तुलसी का युगबोध एवं
रामराज्य की परिकल्पना
मध्यकालीन भारतवर्ष
में सामन्तवाद के पतन के साथ-साथ हिंदू धर्म में भी जकड़बंदी, सड़ांध, गतिरोध और दुर्निवार बुराइयों
के लक्षण प्रकट हो रहे थे। पुराने व्यवस्था के पंडितों ने वेद-वेदांत, पुराण, स्मृति और
धर्मशास्त्र के नये-नये भाष्य प्रस्तुत कर मरणोन्मुख व्यवस्था को पुनजीवित करने और
बचाने का प्रयास किया। जाति प्रथा, वर्णाश्रम व्यवस्था, यज्ञ विधान आदि को नए
सिरे से अनुमोदित करने के पीछे तुर्क, अफगान, मुगल, पठान आदि विदेशी
आक्रमणकारियों और उनके धार्मिक-सामाजिक विचारों से रक्षा के प्रयासों ने
वैदिक-पौराणिक संस्कृति की पुनः प्रतिष्ठा की प्रवृत्ति को नये सिरे से मजबूत कर
दिया। सामंती शासक वर्ग ने अपने हितों को धार्मिक जामे में पेश करना आवश्यक समझा
और मुगल शासकों ने भी धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप न करने की नीति से इस
प्रवृत्ति को अपना समर्थन प्रदान किया।
तुलसीदास की विचार-व्यवस्था
और उनकी राजनीतिक चेतना उल्लिखित प्रतृत्ति के अनिवार्य अंग के रूप में विकसित हुई
थी। कहना न होगा कि जनसाधारण पर ढाये जा रहे जुल्म, उनकी दुरवस्था, दरिद्रता तथा
भूखे-नंगे लोगों की चीख-चीत्कार का वर्णन उन्होने पूरी मार्मिकता और करूणा के साथ
किया है। यहाँ तक कि महामारी, अकाल, गरीबी आदि की तत्कालीन वास्तविकता पूरी प्रखरता के साथ अंकित हो गई
है। धार्मिक पाखंड, आडम्बर, झूठ, मक्कारी, अनैतिकता आदि का पर्दाफाश करने में भी गोस्वामी जी ने अपनी तरफ से कोई
कसर नहीं छोड़ी है। पर अपने युग के सामाजिक-राजनीतिक संकट का हल प्रस्तुत करने में
वे वैदिक-पौराणिक संस्कृति के ढाँचे से बाहर निकल ही नही पाते। उनके पास एक ही हल
है - भक्ति, राम की भक्ति। उनका तर्क है कि राम गरीबनेवाज है, दीन दयालु है और
शारणागत की रक्षा करने वाले भक्त-वत्सल और उद्धारक है। तुलसी वर्तमान यथार्थ के
संकट का एक अतीतोन्मुख समाधान प्रस्तुत करने में राम कथा के सभी चरित्रों और
उपाख्यानों का आदर्शीकरण करते हैं। गोस्वामी तुलसीदास के संपूर्ण कृतित्व के अंदर
इस असंगति से उत्पन्न द्वन्द्व और तनाव की गूँज-अनुगूंज सुनी जा सकती है।
तुलसीदास ने एक ओर तो
तत्कालीन परिस्थितियों का विशद निरूपण किया तो दूसरी ओर रामराज्य की परिकल्पना
करते हुए आदर्श शासन व्यवस्था का प्रारूप प्रस्तुत किया। वे कहते हैंः
दैहिक दैविक भौतिक
तापा। राम राज काहू नहिं व्यापा।।
सब नर करहिं परसपर
प्रीती। चलहिं स्वधर्म निरत सुति नीती।।
सभी लोग परस्पर प्रेम से जीवन निर्वाह करते हैं तथा कोई किसी के प्रति
शत्रु भाव नहीं रखता। तुलसी ने जिस राम राज्य की रूपरेखा यहां प्रस्तुत की है
उसमें सुख का आधार भौतिक समृद्धि न होकर आध्यात्मिक भावना है। राम मानवता के चरम
आदर्श हैं उनका चरित्र अनुकरणीय है।
तुलसी कहते हैं कि राम के राज्य में कोई किसी से बैर नहीं करता तथा
राम के प्रभाव से विषमता नष्ट हो गई थीः
बयरु न करु काहू सन
कोई। राम प्रताप विषमता खोई।।
सभी लोग वर्णाश्रम धर्म का पालन करते थे और वेदविहित मार्ग पर चलकर
प्रेम सहित जीवन व्यतीत करते थे। उस समय धर्म अपने चारों चरणों सत्य, शौच, दया, दान सहित प्रतिष्ठित
था, पापकर्म विलुप्त हो गए थे, कोई भी व्यक्ति
स्वप्न में भी पाप नहीं करता था। सभी व्यक्ति राम की भक्ति में लीन होकर स्वर्ग के
अधिकारी वन गए थेः
बरनाश्रम निज निज धरम
निरत वेद पथ लोग।
चलहिं सदा पावहिं
सुखहिं नहिं भय सोक न रोग।।
कोई भी अल्पमृत्यु प्राप्त नहीं करता था, सभी सुन्दर और नीरोग
थे। कोई दरिद्र, मूर्ख एवं लक्षणों से हीन नहीं था। सभी लोग दंभ रहित होकर धर्म पालन
में लगे रहते थे। राम के राज्य में सभी नर-नारी उदार थे, परोपकारी थे और
द्विजों के सेवक थे। स्त्रियां भी मन, वचन और कर्म से पति
का हितचिन्तन करती थीं:
सब उदार सब पर
उपकारी। बिप्र चरन सेवक नर नारी।
एक नारि व्रत रत सब
झारी। ते मन बच क्रम पति हितकारी।।
रामचन्द्र के राज में अपराध कोई नहीं करता था इसीलिए ‘दण्ड’ की आवश्यकता ही न
पड़ती थी। ‘जीतना’ शब्द केवल मन के लिए सुनाई पड़ता था अर्थात् लोग मन पर विजय पाने के
लिए ही प्रयास करते थे अन्यथा ‘जीतने’ की इच्छा समाप्त हो चुकी थी।
रामराज्य पूर्णतः सुव्यवस्थित था। वनों में वृक्ष सदा फूलते-फलते हैं, हाथी और सिंह वैरभाव
भूलकर एक साथ रहते थे। पशु-पक्षी सहज वैर को भी भूलकर आपस में पारस्परिक प्रेम भाव
विकसित कर रहते थेः
फूलहिं फरहिं सदा तरु
कानन। रहहि एक संग गज पंचानन।
खग मृग सहज बयरु
बिसराई। सबन्हिं परसपर प्रीति बढ़ाई।।
रामचन्द्र के राज्य में सब अपनी-अपनी मर्यादा में रहते हैं। तालाब
कमलों से परिपूर्ण हैं, चन्द्रमा अपनी शीतल किरणों से पृथ्वी को भर रहा है तो सूर्य उतना ही
तप्त होता है, जितनी आवश्यकता है। मेघ मांगने से जल देते हैः
बिधु महि पूर
मयूखन्हि, रवि तप जेतनेहिं काज।
मांगे वारिद देहिं जल, रामचन्द्र के राज।।
तुलसी ने रामराज्य की कल्पना करते हुए राजा के लिए कुछ गुणों का उल्लेख किया है। यथा- लोक वेद द्वारा विहित नीति पर चलना, धर्मशील होना, प्रजापालक होना, सज्जन एवं उदार होना, स्वभाव का दृढ़ होना, दानशील होना आदि। राम में आदर्श राजा के सभी गुण विद्यमान हैं। राम को अपनी प्रजा प्राणों से भी अधिक प्रिय है तो प्रजा को अपने राजा राम प्राणों से अधिक प्रिय हैं। प्रियजन, पुरजन, परिजन, गुरुजन सबके प्रति राम का व्यवहार आदर्श एवं धर्म के अनुकूल है। ऐसे रामराज्य में विषमता टिक नहीं सकती और सभी प्रकार के दुखों से प्रजा को त्राण मिल जाता है। तुलसी ने रामराज्य का प्रारूप प्रस्तुत करते हुए एक आदर्श राज्य की परिकल्पना की है। वर्तमान काल में गांधीजी ने जिस रामराज्य की कल्पना की है, उसका मूल आधार भी तुलसी की रामराज्य परिकल्पना ही है। निश्चय ही यह एक आदर्श शासन व्यवस्था हैं जिसका मूल आधार लोकहित एवं मानववाद है।