भ्रमरगीत
का उद्देश्य / दार्शनिक एवं साहित्यिक
पक्ष
सूरदास के 'भ्रमरगीत' के दो पक्ष हैं- दार्शनिक पक्ष और साहित्यिक पक्ष। दार्शनिक दृष्टि से
इसके प्रत्येक पात्र, स्थान
और घटना एक-एक आध्यात्मिक तथ्य के प्रतीक हैं। कृष्ण ब्रह्म हैं, गोपियाँ
जीवात्माएँ हैं, गापियों की
विरह-वेदना ब्रह्म के लिए आत्मा की पुकार है और उद्धव उस ज्ञानाभिमान के प्रतीक
हैं जिससे पीछा छुराकर ही ईश्वर को पाया जा सकता है। ‘भ्रमरगीत‘ के
साहित्यिक पक्ष में भाव व्यंजना, रस
परिपाक एवं अलंकार चमत्कार का अनूठा सामंजस्य हैं। भ्रमरगीत - रचना का उद्देश्य
कृष्ण द्वारा उद्धव को ब्रज भेजने के उद्देश्य से जुड़ा है। कृष्ण उद्धव को ब्रज
भेजते समय कहते हैं:
सुख-संदेश सुनाय
हमारो गोपिन को दुख मेटियो।
इसी बहाने कृष्ण यह
भी चाहते हैं कि उद्धव के योग-नीरस हृदय को प्रेम भक्ति से सिंचा जा सके। तीसरा उद्देश्य ब्रजवासियों की दशा, जानने
की उनकी इच्छा भी है। यह कहना स्थिति का
सरलीकरण है कि भ्रमरगीत निर्गुण पर सगुण की विजय दिखलाने के लिए रचा गया है।
दार्शनिक प्रतिपादन को लक्ष्य बनाकर या कथ्य को तर्कजाल में उलझाकर कोई भी महान
रचना नहीं रची जा सकती। सूर जैसे संवेदनशील कवि से यह चूक हो ही नहीं सकती थी,
कि वे एक मार्मिक प्रसंग को बौद्धिक जुगाली करते हुए गंवा बैठते।
प्रेम की एकान्वित अनुभूतियों को विरह व्यथा के द्वारा उजागर करना ही कवि का मुख्य
प्रयोजन है। गोपियों के प्रेम के आगे उद्धव ज्ञान एवं योग की तलवार समर्पित कर देते
हैं। मर्मस्पर्शी क्षणों की सही पहचान ही भ्रमरगीत की प्रभावान्विति का कारण है और
उसी कारण भ्रमरगीत पुष्टि मार्ग का घोषणा पत्र कहलाने से भी बच गया है। निर्गुण और
सगुण का विवाद कवि के लिए बस इतना महत्व रखता है कि निर्गुण कठिन मार्ग है और सगुण
अपेक्षाकृत सरल:
‘‘सब
विधि अगम विचारहिं तातैं
सूर सगुण लीला पद
गावै।’’
उद्धव
गोपियों के लिए कृष्ण का संदेश लाए हैं - निर्गुण का ध्यान धरने एवं सामाधि लगाने
का संदेश। गोपियाँ उनसे व्याख्या की अपेक्षा नहीं करती, बल्कि
बिलखने लगती हैं। वे निर्गुण का उत्तर रूदन एवं उद्धव के प्रति अपना गुस्सा जाहिर
करके देती है। वे कहती हैं कि घर-बार छोड़ने, अंग
में भस्म लगाने एवं सिर पर जटा धारण करने की सीख देकर दुःख देने का जैसे उद्धव ने
ठेका ले रखा है। उद्धव का शरीर इतनी दुःख पायी हुई युवतियों के शाप के कारण काला
पड़ गया है। फिर भी इन्हें डर नहीं होता।
‘ता सराप तै भयो
स्याम तन तउ न गहत डर जी कौ।’
यह तर्क का जवाब भावुकता से है। गोपियाँ निराकार को
अस्वीकार करती हुई जो तर्क देती है वे भी भावना से ओत-प्रोत है। व्यंग्य-कटाक्ष
एवं निर्गुण के निषेध द्वारा भी वे अपनी प्रेम का ही इजहार करती हैं। वे उद्धव से
संतुष्ट नहीं होतीं। यदि कृष्ण निराकार हैं तो लीलाएं किसने की? वे
पूछती है: निर्गुण किस देश का रहने वाला है? उनके
माता-पिता एवं पत्नी के नाम क्या हैं?
‘निरगुण कौन देश को
बासी?
को है जनक, जननि
को कहियत्त, कौन
नारि को दासी।
कैसो वरन, भेस
है कैसो, केहि
रस में अभिलासी।’’
गोपियों के विचार से निर्गुण ब्रह्म का कोई आधार नहीं है, न
ही उसका कोई निश्चित स्वरूप है।
उसकी आकांक्षाएं एवं निर्देश भी अनिश्चित हैं। इस तरह सब प्रकार से अज्ञान सत्ता
की आराधना कैसी हो सकती है?
दार्शनिक
निष्पत्तियाँ कवि का मुख्य प्रयोजन नहीं है। इसलिए गोपियाँ ज्ञान को मन का बोझ
बताकर आगे निकल जाती है। उनकी दृष्टि में निराकार तो मन का लड्डू है, उससे
भूख नहीं मिट सकती। यदि भक्ति असली दूध है तो ज्ञान खारे कुँएं का पानी, यदि
भक्ति सोना है तो ज्ञान भुस्सी है:
‘‘जाकौ
मोक्ष बिचारत बरनत, निगम कहत हैं नेति।
सूर स्याम तजि को
भुस फटकै, मधुप
तुम्हारे हेति।
ज्ञान चंचल है भक्ति स्थिर। भक्ति मन का विषय है ज्ञान तर्क
का। मन जिससे लग जाता है, तर्क
उससे हटा नहीं सकता। इसलिए गोपियाँ उद्धव के तर्क के सामने अपना हृदय रख देती है।
‘‘मन
में रहयौ नाहिं न ठौर।
नंद-नंदन अछत कैसे, आनियै
उर और।।’’
यहाँ ज्ञान और योग का जादू नहीं चल सकता। वे कहती हैं कि
तुम्हारा निराकार ब्रह्म भी हमें स्वीकार्य है, यदि
इसके माध्यम से कृष्ण हमें मिल जायें। गोपियाँ तो कृष्ण रूपी डोर के साथ घूमने
वाली लट्टू हैं। वे भला योग क्यों सीखें?
‘‘उधौ
हमहिं न जोग सिखैये।
जिहि उपदेस मिलै हरि
हमकौं, सो
ब्रत नेम बतैये।।
उद्धव ने प्रेम की
स्मृतियाँ को उद्धीप्त कर दिया है। अच्छा ही हुआ कि उद्धव आ गए,
नहीं आते तो उनके प्रेम की परीक्षा कैसे होती।
उधौ भाली भई ब्रज आए
विधि कुलाल कीन्हें
कॉचे घट, ते
तुम आनि पकाए।
X X X
ब्रज करै अँवा जोग
ईंधन करि, सुरति
आनि सुलझाए।
यहाँ सूर ने साँगरूपक के माध्यम से प्रेम की थाती को
चित्रात्मक बना दिया है। प्रेम के बल और विश्वास पर ही गोपियाँ कहती हैं-
'जोग ठगौरी ब्रज न
विकैहैं।'
‘भ्रमरगीत’ में ‘स्याम
मुख देखे ही परतीत’ कहने वाली गोपियों
के समक्ष उद्धव का ज्ञान गर्व धूल चटाने लगता है। विरह के कारण उनकी आँखों से जो
अश्रु पनाले बहते हैं; उसमें
उद्धव का ज्ञान-योग तिनके की तरह बह गया है। उद्धव गोपियों की प्रेमा-भक्ति में
निष्णात होकर सहज हो जाते हैं। मथुरा लौटकर वे कहते हैं:
‘‘अब
अति पंगु भयो मन मेरो
गयो तहाँ निर्गुण
कहिबे को, भयो
सगुण को चेरो।’’
उद्धव निर्गुण की प्रसंशा छोड़कर ‘सगुण
के चेरे’ हो
गए। उनका यह रूपान्तरण प्रज्ञा और तर्क के सहारे नहीं, बल्कि
प्रेमपरक तल्लीनता एव अश्रु पूरित भक्ति के द्वारा सम्पन्न होता है।
भ्रमरगीत में
गोपियों की भावना का केन्द्रीय बिन्दू उनकी प्रेमा भक्ति है। निराकर का खण्डन उनका
लक्ष्य नहीं है। इसलिए यहाँ पुष्टिमार्ग का दार्शनिक पक्ष क्रमानुसार प्रस्तुत
नहीं किया गया है और यह पुष्टिमार्ग के धोषणा पत्र कहलाने से बच गया है। यहाँ
दर्शन भावभूमि का अंग बनकर आया है, मुख्य
जोर तो अनुभूति पर है।
साहित्यिक पक्ष-
‘भ्रमरगीत’ का
साहित्यिक पक्ष अनुठा है। गोपियों की पीड़ा यहाँ क्षोभ, पश्चाताप, वेदना, आशा
आदि कई स्थितियों में अभिव्यक्त होती है। भाव की दृष्टि से भ्रमरगीत का विषय प्रेम
है और सभी दृष्टि से यह विरह श्रृंगार के अन्तर्गत आता है। भ्रमरगीत की गोपियाँ
सहृदय है। उद्धव से कृष्ण का पत्र पाकर उनमें से कोई उसे पढ़ने की चेष्टा करता है, कोई
नेत्रों से छूती है और कोई हृदय से लगा लेती है, पर
उसे वे बाँच नहीं पाती। इस पत्र से क्या लेना-देना ? क्या
पाती कृष्ण का स्थानापन्न बन सकती है? गोपियाँ
कहती है:
''
कोउ ब्रज बाँचत नाहिन पाती,
कत
लिखि-लिखि पठवत नंद नंदन कठिन विरह की
कांती।''
वे अपना सीधा सच्चा प्रेम देकर उद्धव से योग भी लेना नहीं
चाहती। दूसरी बात; मन तो दस-बीस हैं
नहीं, कि दस-बीस से नेह जोड़ा जाय।
''
उधौ मन न भये दस-बीस
एक
हुतो सो गयौ श्याम संग को अवराधै ईस।।''
उनकी प्यारी आँखे न तो ज्ञान से प्यास बुझा पाती है और न
उद्धव के दर्शन से चैन ही पाती हैं। उनकी स्थिति तो यह है कि ‘टक
टक भग जोहति अरू रोवती, भूले
हुँ पलक न लागी।’’ कृष्ण की याद में
उनकी दशा पावस के मेघ की तरह की हो गई है,
‘‘इहिं
विधि पावस सदा हमारे
बादर स्याम सेत
नैननि मैं, बरसि
आँसु श्रल ढ़ारे।।’’
यहाँ नेत्र के व्यापार पर सूर ने सबसे अधिक पद लिखे हैं।
शायद इसलिए कि गोपियों के लिए कृष्ण का दर्शन ही एकमात्र सुख है, उनके
अभाव में नेत्रों की दुर्दशा है।
सूर
के वियोग वर्णन की पूर्णता की चर्चा करते हुए आचार्य शुक्ल ने कहा है; ''वियोग की जितनी अन्तर्दशाएँ हो सकती हैं, जितने
ढंगों से उन दशाओं का सहित्य में वर्णन हुआ है और सामान्यतः हो सकता है, वे
सब उनके भीतर मौजूद हैं। सूर के पदों में विरह के सभी अवस्थाओं का वर्णन हुआ है।
प्रेमजन्य चिंता का एक उदाहरण
‘‘ उर
में माखन चोर गड़े।
अब
कैसेहु निकसत नाहि ऊधौ तिरछे ह्वै जू गड़े।
कृष्ण तिरछे होकर गोपियों के सरल सीधे हृदय में धंस गये हैं, किसी
तरह से निकल नहीं पाते। यह कथन का सरलीकृत रूप है, भाव
सौंदर्य का उत्कर्ष तो भिन्न है। इसमें कृष्ण के त्रिभंगी रूप का संकेत है जिसमें
अगाध सौंदर्य है, अथाह आकर्षण है। जो
उस रूप पर मुग्ध है, उसके
लिए उस छवि को हृदय से निकाल देना असम्भव है। भाव व्यंजना और रूप चित्रण का यही
औदात्य भ्रमरगीत को अमर बनाता है।
संगीत
की तमाव राग रागिनियाँ सूर में ढूँढ़ी जा सकती है। सूर की काव्य भाषा में अलंकारों
का प्रयोग काव्य चमत्कार को बढ़ा देता हैः
''
निरखत अंक श्याम सुंदर के बार-बार लावत्ति छाती।
लोचन जल कागद मसि
मिलि के ह्वै गई श्याम श्याम की पाती''
यहाँ अंक के दो अर्थ हैं - अक्षर और गोद। श्याम के भी दो
अर्थ हैं - काला और कृष्ण। इस कारण श्लेष है। यहाँ कवि ने श्लेष के माध्यम से
चमत्कार को रच दिया है।
सूर
के पास अलंकारों का एक वैभव युक्त संसार है । उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा
आदि अलंकार यहाँ सजीव हो उठे हैं। परम्परा प्रसिद्ध उपमानों को भी तराश कर वे मन
चाहा अर्थ निकाल लेते हैं:
''
उपमा एक न नैन गही
कविजन
कहत-कहत चलि आए, सुधि करि करि काइन
कही।''
यहाँ गोपियाँ उपमानों की सार्थकता पर ही प्रश्नचिन्ह लगा
देती है। वे एक-एक उपमान को चुन-चुनकर उनकी व्यर्थता पर कोसती हैं, पर
दूसरी जगह कृष्ण के लिए आए उपमानों को उचित ठहराती हैः
''ऊधौ ! अब यह समुझि भई।
नंद-नंदन
के अंग-अंग प्रति उपमा न्याय दई।।''
उपमानों से सूर का यह खिलवाड़ अलंकारों पर उनके विशेषाधिकार
को द्योतित करता है। गोपियों को उपमाएँ कहीं ठीक जँचती है और कहीं बेठीक। सूरदास
इस अंसगति को भी गोपियों के क्षोभ की जमीन पर रखकर स्वाभाविक बना देते हैं।