपर उठते हुए वाण
दिखायी पड़ते है। कभी वियोगिनी सीता की स्मृति आती है, तो कभी माता की छवि उभरती है। इस कविता में बेजोड़
नाट्य युक्ति इस्तेमाल की गयी है। कविता का नायक एक बार आकर जब श्वेत शिला पर बैठ
जाता है तो उठता हीं नहीं,
लेकिन कवि कुशलता
के साथ कथा को अतीत, वर्त्तमान और
भविष्य में धूमाता रहता है।
इस कविता में
लोकनाट्य तत्वों का उपयोग भी एक अभिनव शिल्प प्रयोग की तरह आता है। निराला कथावाचक
की तरह हीं आकर पूर्व धटनाओं की सूचना देते है। पूर्व धटनाएँ आज के युद्ध से
संबंधित है। लोक नाटक में कथावाचक की भूमिका के बाद हीं पात्र आते हैं। इस कविता
का पात्र केन्द्रित नाटक शुरू होता है - लौटे, युग-दल से। कवि कविता में दिवा स्वपन शैली का उपयोग
करते हुए तरह-तरह के भावों का अवतरण करता है। उससे चिंतन की एक अखंड चेतना प्रवाह
उभरती है। चेतना प्रवाह शैली में क्रमवद्धता नहीं होती लेकिन यहाँ कवि ने भावों के बीच का क्रम बनाए रखा है।
करूण,श्रृंगार, शौर्य,
भयानक और फिर करूण
रस एवं भाव के कारण काव्य श्रृंखला में बंधे हुए आते हैं। नाटक की प्रकाश व्यवस्था
भी नाटकीयता के अनुकूल है। पूरा नाटक अंधकार की पृष्ठभूमि में प्रकाश के छिन आलोक
के बीच सृजित किया गया है।
इस कविता में
स्वनशीलता और कथात्मकता के बीच भी द्वन्द्व है। स्वपनशीलता चाहती है कि एक बिन्दू
पर रूके रहना। कथात्मकता की मांग है आगे बढ़ते चलना कहीं रूकना नहीं। निराला के राम
जहाँ लगातार मशाल देख रहे हैं और आँखों के सामने एक के बाद एक दृश्य उभरते जाते
है। यह उनकी स्वपनशीलता की दशा है। कविता के पूवार्ध में स्वपनशीलता है एवं
उत्तरार्ध में कथात्मकता। जहाँ स्वपनशीलता है वहाँ कविता में अधिक अर्थगांभिर्य और
साहित्य है। लेकिन जहाँ कथात्मकता है वहाँ अर्थ की दृष्टि से विरलता है। इस लिहाज
से इस कविता में सधनता और विरलता, जड़ता और गतिशीलता का भी द्वन्द्व उभारता है।
इस कविता में कवि
ने पूनरावलोकन पद्धति का सधा हुआ प्रयोग किया है। निराला कविता की प्रथम दो
पंक्यिों के बाद पूनरावलोकन पद्धति से हीं राम और रावण के बीच हुए आज के युद्ध का
वर्णन करते है। आँखों के सामने पृथ्वी-तनया- कुमारिका-छवि का जगना, वाणों का पंख फरफरा
कर देवदूतों की तरह उड़ना,
आज की दिखायी पड़ी
भीमा मूर्ति का फिर दिखना,
पर माता मुझे कहती
थी राजीवनयन के क्रम में माँ की स्मृति का उभरना पूनरावलोकन पद्धति में ही चित्रित
है।
राम की शक्ति-पूजा
आख्याणमूलक है। अन्यपुरूष शैली आख्याण के लिए कविता की आजमाई हुयी पद्धति है। यह
शैली वर्णात्मक शैली कहलाती है। पौराणिक आख्यान को अपनी समसायिकता से जोड़कर निराला
ने इस अन्य पुरूष शैली को ही प्रयोगात्मक बना दिया है। इस शैली में ही उन्होंने
अन्तर्लोक और वहिर्लोक दोनो का चित्र एक
ही शब्द से खड़ाकर यह बता दिया कि यह शैली आज भी कई स्तरों पर अर्थ प्रसार करने के
लिहाज से उपयोगी है। उदाहरण स्वरूप निम्न
पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं -
है अमानिशा, उगलता,
गगन घन अंधकार,
X X X
जागी पृथ्वी-तनया-
कुमारिका- छवि]
X X X
काँपते हुए किसलय-
झरते पराग- समुदय
X X X
ये अश्रुराम के
आते ही मन में विचार में
निराला एक हीं
शब्द चित्र के द्वारा व्यक्ति और उसके परिवेश दोनों का बोध कराते है। कहीं कहीं तो
वे पात्र का नामोलेख तक नहीं करते लेकिन उससे संबंधित अर्थ प्रेषित करने में
कामयाव हो जाते हैं।
कविता में
फोटोग्राफिक तकनीक का भी उपयोग किया गया है। जहाँ दोनो ओर की सेनाओं का युद्ध
चित्रित है]
कोई एक पक्ष साफ
उभरता हुआ चित्रित नहीं दिखता] वहाँ जैसे फोटोग्राफी की लौंग शॉट है। जहाँ दोनो ओर की
सैन्य टुकड़िया लड रही है जैसे राक्षस-विरूद्ध-प्रत्युह-क्रुद्ध-कपि- विषय-हूह वहाँ
शार्ट शॉट और जहाँ राम की आँखों से चिंगारियों छिटक रही है या रावण की आँखे खून की
तरह लाल दिखायी पड़ती है वहाँ क्लोजअप है।
निराला ने चल
कैमरामैन की तरह ही दोनो ओर की लौटती हुयी
सेना का जैसे चित्र उतारा है ।
लौटै-युग-दल-
राक्षस-पदतल पृथ्वी टलमल]
बिंध महोल्लास से
बार-बार आकाश विकल।
वानर-वाहिनी खिन्न] लख निज-पति-चरण-
चिन्ह
चूकि उनका मतलब
राम से है। इसलिए वे वानर वहिनी का चित्र उतारते हुए अंत में लक्ष्मण को समेटते
राम पर आकर अपना कैमरा लाकर टिका देते है।
इस कविता में सभा
तकनीक का भी सफल उपयोग हुआ है। निराला नाटकीयता और वक्तिता के कवि हैं। सभा के
क्रम में ही विभिन्न पात्रों की वक्तिता उभरती है। सभा की शुरूआत हुयी है विभीषण
की वक्तिता से। लेकिन समस्या को उसके जड़ के साथ पकडने की क्षमता उनमें नहीं है।
राम की वक्तिता में जहाँ परिस्थिति के आकलन की क्षमता उभारती है, वहीं बुनियादी
चिंता और सत्य की परिकल्पना भी उभरती है। जाम्बवान का भाषण उनके आत्म विश्वास का
परिचायक है। वे इस सभा में विचारर्थ उपस्थापित दोनो मुद्दों - भीमा मूर्ति के रावण
के पक्ष में खड़े होने से उत्पन्न राम की चिन्ता (अन्याय जिधर है उधर शक्ति ) और प्रातः के रण के समाधान पर अपनी
स्पष्ट राय जाहिर करते है। अन्ततः सभा में जाम्बवान का दिया गया सुझाव प्रस्ताव ही
ध्वनि मत से पारित होता है। राम द्वारा जाम्बवान की सलाह मान लेना सर्वसम्मत
प्रस्ताव को आदर देना मात्र नहीं है बल्कि जनतांत्रिकता में उनकी आस्था का भी परिचयक
है। सभा तकनीक का सम्पूर्ण समावेश इस कविता के शिल्प को एक नया आयाम दे देता है।
कविता मुक्त छंद
में है। निराला ने भारतीय कवित्त छंद और यूरोपियन छंद शैली को मिला कर अपना मुक्त
छंद तैयार किया है। छंद विधान में कवि ने गति, प्रवाह और लय तीनों का ध्यान रखा गया है। कवि ने विराम
चिन्हों को लाकर कविता के भावों के आधार पर पंक्तियों की लम्बाई निर्धारित की है।
सहसा किसी भाव के जागरण के समय गति तेज हो जाती है। कवि ने संयुक्ताक्षरों का
प्रयोग युद्ध की ध्वनि पैदा करने के लिए किया है।