राम भक्ति काव्य की विशेषताएँ

 

राम भक्ति काव्य की विशेषताएँ

            राम भक्तिधारा का नेतृत्व आचार्य रामानंद ने किया था। इस धारा में सबसे कम कवि काव्य रचना करते हुए मिलते है। कवि है तुलसीदास, अग्रदास, रामानन्द, ईश्वरदास, नाभादास आदि। तुलसी के अलावा शेष कवियों ने मुक्तक या खंड काव्य की रचना की है। किसी ने हनुमान या राम की आरती लिखी, तो किसी ने अष्टयाम। तुलसी के काव्य का फलक बहुत व्यापक है। युग की सम्पूर्ण चिंता धारा और इस राम काव्य धारा की सारी विशेषताएँ तुलसी के काव्य में समाहित हैं। यह कहना कि राम काव्य धारा सवर्णो की काव्य धारा है, सही नहीं हैं। इसमें तो सवर्ण कवि भी बहुत कम आए। उन्‍हें अंगुलियों पर गिना जा सकता है। वजह है कि तुलसी ने राम चरित्रमानस, विनय पत्रिका, कवितावली, दोहावली आदि लिखकर कविता का जो मानक खड़ा किया, उसने कम प्रतिभावन कवियों को आतंकित किया। दूसरे यह कि तुलसी ने राम के जिस मर्यादावादी चरित्र को रूपायित किया है उसे भी कविता में साधना सब के बस में नहीं था। यह तुलसी की प्रतिभा का आतंक है कि इस काव्य धारा से कम कवि आकर्षित हुए। तुलसी का काव्य इतना व्यापक इतना गहरा है कि राम काव्य कहने का अर्थ हो जाता है तुलसी का काव्य इसलिए राम काव्य की विशेषताएँ तुलसी के काव्य की भी विशेषताएँ है।

*    लोकमंगल-

तुलसी की भक्ति लोक कल्याणकारी शेष श्रृष्टि के साथ मनुष्य के रागात्मक संबंध की रक्षा और निर्वाह के काल है। तुलसी की कविता का मुख्य प्रयोजन ही है लोक मंगल। तुलसी ने मानस के प्रारंभ में ही इसकी लोक मांगलिकता स्वीकार की है। मंगला नाम च करतारो वंदे वाणि विनायको। तुलसी की कविता का उद्देश्य है शिवेत्तर क्षति। शिवेत्तर का अर्थ है जो शिव से इतर है अर्थात अमंगल। अमंगल की क्षति अर्थात मंगल। तुलसी की भक्ति और कविता की तहर तुलसी के नायक का चरित्र भी लोकमंगलकारी है। राम का जन्म संसार के कल्याण के लिए ही हुआ है- राम जन्म जग मंगल हेतु। इस लोक मांगलिक चरित्त नायक की कथा रचकर शिव जी ने अपने मानस में रख लिया और मौका पाकर इस कथा को पार्वती को सुनाया

रचि महेस निज मानस राखा। पाइ सुसमउ सिवा सन भाखा।।

ततें रामचरित मानस बर। धरैउ नाम हियँ हेरि हरषिं हर।।

(महादेव ने इसको रच कर आने मन में रखा था और सुअवसर पा कर पार्वती से कहा। इस से शिव ने इसको अपने हृदय में देखकर और प्रसन्न होकर इसका सुन्दर रामचरितमानस नाम रखा।)

राम का चरित्र कल्याणकारी है। इस चरित्र की कथा जिस मानस में रखी गयी वह मानस शिव मानस होने के कारण स्वयं कल्याणकारी है। इसलिए इस राम कथा को कल्याणकारी तो होना ही था। तुलसी की भक्ति, तुलसी की कविता, तुलसी के राम और इस राम कथा के प्रवक्ता शिवसब मंगलकारी हैं। इसलिए तुलसी की साधना लोक मंगल की है। तुलसी के राम होश संभालते ही विश्वामित्र के आग्रह पर उनकी आश्रम की रक्षा के लिए प्रस्थान करते हैं। सबसे पहले मारीच आकर रास्ता रोकता है, राम उसे डराने के लिए बिना फल के वाण से मारते हैं और वह समुद्र पार जाकर गिरता है। यह देखकर भी ताड़का, सुना अपना उत्पात नहीं छोडते तो राम उनका वध करते हैं। आगे चलकर राम अहिल्या का उद्धार करते हैं। राम सागर से तीन दिन अनुनय विनय करते हैं। लेकिन वह रास्ता नहीं देता, दुष्ट बिना भय के प्रीति नहीं करते बिनु भय होहिं न प्रीति। सागर की हठधर्मिता देखकर राम अपना धनुष तान देते हैं और सागर हाथ बांधे खड़ा हो जाता है। ऐसा नहीं कि राम हृदय परिवर्तन का मौका नहीं देते। देते हैं, लेकिन दुष्टों के हृदय परिवर्तन के लिए वे आजीवन प्रतीक्षा करने के लिए तैयार नहीं हैं।

तुलसी के राम की आस्था लोक धर्म में हैं। लोक हित का धर्म ही लोक धर्म है। सिर्फ क्षमा, दया, करूणा और उदारता ही लोक धर्म नहीं है क्रोध, घृणा, शोक, कृपा में भी लोक धर्म है। आचार्य शुक्ल कहते हैं अत्याचारियों के प्रति जो क्रोध का भाव होता है, दुःसाध्य दुर्जनों के प्रति जो ध्वंस का भाव होता है, व्याभिचारियों के प्रति जो घृणा होती है उसमें भी लोक धर्म अपना मनोहर रूप प्रकट करता है। तुलसी के राम साँप को दूध पिलाकर उसके हृदय परिवर्तन की प्रतीक्षा नहीं करते। दुष्टों की हृदय परिवर्तन की प्रतीक्षा तो एकान्त साधना है। अहिंसावादियों की एकान्त साधना के तुलसी विरोधी है। अहिंसावादियों की इस एकान्त साधना का ही परिणाम है कि छोटे मोटे अपराध करने वाले दंड और कारागार की सजा भोगते हैं और निर्मम नि़शंस हत्यारे बड़े पदों से पुरस्कृत होते हैं।

आचार्य शुक्ल ने तुलसी की नीति की व्याख्या करते हुए ही कहा कि यदि नीति संगत उपायों से किसी अत्याचारी का नाश न होता हो तो उसके लिए अनीति का सहारा लेना भी लोक धर्म है। इसी नीति के तहत् कह सकते है कि राम द्वारा बाली को छिपकर मारा जाना भी लोकधर्म ही हैं।

*    समन्वयवाद -

जार्ज ग्रियर्सन ने कहा है कि तुलसीदास गौतम बुद्ध के बाद सबसे बड़े समन्वयकारी हैं। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार तुलसी का साहित्य समन्वय की विराट चेष्टा है। इसमें निर्गुण और सगुण, शास्त्र और लोक, ब्राह्मण और शूद्र, पांडित्य और गार्हस्थ्य, शैव और वैष्णव, प्रबंध और मुक्तक, संस्कृत और लोक भाषा की दो विरूद्धों को मिलाने की कोशिश हुयी है।

     शैव और वैष्णव का झगड़ा सदियों से चला आ रहा था। तुलसीदास जी ने शिव को राम का अराध्य बताकर और राम को शिव का आराध्य बताकर शैवों और वैष्‍णवों के झगड़े को खत्म किया। उन्होंने निर्णुण और सगुण विवाद का अंत करने के लिए ही कहा।

अगुणहि सगुणहि नहीं कछु भेदा

उनके ब्रह्म अनीये’ (इच्छा रहित) अरूह’, ‘अनामाभी हैं अर्थात् व्यापक विश्व रूपभगवाना भी हैं।

उन्होंने संस्कृत भाषा में अपनी राम कथा नहीं लिखकर जन भाषा का प्रयोग किया इसलिए उनका काव्य जनता का कंठाहार है। लेकिन संस्कृत साहित्य के शास्त्रीय पद्धति को अपना कर उन्होंने संस्कृत के विद्वानों को भी प्रसन्न किया। जहाँ-तहाँ संस्कृत में भी श्लोक लिखकर वे अपने पांडित्य का परिचय देते हैं। रामचरित मानस प्रबंध काव्य है लेकिन इसमें विभिन्न देवी देवताओं की प्रशंसा में मुक्तक भी रखे गये हैं। इसकी कड़वक शैली में दोहे और चौपाई का समन्वय है। इस तरह तुलसी का सम्पूर्ण साहित्य समाज की विपतिताओं में सामंजस्य की कोशिश है।

*    मर्यादावाद -

सिद्धों नाथो एवं संतों ने सामाजिक असमानता के विरूद्ध जो आंदोलन छेड़ा, उससे व्यवहारिक स्तर पर तो समानता नही हीं आयी पहले से चली आ रही व्यवस्था भी छिन्न भिन्न हो गयी। तुलसी अपने साहित्य के द्वारा तत्कालिन अराजक व्यवस्था में राजकता लाने की कोशिश करते हैं। मर्यादावाद नियमों का शासन है। तुलसी ने मानस के द्वारा परिवार, समाज, व्यक्ति और राष्ट्र के कर्त्तव्य निर्धारित किये हैं। संबंधों की मर्यादाएँ बतायी हैं। उन्होंने पति-पत्नी, भाई-भाई, पिता-पुत्र, मालिक-नौकर, राजा-प्रजा के कर्तव्य निर्धारित किये और उनके संबंधों का स्वरूप स्थिर किया साथ ही उन्हीं संबंधों के निर्धारण में स्तरीकरण का भी ध्यान रखा। राम और लक्ष्मण का जो भातृ सम्बन्ध है वह भरत और राम के भातृ सम्बन्ध जैसा ही नहीं है। राम और विभिषण का मैत्री संबंध बिल्कुल वही नहीं है जो राम और सुग्रीव का मैत्री संबंध। पंचवटी और चित्रकुट में राम और सीता का पति-पत्नी संबंध हमें उच्चादर्श से परिचित कराता हैं। वन में राम और भरत का मिलन भाई से भाई का हीं नहीं, प्रेम से प्रेम का, शील से शील का, नीति से नीति का मिलन है। मर्यादावाद नियमों की कठोरता से मनुष्य के स्वाभाविक विकास और उसकी अन्तर्निहित इच्छा को दबाता नहीं है। यह रूढ़ियों के प्रति निष्ठा नहीं है। यह मानवीय सामाजिक विकास की नियमावली है। राम सीता को वन गमन के लिए नहीं कहते हैं वे तो उसे मना करते है। जैसे ही सीता कहती है कि आप के लिए तप और मेरे लिए भोग कहाँ तक उचित हैं। इस संसार में स्त्री के सारे नाते रिश्ते पति को लेकर है। जो संबंध पति के कारण मधुर लगते हैं वे ही पति की अनुपस्थिति में सूरज की ताप की तरह तपाने लगते हैं। सीता के तर्कों से निरूतर होकर राम उन्हें जाने की अनुमति देते हैं। यह मर्यादावाद व्यक्ति की स्वातंत्र्य चेतना को दबाने का वाद नहीं है। इसमें व्यवस्था के प्रति, कार्य संस्कृति के प्रति आग्रह ध्वनित होता है। तुलसी के राम के जीवन में जो व्यवस्था है वही व्यवस्था और अनुशासन राम के परिवेश में है और वही तुलसी की कविता की भाषा में भी है। सीता विरह पर राम का वियोग हृदय द्रावक है। राम पुछते हैं- हे खग, हे मृग, हे मधुकर श्रेणी, क्या तुने देखी सीता मृगनैनी?’ तुलसी ने नारी सौंदर्य और सामाजिक आचार विचार में भी मध्ययुगीन मर्यादा का ध्यान रखा है। वन जाते समय गाँव की स्त्रियाँ सीता को घेर कर पूछती हैं कि ये सांवरे कौन हैं। सांवरे सखि रॉवरे कौन है? सीता जवाब देती है-

बहुरि बदनु बिधु अंचल ढाँकी। पिय तन चितइ भौंह करि बाँकी।।

खंजन मंजु तिरीछे नयननि। निज पति कहेउ तिन्हहि सियँ सयननि।।

तुलसी का मर्यादावाद प्रेम का गला नहीं धोटता और न ही मनुष्य के स्वभाविक विकास को रोकता है। तुलसी के राम जब देखते हैं कि उनकी यह मर्यादा उनके भातृ प्रेम की रक्षा और विकास में वाधक बन रही है तो वे इसे तोड़ने की बात करने लगते हैं। प्रेम सभी मर्यादाओं से उपर है। लक्ष्मण को शक्ति लगने पर राम विलाप करते हुए करते हैं

ज्यों जनि तउं वनि वंधु बिछोउ

                        पिता बचन मनि तौ नहीं ओहु

ये तुलसी जानते थें कि नियम मनुष्य के लिए होते हैं मनुष्य नियमों के लिए नहीं होता। इसलिए वे मर्यादाओं की रक्षा की बात वहीं तक करते है जहां वे मनुष्य और समाज के हित में है।

*    सामुहिक शक्ति में विश्वास

तुलसी के राम की आस्था सामुहिकता में है। तुलसी ने अपने मानस को ईश्वर कथा का रुप न देकर मानव कथा का रूप दिया है। वैसे तुलसी रामचरित मानस में जगह -जगह राम के ईश्वरत्व का एहसास कराते रहते हैं। लेकिन राम की जो उन्होंने लीला चित्रित की है वह नर लीला है। ब्रह्म होने के नाते यदि राम चाहते तो सीता का हरण ही नहीं होता और यदि हरण हो गया तो रावण और अन्य राक्षसों का वे बैठे-बैठे संहार कर डालते। सीता के बियोग में राम विलाप करते हुए धूमते है। सुग्रीव से मैत्री स्थापित करते है। बंदरों और भालुओं के साथ सेतु निर्मित करते हैं और फिर लंका युद्ध में रावण और राक्षसों को पराजित करते हैं। रावण के विरुद्ध राम का युद्ध नर, वानर और भालू की सम्मिलित सेना का युद्ध है। तुलसी ने यहां राम की विजय को सामुहिक शक्ति से जोड़ा है। समुह की शक्ति में आस्था, सामाजिक शक्ति में आस्था है। तुलसी ने राम को अवतार बताते हुए भी सारा श्रेय राम को नहीं दिया लक्ष्मण, सुग्रीव, जाम्बवंत, हनुमान और अन्य वानर भालुओं को भी दिया है तभी तो राम की कथा मानव समाज की कथा का रुप ले लेती है।

*    शूद्र नारी विरोध-

आलोचकों ने तुलसी के काव्य से ही उद्धरण देकर तुलसी को शूद्र और नारी विरोधी प्रमाणित किया है। बार-बार कहा है कि तुलसी का काव्य सवर्णों का काव्य है। तुलसी अवर्ण विरोधी दृष्टिकोण रखते है क्योंकि वे अवर्ण नहीं है। तुलसी अपने जीवन में पत्नी से अपमानित हुए थे इसलिए जीवन भर नारी विरोधी बने रहे। तुलसी के काव्य की पंक्तियां भी बहुत हद तक ऐसे इशारों का समर्थन करती हैं-

            पूजिए विप्र शील गुण हीना।

शूद्र न गुण गण ज्ञान प्रवीणा।।

                                    x            x         x  

ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी।ये सब ताड़न के अधिकारी।।

                        x          x          x

             ज्यों स्वतंत्र होई विगरहिं नारी।

तुलसी के शूद्र एवं नारी संबंधी दृष्टिकोण की पड़ताल के लिए जहाँ तहाँ से उठायी गयी ये पंक्तियाँ पर्याप्त नहीं है। प्रबंध कवि विभिन्न चरित्रों  के माध्यम से बोलता है इसलिए उसके हर चरित्रों का कथन उसका दृष्टिकोण नहीं समझ लिया जाना चाहिए। दूसरे यह देखना चाहिए कि संपूर्ण कथा के विकास में उसका शूद्र या नारी संबंधी दृष्टिकोण क्या है? उसके नायक शूद्रों या नारियों के संबंध में क्या साचते और करते है। शुक्ल जी ने भी शूद्र और नारी संबंधी दृष्टिकोण पर अपनी टिप्पणी दी है। वे कहते हैं कि शूद्र शब्द का अर्थ जाति की नीचता से नहीं विद्या, बुद्धि, शील, संस्कार, सभ्यता की नीचता से लेना चाहिए। उस वैरागी महात्मा को जात-पात से भला क्या लेना। ढोल, गंवार, शूद्र, पशु नारी वाले संदर्भ में वे कहते हैं कि तांड्य शब्द ढोल के साथ आलंकारिक योग के लिए लाया गया है। वैसे वे शूद्र के साथ नारी शब्द का प्रयोग यहां सुरुचि विरुद्ध मानते हैं। वे कहते है कि तुलसी को वैरागी समझकर उनकी बात का बुरा नहीं मानना चाहिए। सवाल है यदि वैरागी समझकर माफी देनी है तो फिर इन्हें समाजिक व्यवस्था के संस्थापक, हिन्दू धर्म के रक्षक के रुप में क्यों देखा जाए। शुक्ल जी का तर्क तुलसी विरोधियों को आसक्त नहीं करता है। कुछ विद्वान तो तुलसी को आज पथ भ्रष्टक मानते है।

तुलसी दास जी के शूद्र और नारी संबंधी मत को समझने के लिए सबसे पहले तुलसी के राम के दृष्टिकोण को समझना जरुरी है। तुलसी के राम ब्रह्म है। सारी श्रृष्टि उन्हीं की रचना है। राम कहते है कि-

सब मम प्रिय, सब मम उपजाए।

सबसे अधिक मनुज मोहे भाए।।

तुलसी के राम मानते हैं कि यह अखिल विश्व उन्हीं की देन है। वे इस विश्व को मिथ्या नहीं मानते हैं। वे कहते है कि अखिल विश्व यह मम उपजाया, सब पर मोह बराबर दाया

ये राम अहिल्या का उद्धार करते हैं जो सदियों से पत्थर बनी हुई थी। वे प्रेम वस सवरी के जूठे बेर खाते हैं। सभा में केवट को गले लगाकर अपने पास बैठाते हैं। किस स्मृति में यह लिखा है कि क्षत्रिय को भील के जूठे बेर खाने चाहिए और केवट को गले लगाना चाहिए। तुलसी के राम सब को बराबरी का अधिकार देते है। उनके यहां भक्ति का सभी को अधिकार है। निम्न श्रेणी के प्राणी भी भक्त बन सकते हैं। राम ने जंगल में कोल-किरातियों को भी भक्त बनने का अधिकार दिया था।

तुलसी  के राम यहां भक्ति को लेकर साम्य भावना लाते है। साम्य भावना का मतलब यह नहीं है कि बल, विद्या, बुद्धि में सब बराबर हो जाएंगे बल्कि इस साम्य भावना का मतलब है कि अवसर की समानता। यदि तुलसी के राम भक्ति के क्षेत्र में सब को समान अवसर प्रदान करते हैं, तो वे फिर सवर्णो के पक्षधर और अवर्णों के विरोधी कैसे हो सकते हैं। तुलसी के राम संबुक ऋषि का वध नहीं करते। न तो इस कथा में तुलसी के राम की आस्था थी, न तुलसी की। तुलसी के इस राम कथा के तीन प्रवक्ता हैं- शिव, याज्ञवल्क्य और काक भुशुंडी। उनके तीन श्रोता भी हैं पार्वती, भारद्वाज ऋषि और गरुर। काक भुशुंडी कौआ जाति का है। यह पक्षियों में निकृष्ट है और गरुर पक्षियों में श्रेष्ठ है। काक भुशुंडी के पांडित्य के कारण हीं गरुर उनके शिष्य बनते हैं और उन्हें प्रणाम करते हैं। अर्थ यह है कि यदि निकृष्ट जाति का कोई व्यक्ति गुणी है, ज्ञानी है तो वह पूज्य है। फिर इस कथन की प्रामाणिकता संदिग्ध हो जाती है- पूजीय विप्र शील गुण हीना, शूद्र न गुण ज्ञान प्रवीणा

तुलसीदास की आस्था जात-पात में नहीं थीं। उन्होंने  तो भिखारियों की जमात के बीच होश संभाला था। भिखारियों की एक ही जात है और वह है भिखारियों की जात। तुलसी कहते है कि मेरी न जात पात, न चाहों काहु की जात पात। अपने जीवन काल में ही तुलसी ब्राह्मणों द्वारा दुत्कारें गये। उन्हें अवधूत योगी कहा गया। तुलसी उनके जवाब में कहते है -

धूत्  कहो  अवधूत  कहो  रजपूत कहो  जोलहा  कहो  कोई

काहू की बेटी से बेटा न व्याहव काहु की जात विगारब न सोइ।

तुलसी के पद इसे स्पष्ट करते है कि तुलसी स्वयं जात पात में विश्वास नही करते थे फिर उन्हें शूद्र विरोधी मानने का क्या तुक। तुलसी की राम कथा मे तो मनुष्य ही नही बानर और भालु भी आदर पाता है सब जीवों  के प्रति राम में दया का बराबर भाव है। तुलसी नारी विरोधी भी नहीं थे यदि वे नारी विरोधी होते तो यह क्यों लिखते

कत विधि सृजि नारि जग माहि

            पारधिन सुख सपनेहु नाहि।

नारी के प्रति तुलसी के हृदय की कोमलता इससे प्रकट होती है। यह सही है कि तुलसी दास जी नारी के सम्पूर्ण स्वतंत्रता के पक्ष में नहीं थे। जिस मध्ययुगीन समाज में रावणों की संख्या बढ़ी हो, दुःशासनों की फौज खड़ी हो, जहाँ सीताएँ अपहरित होती हों और द्रौपतियों का चिर हरण होता हो उस समाज में सम्पूर्ण स्वतंत्रता नारी के अस्तित्व और उसकी अस्मत के बिलकुल विरूद्ध है। तुलसी बर्बर समाज में नारी की नियंत्रित स्वतंत्रता के पक्ष में हैं। सीता के लिए लक्ष्मण रेख सीता की सुरक्षा के लिए है सीता की स्वतंत्रता के विरोध के लिए नहीं। तुलसी ने नारी की स्वतंत्रता को उसकी सुरक्षा के संदर्भ में देखा है और इसलिए लक्ष्मण रेखा खींच करके नारी की नियंत्रित स्वतंत्रता की ओर समाज का ध्यान खींचा है।

इस विवेचन से यह पता चलता है कि तुलसी और तुलसी के राम न शूद्र विरोधी है, न नारी विरोधी। राम को वन भेजने के षड्यंत्र करने वाली कैकेयी तक की भावानाओं का ख्याल रखते हैं। वे चित्रकुट में आयी अपनी माताओं में सबसे पहले कैकयी से मिलते हैं ताकि उसे यह भ्रम न हो कि राम ने उन्हें उसके अपराध के लिए क्षमा नहीं किया। वे अपनी प्रिय पत्नी के उद्धार के लिए सागर पर सेतु निर्मित करते हैं। और रावण सहित तमाम राक्षसों को मारकर सीता को मुक्त कराते हैं। यह राम कथा पत्नी प्रेम की भी कथा है। ऐसा लगता है कि तुलसी के प्रगतिशील विचार को समाज में व्यापक स्वीकृति मिलते देख कुछ जातिवादी तत्वों ने तुलसी के मानस में शूद्र और नारी विरोधी पंक्तियाँ क्षेपक के रूप में डाल दी। तुलसी वर्ण व्यस्थावादी है लेकिन उनका वर्णव्यवस्थावाद जातिवाद का पर्याय नहीं है। वह समाज के नियमन और अनुकूलन के लिए है। अयोध्या वापस लौटकर राम चारो वर्णा के लिए चार घाट बनाते हैं लेकिन प्रत्येक घाट पर प्रत्येक वर्ण के लोग स्नान करते हैं। वर्णाधारित यह व्यवस्था सुविधा के लिए है,  सामाजिक भेद के लिए नहीं। इस तरह तुलसी का दृष्टिकोण उन्हें शूद्र और नारी विरोधी प्रमाणित नहीं करता।

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