भ्रमरगीत: उपालम्भ काव्य
उपालम्भ में प्रतिदान पाने की
अपेक्षा होती है। यह प्रिय के कपटी आचरण पर ऐसी कटूक्तियाँ है जिसमे उसे अनुकूल
बनाने की आकांक्षा ध्वनित होती है। इसे केवल उलाहना समझना भूल है। इसमें शिकायत या
निंदा का स्वर वास्तविक नहीं नाटकीय होता है।
उपालम्भ
काव्य एक प्रकार का संदेश काव्य है। वियोग की भूमि पर यह अधिक व्यंजना गर्भित हो
जाता है। इसमें नायिका अपने प्रवासी प्रियतम को किसी न किसी बहाने पुनर्मिलन का संदेश
देती है किंतु उसकी उपेक्षा या कठोरता पर व्यंग करना नहीं भूलती। किसी का किसी के
प्रति उलाहना उपालम्भ है। माँ-बहन, प्रेमि-प्रेमिका, मित्र,
भाई - कोई भी उपालम्भ का विषय बन सकता है।
नारी
हमेशा अपना सर्वस्व समर्पित करके पुरुष से प्रवंचना पाती रही है। पुरूष ने अपनी
बनाई हुई प्रेमाचार संहिता लादकर नारी की भावनाओं का बराबर दोहन किया है। एक से
तृप्त होकर दूसरों की ओर अभिमुख होना पुरूष का स्वभाव है। इसलिए कवियों ने प्रायः
पुरूष की प्रवृति में लोलुप भ्रमर की वृत्ति देखी है। कालिदास के ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम्’ में
दुष्यंत की एक रानी हंसपदिका एक अन्य रानी वसुमती में अनुरक्त दुष्यंत को भ्रमर के
माध्यम से उपालम्भ देती है। भ्रमर के माध्यम से उपालम्भ देने की परम्परा यहीं से शुरू
होती है। सूर के भ्रमरगीत की सफलता के बाद तो कृष्ण काव्य में अचानक भौंरे प्रमुख
हो गए। ‘भ्रमरगीत’, भँवरगीत’ आदि
की कड़ी से कड़ी जुटती गई।
सूर
के ‘भ्रमरगीत’ में भ्रमर के जरिए गोपियों की
दर्द भरी टीस ही क्षोभ बनकर मुखर हुई है। गोपियाँ देह हैं और राधा है उनकी आत्मा।
तभी तो राधा सहित सभी गोपियाँ कृष्ण से प्रेम करती हैं और परस्पर द्वेष नहीं
पालतीं। भ्रमरगीत में वे एक ही चरित्र का प्रतिनिधित्व करती है। उनकी उक्तियों में
पैनापन है। वे पीड़ा के परिवेश में उमड़ते- घुमड़ते हुए भाव के मारक क्षमता से
उक्तियों को लैस कर देती हैं। वचन वक्रता के साथ उनकी मर्मभेदी पीड़ा कई रूपों में
उपालम्भ में ढलकर आई है। ‘ऐसेइ जन दूत कहावत’, ‘हरि
काहे को अन्तरजामी’ आदि उक्तियाँ गोपियों की खीझ, झुँझलाहट
एवं व्यंग्य की ही अभिव्यक्ति हैं।
सूरदास की गोपियाँ अपने उपालम्भ
में कृष्ण को लक्ष्य करते हुए भ्रमर को अतीत में किए गए प्रेम का स्मरण दिलाती हैं।
उनकी उपेक्षा पर वे क्रोध बनकर बरसती है। प्रतिकूल प्रेम संदेश उन्हें ठेस पहुचाता
है। कुब्जा आदि पर उनकी खीझ बहुत स्वाभाविक है। वे कृष्ण के पर स्त्री प्रेम को
भला क्यो सहें ? वे मर्माहत होकर उन्हें चुन-चुन
कर सुनाती है; लेकिन इस क्रम में उनका प्रेम
कहीं फीका नहीं होता। उसका रंग और निखरता है। कहीं कहीं तो उनका उपालम्भ व्यंग को
कम आत्मदया के भाव को अधिक उभरता है;
निरमोंहिया सो
प्रीति कीन्हीं काहे न दुःख होय ?
कपट करि-करि प्रीति कपटी लै गयो मन गोय।
मेरे जिय की सोइ जानै जाहि बीती होय।
सूर की गोपियाँ
विरह का अंत न देखकर व्याकुल हो जाती है। कृष्ण का पिछला प्रेम व्यापार उन्हें
निष्ठुरता के रूप में नजर आता है और तो और मधुवन के सारे लोग इन्हें बुरे लगते है।
उन्ही के संगति में तो कृष्ण ने योग की पढ़ाई पढ़ी है। उद्धव उन्हीं का भेजा हुआ योग
लेकर ब्रज आए हैं और आसन, ध्यान एवं भस्म
लगाने की शिक्षा देते है।
सब खोटे मधुवन
के लोग
जिनके संग
स्याम सुंदर सीखे हैं अपयोग।
आए हैं ब्रज के
हित ऊघौ, जुवतिनि कौ लै जोग।।
उपालम्भ वचन
वक्रता का दूसरा नाम है। ‘भ्रमरगीत में गोपियाँ छल एवं
प्रपंच का मुहतोड़ उत्तर देती है। वे अपनी मनोदसा को कुछ ऐसे व्यक्त करती है; कि
भाव मूर्त्त हो जाता हैः
आयो घोष बड़ो
व्यापारी,
लादि खेप यह
ज्ञान जोग की ब्रज में आय उतारी।
सूर यहाँ व्यापारी के रूप में उद्धव का चित्र खींचकर
गोपियों से उनका मजाक तो उड़वाते ही हैं, साथ ही एक हृदयग्राही
गत्वर बिम्ब का निर्माण भी करते हैं। उनके उपालम्भ में विविधता है। मनोभावों की
चढ़ती-उतरती एवं बदलती हुई छवियाँ ‘भ्रमरगीत‘ को
एक आदर्श उपालम्भ काव्य में ढ़ाल देती है। आचार्य शुक्ल ने ठीक ही कहा है, ''श्रृंगार
रस का ऐसा सुन्दर उपालम्भ काव्य दूसरा नहीं है।''
गोपियो का उपालम्भ कृष्ण के प्रति उनके अथाह
प्रेम का सूचक है। उनकी नजर में कृष्ण छली है। आँख का किनारा दबाकर उन्होनें उनका
मन हर लिया है। गोपियों ने बड़ी मुश्किल से उन्हें हृदय के भीतर प्रेम भावों के बंधन से बाँध रखा था, पर
मुस्कुराहट की घूस ने वह भी बेकार कर दिया।
मधुकर स्याम
हमारे चोर
मन हरिलियौ तनक चितवनि मैं चपल
नैन की कोर।
X X X
गए छॅड़ाय छोरि
सब बंधन दै गए हँसनि अॅकोर।
सूर की गोपियाँ
मन का कहा मानती हैं- ’ऊधो ! मन माने की बात’, ज्ञान
का जोर उनपर नहीं चलता। वे कहती
हैं कि कृष्ण ने जब रासलीलाएँ की तब प्रेम की रट लगाते थे। अब मथुरा में जाकर
उन्हें ज्ञान एवं योग की याद आयी है। वे योग लेकर क्या करेंगी? उन्हें
तो चाहिए कृष्ण का सहचर्य, उनका प्रेम। वे उससे विलग होना
नहीं चाहती। वे तो उद्धव की विलग करने की मंसा जान लेती हैं। तब उद्धव और कृष्ण
दोनो उन्हें पक्के स्वार्थी नजर आते हैं।
अपने स्वारथ को
सब कोऊ।
चुप करी रहो, मधुप
रस लंपट ! तुम देखे अरू वोऊ।
गोपियों के
प्रहार का लक्ष्य केवल कृष्ण नहीं है। उद्धव की तो वे दुर्दशा करके छोड़ती हैं।
कुब्जा भी उनकी आँखों से कभी ओझल नहीं होती। वे खिझती है, झुंझलाती
है, पर सूर के उपालम्भ की विलक्षणता
यह है कि खीझ एवं झुंझलाहट में भी उनका प्रेम अलक्षित नहीं रहता।
ऊधो ! सब
स्वारथ के लोग।
आपुन केलि करत
कुब्जा संग, हमहिं सिखावत जोग।
भ्रमि बन जात
साँवरी मूरति, नित
देखहिं वह रूप।
सूरदास की
गोपियों में आंतरिक पीड़ा का उद्रेक कुछ अधिक है। वे उद्धव के समक्ष इस आंतरिक पीड़ा
को विनोद शीलता एवं भोलेपन के साथ प्रस्तुत करती है। 'निरगुन कौन देश को बासी?' में
वे निर्गुण के प्रति केवल अनभिज्ञता ही प्रकट नहीं करती बल्कि निर्गुण का अता-पता
पूछकर उद्धव और उनके निर्गुण को उपहास का विषय बना देती है – 'बूझति साँच, न
हाँसि'।
भ्रमरगीत में उपालम्भ रूढ़ि के
अनुपालन के लिए नहीं आया है। गोपियाँ उपालम्भ की मुद्रा में तब आती है जब उन्हें लग
जाता है कि उद्धव के पास एक तो उनके काम की बाते नहीं है। दूसरे, उद्धव
उनका मन बगैर पढ़े उनके मन में निर्गुण ज्ञान अँटा देने की कसम खाए हुए है। गोपियाँ
सहृदय है। वे दुःखी तो हैं पर हँसना भूली नहीं है। यह उनकी परिहास प्रियता का ही
परिणाम है कि जब वे उद्धव पर व्यंग करती हैं, तब हास्य की
सहज सृष्टि होती है। लेकिन यह हास्य मर्यादा का कहीं अतिक्रमण नहीं करता, उपालम्भ
की सरसता और मधुरता का यही कारण है।
उपालम्भ
या वाग्वैदग्ध्य भाव की जमीन पर लगा हुआ एक शाब्दिक हमला है। यह गोपियों के
उद्धिग्न मानस का प्रतिबिम्ब है। जब गोपियाँ कृष्ण समेत उद्धव, अक्रूर, कुब्जा
एवं समस्त मथुरावासियों को खरी खोटी सुना लेती है तो उनका तनाव शिथिल हो जाता है।
लिहाजा यह उपालम्भ एक उपचार है- तनावग्रस्तता का।