तुलसी के काव्य/ कवितावली में समाज का चित्रण
भक्तिकाल में किसी
रचनाकार के कृतित्व में तत्कालीन यथार्थ का इतना विषुद्ध और दारुण चित्र नहीं
मिलता, जितना तुलसी के साहित्य में प्राप्त होता है। कवितावली में तुलसीदास
कहते हैं काल बड़ा कराल है, राजा निर्दय है और राज समाज छली-कपटी है - कालु कराल, नृपाल कृपाल न, राजसमाजु बड़ोई छली
है। जीवन की विभषिका संपूर्ण यथार्थ को एक दुःस्वप्न के रूप में तब्दील कर चुकी
है। दिनोंदिन दरिद्रता दुष्काल, दुःख, पाप और कुराज्य दूने होते जा रहे हैं। इस भयंकर वास्तविकता से भय खाकर
सुख और सुकृत्य संकुचित हो रहे हैं। इस जमाने की करालता ऐसी है कि बड़े-बड़े पापी
डराने-धमकाने की ताकत के बल पर दाँव लगाते हैं और जो भी माँगते हैं, आसानी से पा जाते
हैं। पर भले आदमी का बुरा हो जाता है-
दिन-दिन दूनो देखि
दारिदु, दुकालु, दुखु,
छुरितु, दुराजु सुख-सुकृत
सकोच है।
मागें पैंत पावत
पचारि पातकी प्रचंड,
कालकी करालता, भलेको होत पोच है।।
(कवितावली, उत्तरकांड, पद संख्या 81)
(दिनों दिन दरिद्रता, अकाल, दुःख, पाप, राज्य विप्लव बढ़ते जा
रहे हैं, जिससे सुख और पुण्य घटते जा रहे हैं। समय ऐसा विपरीत हो गया है कि
बड़े-से-बड़े पापी को इच्छित वस्तु मिल जाती है, और भले का बुरा होता
है। तुलसीदास कहते हैं कि मेरा एकमात्र सहारा समर्थ, और सब संकटों से
छुड़ाने वाले सीतापति रामचन्द्रजी का ही हैं, जैसे बच्चे का सहारा
केवल माता ही है। हे कृपालु रामचन्द्रजी, मेरी हिम्मत की
प्रशंसा तो कीजिए, क्योंकि मुझे आपके नाम के भरोसे परिणाम की कुछ भी चिंता नहीं है।)
अपने युग के यथार्थ
और पीड़ामय संसार के साक्षात् गवाह होने के नाते भक्त कवि तुलसीदास का कहना है इस
संसार का संकट मिटेगा तो कैसे मिटेगा? तप तो कठिन है, और तीर्थाटन करके
अनेक स्थानों में विचरने से भी कुछ नहीं होगा क्योंकि कलियुग में न कहीं वैराग्य
है, न कहीं ज्ञान है - सब कुछ असत्य, सारहीन और फोकट का
झूट है। नट के समान अपने पेट रूपी कुत्सित पिटारे से करोड़ों तरह के इन्द्रजाल और
कौतुक का ठाठ खड़ा करना व्यर्थ है। सुख पाने का एक ही साधन है, रामनाम।
न मिटै भवसंकटु, दुर्घट है, तप तीरथ जन्म अनेक
अटो।
कलिमें न बिरागु, न गयानु कहूँ, सबु लागत फोकट
झूठ-जटो।।
नटु ज्यों जनि
पेट-कुपेटक कोटिक चेटक-कौतुक-ठाट डटो।
तुलसी जो सदा सुखु
चाहिअ तौ, रसनाँ निसिबासर रामु रटो।।
(कवितावली, उत्तराकांड पद संख्या 86)
(तप करना कठिन है, अतः संसारिक दुःख नही
मिट सकते। अनेक जन्मों तक तीर्थो में भम्रण करों, पर कलियुग में ज्ञान
और वैराग कही भी प्राप्त न होगा, सब निस्सार और पाखंडमय है। अतः नट की तरह अपने पेटरूपी बुरे पिटारे से
मंत्रों द्वारा करोड़ों खेल तमासे मत करो। तुलसीदास कहते है कि जो सदा सुख चाहते
हो तो जीह्वा से रात-दिन राम का नाम रटो।)
इस लोक में जन्म
ग्रहण करने के बाद इन्द्रिय निग्रह अत्यंत कठिन कार्य है। दान, दया, यज्ञ, कर्म और स्वधर्म - सब
धन के अधीन हो गया है। तप, तीर्थ और योग साधना वैराग्य से होते हैं किंतु मन तो हमेषा चंचल रहता
है। मन की दृढ़ता के बिना यह योग साधना और वैराग्य कैसे संभव है? अतः इस भयंकर समय में
राम ही कृपा कर सकते हैं। वही एकमात्र अवलम्ब है-
दम दुर्गम, दान, दया, मुख, कर्म, सुधर्म अधीन सबै
धनको।
तप, तीरथ, साधन जोग, बिरागसों, होई, नहीं दृढ़ता तनको।।
कलिकाल करालमें ‘राम कृपालु’ यहै अवलंबु बड़ो मनको।
‘तुलसी’ सब सजमहीन सबै, एक नाम- अधारु सदा जनको।।
(कवितावली, उत्तराकांड पद संख्या 87)
(इस भंयकर कलिकाल में
इंद्रियों का दमन करना कठिन है। दान, दया, यज्ञकर्म और सुधर्म
सब ही धन के अधीन हैं। तपस्या, तीर्थ, साधना,योग और वैराग हो नही सकते, अतः शरीर दृढ़ नही
होता। तुलसीदास कहते है कि इस कलिकाल में मन का सबसे बड़ा अबलंब यही है कि
रामचन्द्रजी कृपालु है। सब ही सब सयमों से हीन है, अतः भक्तों को सदा एक
आपके नाम का ही आधार है।)
यथार्थ के इस दंश और
नग्न सत्य के साक्षात्कार ने तुलसी की चेतना को झकझोरा है। धन की लूट-खसोट पर
अवलम्बित समाज में तुलसी अपनी हैसियत, अपनी वास्तविक स्थिति
की दो टूक और निमर्मम समीक्षा करते हैं - मेरा मन तो ऊँचा है और मेरी रुचि भी ऊँची
है, पर मेरा भाग्य कपट नीचा है। मैं लोकरीति के लायक कभी न रहा, बल्कि उलटे हमेशा
स्वच्छंद और वाचाल बना रहा। इतने साधन थे ही नहीं कि अपने स्वार्थ की पूर्ति करता, भला परमार्थ कैसे कर
पाता। इस पेट की भूख (जो कि बड़वाग्नि जैसे कठिन रही है) के कारण मेरी जिंदगी जी का
जंजाल हो गई है, चूंकि न तो कोई चाकरी मिली, न खेती की, न कभी व्यापार किया
और न कभी धंधे के रूप में भिक्षावृत्ति अपनायी। आजीविका के लिए न तो कोई धंधा मिला
और न कभी सीख पाया। हकीकत में हालत तो यहाँ तक पहुँच गई है कि अगर राम सहारा न दे
ंतो अपने पितरों को भेंट चढ़ाने के लिए मेरे सिर पर बाल भी नहीं हैं:
ऊंचो मन, ऊंची रुचि, भागु नीचो निपट ही,
लेकरीति लायक न, लंगर लबारु है।
स्वारथु, अगमु, परमारथ की काहा चली,
पेटकीं कठिन जगु जीव
को जवारू है।
चाकरी न आकरी, न खेती, न बनिज-भीख,
जानत न कूर कुछ किसब
कबारू है।
तुलसीकी बाजी राखी
रामहीकें नाम, न तु
भेंट पितरन को न
मुड़डू में बारु है।
(कवितावली, उत्तराकांड पद संख्या
66)
(मेरी अभिलाषाएँ, बड़ी-बड़ी है, रूचि भी ऊँची है, पर भाग्य अत्यन्त हीन
है। लोक-व्यवहार के योग्य भी नहीं हूँ; क्योंकि ढीठ और झुठा
हूँ। यहाँ तो भोजन-वस्त्र मिलना भी कठिन है, मोक्ष प्राप्त करने
की कौन बात कहूँ ? मुझे भर-पेट भेजन मिलना भी कठिन हो रहा है। (दूसरों पर निर्भर रहने के
कारण) संसार के लोगों के लिए भार हो रहा हूँ; न खेती ही कर सकता हूँ, न वाणिज्य ही कर सकता
हूँ, न भीख मॉग सकता हूँ, और मै निकम्मा न कुछ कारीगरी या व्यवसाय ही जानता हूँ। अतः तुलसीदास
कहते है कि मेरी प्रतिष्ठा तो रामनाम के प्रताप से ही रह सकती है, नही तो मेरे पास
पितरों को भेंट देने के लिए सिर मे बाल भी नही है, अर्थात मेरे पास राम
तक पहॅूचने के लिए रामनाम प्रेम के अतिरिक्त और कोई भी गुण नही है।)
तुलसी अपने अभाव, अपनी निपट दरिद्रता
और बेरोजगारी की दारुण अवस्था का जो चित्र पेश करते हैं, वह जन-साधारण की
अकिंचनता और बदहाली के अंकन के क्रम में खींचे गए चित्रों के अलबम का ही एक हिस्सा
है। ऐसा चित्रांकन आज भी जन-सामान्य की वैसी ही अवस्था देखकर करुणा उत्पन्न करता
है - ऐसी करुणा जो सामंती शासक वर्ग के प्रति गुस्से और नफरत से भरी है। दरिद्रता
के चित्रण की इसी कड़ी में अन्नपूर्णा के माहात्म्य के बहाने भूख से बिललाते रंक और
अकिंचन लोगों का वर्णन आता है-
लालची ललात, बिललात द्वार-द्वार
दीन,
बदन मलीन, मन मिटै ना बिसूरना।
ताकत सराध, कै बिबाह, कै उठाह कछू,
डोलै लोल बूझत सबद
ढोल-तूरना।।
प्यासेहूँ न पावै
बारि, भूखें न चनक चारि,
चहत अहारन पहार, दारि घूर ना।
सकको अगार, दुखभार भरो तोलौं जन
जौलौं देबी द्रवै न
भवानी अन्नपूरना।।
(कवितावली, उत्तराकांड पद संख्या
148)
(लालची टुकड़े-टुकड़े के
लिए ललायित होकर दरवाजे-दरवाजे दीन होकर बिलबिलाता है, उसका मुख मलिन हो
जाता है, और मन की चिंता नही मिटती। कही श्राद्ध या विवाह या कोई उत्सव तो नही, इसकी टोह में लगा
रहता है। अस्थिर होकर इधर-उधर फिरता रहता है और ढोल और तूरी के शब्द सुनकर पूछने
लगता है कि यहॉ कोई उत्सव तो नही जिसमें कुछ खाने को मिले। अत्यंत प्यासा होने पर
भी उसे पीने को जल नही मिलता, अतिशय भूखा होने पर भी उसे खाने को चने के चार दाने भी नही मिलते। वह
चाहता तो है अपरिमित भोजन, पर उसे बहुत प्रयास करने पर भी एक दाना दाल का भी नही मिलता। ऐसा आदमी
तभी तक शोक का घर है और दुःख के बोझ से दबा हुआ रहता है जबतक उसपर भवानी
अन्नपूर्णा जी कृपा न करें।)
भूखे लोगों पर देवी अन्नपूर्णा की कृपा नहीं है तभी तो जन-साधारण को
इस अकाल-दुष्काल से भयंकर भुखमरी का सामना करना पड़ रहा है। सिर्फ अकाल ही नहीं है, उसके साथ-साथ सूखा भी
पड़ रहा है। नतीजा यह कि न तो प्यासे को पानी मिलता है और न भूखे को भोजन। चने के
चार दाने तक नसीब नहीं होते। भूख से व्याकूल मनुष्य लालची जैसा लगता है चूंकि वह
टुकड़े-टुकड़े के लिए लालयित होकर, दीन और मलिन मुख से द्वार-द्वार बिलबिलाता फिर रहा है। पर इससे भूख
मिटाने की चिंता दूर नहीं होती। कहीं श्राद्ध, विवाह या किसी उत्सव
की टोह में वे लगे रहते हैं। कहीं दूर से भी जब ढोल या तुरही की आवाज सुनायी देती
है तो वे दौड़ पड़ते हैं। भुखमरी और अकाल के इस दुर्दिन में आहार की इच्छा पहाड़ के
समान है। पर इसके बावजूद उन्हें फेंकी दाल भी नसीब नहीं होती। जन-साधारण शोक और
दुःखभार से तड़प रहा है।
गोस्वामी तुलसीदास अपने वर्णन
में चित्रात्मकता के लिए प्रसिद्ध हैं। इसी कला के उदाहरण के रूप में दैन्य और
गरीबी के चित्र तो मिलते ही हैं - दरिद्रता रूपी रावण का रुपक भी बार-बार मिलता
है। जिस तरह रावण का संहार आवश्यक है, उसी तरह दरिद्रता
उत्पन्न करने वाले दुष्ट सामंती शासन का भी विनाश आवश्यक है। किसानों, बनियों और कारीगरों
की कैसी फटेहाली और दुर्दशा थी, इसे खास तौर पर कवितावली के उत्तरकांड के अनेक पदों में दर्शाया गया
है। यहाँ उदारण के लिए दोहे दिये जा रहे हैं -
किसबी, किसान-कुल, बलिक, भिखारी, भाट,
चाकर, चपल नट, चोर, चार चेटकी।
पेटको पढ़त, गुन गढ़त चढ़त गिरि,
अटत गहन-गन अहन
अखेटकी।।
ऊंचे-नीचे करम, धरम-अधरम करि,
पेट ही को पचत बेचत
बेटा-बेटकी।
‘तुलसी’ बुझाइ एक राम घनस्याम ही तें
आगि बड़वागितें बड़ी है
आगि पेट की।।
(कवितावली, उत्तराकांड पद संख्या
96)
(मजदूर, किसानों का समुह, बनियें, भिखारी, भाट, नौकर, चंचल नट, चोर, हलकारे, बाजीगर आदि सब लोग पेट भरने के लिए ही पढ़ते है और अपने मन से अनेक
गुणों को गढ़ते है, पहाडों पर चढ़ते है और शिकारी लोग घने वनों में दिन भर भटकते फिरते है।
भले-बुरे सब प्रकार के कर्म और धर्म अधर्म करके पेट के लिए मर मिटते है। यहॉ तक की
वे पेट के लिए अपने बेटा-बेटी तक को बेच देते है। तुलसी दास कहते है कि यह पेट की
अग्नि बड़वाग्नि से भी बड़ी है और केवल घने बादल रूपी रामचन्द्र जी से ही बुझ सकती
है।)
खेत मजदूर, किसान, व्यापारी, भाट, भिखारी, चोर, दूत और बाजीगर -
अर्थात् आम गरीब लोग पेट के लिए ही पढ़ते हैं, पेट के लिए ही
तरह-तरह के उपाय करते हैं, दुर्गम पर्वतों और जंगलों में जाकर षिकार करते हैं। ऊंच-नीच कर्म, धर्म-अधर्म, नीति-अनीति सब पेट के
लिए ही करते हैं - यहाँ तक कि बेटा-बेटी को बेच देते हैं। पेट की यह बड़वाग्नि ऐसी
है जिसे भगवान राम श्याम मेघ की वर्षा करके ही शांत कर सकते हैं।
खेती न किसान को, भिखारी को न भीख, बलि,
बनिकको बनिज, न चाकर को चाकरी।
जीविका बिहीन लोग
सघिमान सोच बस,
कहैं एक एकन सों ‘‘कहाँ जाई, का करी?’’
बेदहूँ पुरान कही, लोकहूँ बिलोकिअत,
साँकरे सबै पै, राम। रावरें कृपा
करी।
दारिद-दसानन दबाई
दुनी, दीनबंधु!
दुरित-दहन देखि तुलसी
हहा करी।।
(कवितावली, उत्तराकांड पद संख्या
97)
(तुलसीदास कहते है कि
हे राम चन्द्र जी, मैं आपकी बलि जाऊँ, अब ऐसा कुसमय आ गया है कि किसान की तो खेती नही लगती, भिखारी को भीख नही
मिलती, बनिये के पास वाणिज्य का साधन नहीं और नौकर को कही नौकरी नहीं मिलती।
इस प्रकार जीविका से हीन होने के कारण सब लोग दुखित है और शोक के वश में होकर एक
दूसरे से कहते है कि कहाँ जाए, क्या करें। हे राम जी वेद और पुराणों में भी कहा गया है और संसार में
देखा भी जाता है कि संकट पड़ने पर आपने सब पर कृपा की है। दरिद्रता रूपी रावण ने
संसार को पीड़ित किया है, अतः दीनबंधु रामचन्द्र जी, आपको पापनाशक समझकर
विनती करता हूँ।)
किसानों की खेती नहीं होती, भिखारी को भीख नहीं
मिलती, बनियों का व्यापार चौपट हो गया है और चाकरी चाहने वालों को रोजगार
नहीं मिलता। जीविका से हीन जनसाधारण शोकाकुल और संतप्त अपनी तड़फड़ाहट में एक-दूसरे
से पूछते हैं- कहाँ जायें, क्या करें? वेद, पुराण और लोक सभी कहते हैं कि ऐसे संकट में सिर्फ आपकी कृपा से ही
समस्या का कोई समाधान हो सकता है। हे दीनबंधु राम - दरिद्रता रूपी रावण ने दुनिया
को दबोच रखा है - इस पाप रूपी ज्वाला को देखकर तुलसीदास कातर होकर हाहाकार करते
हैं - प्रार्थना करते हैं।
अनेक इतिहासकारों ने तात्कालीन सामाजिक अवस्था का विष्लेषण करते हुए
यह बताया है कि उत्तर मध्यकाल में बार-बार अकाल पड़ता था और लाखों लोग भुखमरी की
भेंट चढ़ जाते थे। ऊपर उल्लिखित पदों से भी इस बात की पुष्टि होती है। कलिकाल वर्णन
से संबंधित सभी पदों में उस युग के यथार्थ का ही साक्षात्कार है - यद्यपि किंचित्
पौराणिक और धार्मिक पुट भी साथ-साथ द्रष्टव्य है।
अकाल और सूखा पड़ने के समय निर्धन जन-साधारण की तबाही-बर्बादी का
विष्वसनीय चित्र देने में तुलसी का अद्वैतवाद बाधक नहीं बनता है। लोगों के दैन्य
और अभाव के प्रति एक संवेदनषील रचनाकार के रूप में उनकी सजगता सम्पूर्ण कृतिव में
छायी हुई है। इसका एक प्रमाण तो यही है कि अपने उपास्य को सामर्थ्यवान, सर्वषक्तिमान, पराक्रमी और अलौकिक
गुणों से संपन्न बताने मात्र से वे संतुष्ट नहीं होते। उन्हें ऐसा प्रतीत है कि
इतना बताने मात्र से राम के प्रति अनुराग उत्पन्न होने वाला नहीं है। अतः बार-बार
कृपानिधान, करुणा के भंडार, दीनदयालु, गरीब नवज और विपन्न-वंचित जनों के शरणदाता के रूप में राम की महिमा का
बखान किया गया है।
‘‘रामचरितमानस’’ में राम वनगमन की कथा के साथ-साथ ग्रामीण-जनों की झोपड़ियों और
अभावग्रस्त स्थितियों का विवरण उस जमाने के जन-साधारण का वास्तविक दिग्दर्षन कराने
में समर्थ है। वनवासी जातियों की जीवन-स्थिति के वर्णन प्रसंग भी इसी तथ्य की ओर
संकेत करते हैं। गरीब जन-साधारण राजपरिवार की अंतर्कलह के दुःखदायी परिणामों पर
जैसी टिप्पणियाँ करते हैं और आवभगत में अपनी सहज निष्छलता का जैसा परिचय देते हैं
- उससे भी पता चलता है कि अपने समकालीन दलित-वंचित जनसमुदाय को गोस्वामी जी किस
दृष्टि से देखते थे। अपनी वास्तविकता अर्थात् अपने दैन्य को पूर्वजन्म का फल मानने
वाली प्रजा सामंती मूल्यों की अनुगामिनी बनी हुई है। विचारधारा के स्तर पर तुलसी
इसे गौरवान्वित करते हैं। अयोध्या कांड में वर्णित केवट प्रसंग इस दृष्टि से बहुत
ही महत्वपूर्ण और सार्थक है।
राम, लक्ष्मण और सीता गंगा तट पर हैं। नदी पार करने के लिए केवट से आग्रह
किया जा रहा है। रामचरितमानस और कवितावली में राम और केवट का संवाद थोड़ा
भिन्न-भिन्न है। रामचरितमानस में केवट कहता है कि मेरी तरणी मुनि की धरनी हो जाएगी
तो मैं रोजी रोटी कैसे कमाऊंगा? मेरे पास और तो कोई धंधा नहीं है। इस बहस के बाद चरण पखारने की अनुमति
मिलते ही केवट राजकुल के परिवार को नाव से पार उतार देता है। सीता नाव की उत्तराई
के लिए अपनी रत्नजड़ित अंगूठी देना चाहती हैं। केवट का उत्तर है - मूझे अंगूठी नहीं
लेनी। मुझे तो सब कुछ मिल गया। मेरे दोष, दुःख और दरिद्रता की
दावाग्नि बुझ गयी - नाथ आज में काह न पावा। मिटे दोष दुख दरिद दावा।
कवितावली में यही
संवाद तत्कालीन यथार्थ का एक दूसरा पहलू भी सामने लाता है। केवट तर्क करता है कि
मेरी नौका सड़ी-गली है, दूसरी बनावा नहीं सकता, छोटे-छोटे बच्चों का
लालन-पालन कैसे करूंगा। उसके घर में पत्तल पर मछली के सिवा कुछ भी नहीं होता।
बच्चे छोटे-छोटे अर्थात् कमाने लायक नहीं हैं। मैं दीन-हीन और दरिद्र तो हूँ ही।
वेद पाठी ब्राह्मण को दी जाने वाली षिक्षा-सुविधा से मेरे बच्चे वंचित हैं और मैं
निषाद जैसी शूद्र जाति का होने के कारण आपसे झगड़ा मोल नहीं ले सकता-
पात भरी सहरी, संकल सुत बारे-बारे,
केवटकी जाति, कछु वेद न पढ़ाईहौं।
सबु परिवारु मेरो
याहि लागि, राजा जू
हौं दीन बिलहीन, कैसें दूसरी गढ़ाइहौं।
गौतम की घरनी ज्यों
तरनी तरैगी मेरी,
प्रभु सौं निषाद ह्वै
कै बात न बढ़ाइहाँ।
तुलसी के ईस राम
रावरो सौं, सॉची कहॉ।
बिना पग धोए नाथ नाव
न चढ़ाइहौं
(कवितावली, अयोध्याकांड पद संख्या 8)
(पत्तल भर मछली मारता हूँ, यही मेरी आजीविका है।
मेरे सब पुत्र अभी छोटी अवस्था के है, अर्थात जीविका पैदा
करने योग्य नही है। मैं केवट की जाति अर्थात नीच जाति का हूँ। अतः मैं उनको वेद भी
नही पढ़ाऊँगा, जिससे वे जीविका प्राप्त कर सकें। हे राजन ! मेरा तो सब परिवार इसी
नाव पर निर्भर है। मैं दीन तथा निर्धन हॅू, इससे दूसरी नाव कैसे
बनाऊँगा? मैं निषाद हूँ, स्वामी से व्यर्थ तकरार नही करूँगा। हे राम चन्द्र जी, मुझे आपकी शपथ है, मैं सच कहता हूँ कि
बिना आपके पैर धोये नाव पर नही चढाऊँगा, नही तो मेरी नाव भी
गौतम की पत्नी अहिल्या की भांति आपकी पदधूली से उड़ जायेगी।)
प्रभु से बात नहीं बढ़ाऊंगा - प्रभु सों निषादु हवै के बादु ना
बढ़ाइहौं।
कवितावली में सामंती
समाज के प्रति तुलसी का दृष्टिकोण आलोचनात्मक है। समाज में व्याप्त असमानता, दरिद्रता, गरीबी आदि से वे दुखी
है और इसीलिए वे बार-बार अपने राम से इन दुखों को दूर करने की प्रार्थना करते हैं।