आदिकाल : रासो साहित्य

 आदिकाल : रासो साहित्य


            रासो शब्द के अर्थ/व्युत्पत्ति में मतैक्यता नही है। जॉर्ज ग्रिर्यसन ने इसे राजसूय से व्युत्पन्न माना है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी मानते है कि रासो रास से व्युत्पन्न है। रास गीत नृत्य परक चरनाएँ हैं यही रचनाएँ आगे चल कर वीर रस के पद्यात्मक इत्तिवृत्तों में परिणत हो गया। डा॰ काशी प्रसाद जैसवाल रासो को रहस्य से व्युत्पन्न मानते है। उन्होने रहस्य के प्राकृत रूप रहस्सो के उच्चरण भेद में परिवर्तन के कारण रासो की उत्पत्ति माना है। ( रहस्सो - रअस्सो  - रासो)  

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल इसका अर्थ रसायन से निष्पन्न बताते है। उनके अनुसार रासो रस से उत्पन्न होने वाला काव्य रसायन है।  रामस्वरूप चतुर्वेदी रासो को रस का रूप मानते हैं। वे रासो को रस के बहुबचन का द्योतक मानते है। उन्होंने इसके लिए रासो काव्यों में ऐसे संकेत भी तलासे हैं :-

रासउ असंभु नवरस सरस छन्दु चंदू कीअ अमीअ सम।

श्रृंगार, वीर, करूणा, बिभछ, भय, अद्भुत्तह संत सम।।

            रासो असंभव नौ रसौ का समूह है। अमृत के समान सरस छन्दों में चन्दबरदायी ने इन नौ रसो की कल्पना की है। रासो, रासा, रास, रासउ समानार्थ शब्द है। इनका विकास रास नामक नृत्य से हुआ है। हर्षचरित मे रास का उल्लेख नृत्य और गान दोनों रूपों में हुआ है। अपभ्रंश के महान कवि स्वयंभु ने रास छंद का लक्षण दिया है। रास नृत्य है, गान है और छंद भी है। गान शब्दो से बनता है। एक बार शब्दों का आगमन हुआ तो कथा का समावेश हो गया और रास प्रबंध काव्य भी बन गया होगा।

            अपभ्रंश से रासो काव्य की शुरूआत हुई किन्तु कालांतर में रासो ऐसा प्रबंध काव्य बन गया जो केवल धर्म या जैन धर्म तक ही सीमित नहीं रह गया। धार्मिक रासो के साथ - साथ ऐतिहासिक - वीरतापरक, श्रृंगारिक रासक काव्य भी मिलते है।

            धार्मिक रासो काव्यो की रचना जैन कावियों द्वारा अपने धर्म के प्रचार के लिए की गयी। जिसमें जिनदत्त सूरि रचित उपदेश रसायन रास’, शालिभद्र सूरि कृत भरतेश्वर बाहुबलि रासउल्लेखनीय है।

            ऐतिहासिक वीरतापरक रासो काव्यों में वीररस अंगीरस है और संयोग श्रृंगार गौण रस। इसमें चारण कवियों ने आश्रयदाताओं की प्रशंसा हेतु अतिश्योक्तिपूर्ण वीर काव्य लिखे है जैसे चंरदबरदाई कृत पृथ्वीराज रासो, सारंगघर कृत हम्मीर रासो, दलपतिविजय कृत खुम्मान रासो। इन काव्यों में सामंती मूल्यो की स्पष्ट झलक दिखाई पड़ती है।

             ‘‘एअ जिम्मु नग्गुहँ गिउ, भंडसिरि खग्ग न भग्गु।

             तिक्खा तुरीय ण माणिया, गोरी गाये न लग्गु।’’

अर्थात उस व्यक्ति को धिक्कार है जिसने अपने सिर से तलवार को न तोड़ा हो। खतरनाक धोड़े को वस में ना किया हो तथा गोरी को गले न लगया हो।

            श्रृंगारपरक रासो काव्यों में अंगीरस श्रृंगार है। श्रृंगार के संयोग और वियोग दोनो पक्षों का चित्रण है। प्रायः वियोग श्रृंगार प्रबल है। अब्दुल रहमान का संदेशरासक, नरपतिनाल्ह का विसलदेव रासो उल्लेखनीय विरह काव्य है।

रासो काव्य की प्रवृत्तियाँ -

            भावगत प्रवृत्तियाँ 

1.        धार्मिकता

     जैन कवि अपने रासो ग्रंथो में जैन धर्म संबंधी विश्वासो की अभिव्यक्ति करते है। इनकी रचनाओं में नैतिक शिक्षा का भरमार है। हिन्दू दरबारी कवि अपनी धार्मिक भवना को मंगलाचरण के रूप में व्यक्त करते है। इन कवियों में बहुदेववादी आस्था है यथा सरस्वती, शिव, गणेश की वंदना। चन्दबरदायी ने भी पृथ्वीराज रासों में दशावतार खंड लिखा है। अधिकांश रासो कवियों ने अपने आश्रय दाताओं को भगवत रूप में चित्रित करने का प्रयास किया है। अर्थात मानव का ईश्वरी करण किया है।

2.        राजाश्रय

हिन्दी के रासो कवि दरबारी कवि है ये अपने आश्रयदाता को ही चरितनायक बनाकर काव्य रच रहे थे।

3.        ऐतिहासिकता और काल्पना का मेल

अधिकतर रासो काव्यों की विषयवस्तु ऐतिहासिक है किन्तु उसमें कल्पना की अधिकता है। साहित्य केवल इतिहास की पुनरावृत्ति नहीं होता अतः उसमें कल्पना का समावेश स्वभाविक है। किन्तु रासो काव्यों में ऐतिहासिक तत्वों जैसे धटनाओं, तिथियों, वंशावली आदि में भी छेड़-छाड़ की गयी है जिससे इन काव्यों की प्रामाणिकता संदेहास्पद हो जाती है।

4.        अतिश्योक्तिपूर्ण पूर्ण वर्णन -

रासो काव्य राजाओं के आश्रय में रहकर लिखें गए है। ये अपने आश्रयदाता को ही चरितनायक बनाकर काव्य रच रहे थे। अर्थलाभ और राजाश्रय की चिंता ने उन्हें उचित -अनुचित प्रशंसा के लिए विवश किया। ये राजाओं की दानवीरता और मैदानी वीरता का अतिश्योक्ति पूर्ण वर्णन करते है।

5.        वीरता और श्रृंगार का चित्रण -  

रासो काव्य में वीरता और श्रृंगार एक द्वंद्वात्मक संबंध बनाते हुए आते है। यदि वीरता का प्रेरक श्रृंगार है, तो श्रृंगार या प्रेम परिणाम था वीरता का । जिस तरह जीवन में शौर्य और प्रेम को अलग-अलग नहीं किया जा सकता उसी तरह इन रासो काव्यों को देखकर आचार्य शुक्ल ने लिखा है ‘‘ जहाँ राजनीतिक कारणों से भी युद्ध होते थे वहाँ उन कारणों का उल्लेख न कर कोई सुन्दर स्त्री को कारण कल्पित कर रचना की जाती थी।’’ रासो कवियों ने वीरता के साथ-साथ प्रेम का भी गहराई से चित्रण किया है। चन्दबरदाई के एक हाथ में यदि कलम है तो दूसरे हाथ में तलवार। चंद ने शशिव्रता प्रसंग में शशिव्रता की वयसंधि का जो वर्णन किया है वह अद्वितीय है। उसने शशिव्रता के शरीर को ही सौंदर्य का सुमेरू बना दिया है।

राका और सूरज्ज विच उदय अस्त दुहु वेर

पर शशिव्रता शोभई मनोश्रृंगार सुमेरू

श्रृंगारिक वर्णन में संयोग और वियोग दोनो पक्षों का चित्रण हुआ है। साथ ही नखशिख आदि काव्य रूढ़ियों का भी प्रयोग हुआ है।

रासों कवियों के वीरगाथाकाव्य प्रबंधात्मक भी है और गीतात्मक भी। प्रबंधात्मक वीर काव्य अपनी व्यापकता और ओजस्विता के कारण ध्यान खीचते है। वीर कवियों ने शौर्य के वर्णन में कहीं परिपाटी का अनुपालन किया तो कहीं नवीनता दिखाई है। चंदबरदाई का युद्ध वर्णन आँखों देखे हाल सा लगता है। जगनिक में मुर्दो में भी जान फूंक देने की क्षमता है।

बरह बरस लौं कुकर जीए औ तेरह लॉ जियें श्रृंगार।

बरस अठारह क्षत्रिय जीएं आगे जीवन को धिक्कार।

सामान्य जनता वीरता को जीवनादर्श के रूप में अपना रही थी या नहीं उसकों लेकर सिर्फ एक आध जगहों पर उल्लेख मिलता है। जगनिक कहता है -

जननि ऐसा बेटा जनिए कै सुरा कै भक्त कहाए।

6.        युद्धों का जीवन्त चित्रण

चंदबरदाई कवि भी है और योद्धा भी। उसने युद्ध को स्वयं भोगा है। वह युद्ध वर्णन ऑखो देखे हाल सा करता है। 

शिल्पगत विशेषता

1.        भाषा संबंधी विशेषता 

आदिकाल चूँकि अपभ्रंश एवं हिन्दी की भाषायी संद्धि का काल है इसलिए यहाँ कई-कई साहित्यिक भाषाएँ मिलती हैं। कोई अपभ्रंश में लिख रहा था, कोई हिन्दी में कोई दोनों में। यह भाषा बहुत समर्थ भाषा है। यह सभी प्रकार की अभिव्यंजनाओं में दक्ष है। यह भाषा सामासिक संस्कृति के अनुरूप अपने को ढालती है।

2.        छन्द

सभी परम्परागत छन्द मिलते है। वीरगाथा काव्य में छन्दों की विविधता मिलती है तोमर, त्रोटक, गाहा, आर्या, आल्हा, दूहा, रोला, छप्पय आदि। अपभ्रंश में 15 मात्राओं का एक चौपई छन्द तथा 16 का चौपाइ छन्द मिलता है। रासा छंद 21 मात्रा का होता है। अपभ्रंश के दूहा छंद से ही हिन्दी का दोहा छंद विकसित हुआ।

कथानक रूढ़िया

काव्य परिपाटी के अनुप्रयोग का बोधक है यह एक लधु प्रतीक होता है जिसके साथ पूरी लधु कथा जुड़ी होती है।

3.        शैली

भाषा शैली

रासों काव्य के लिए मुख्यतः दो प्रकार की भाषा शैली प्रचलित हो चुकी थी। यह भाषा डिंगल और पिंगल नाम से पहचानी जाती है। अपभ्रंश के योग से शुद्ध राजस्थानी भाषा का जो साहित्यिक रूप था वह डिंगल कहलाता था। डिंगल भाषा को कई विद्वान गँवारों की भाषा मानते है। डिंगल भाषा में कर्कश वर्णो का प्रयोग प्रचुरता से होता है। इस कृत्रिम साहित्य शैली में अधिकांश फुटकल दोहे तथा राज प्रशस्तिपरक गीत है। डिंगल शैली साहित्य-शास्त्र एवं व्याकरण के नियमों का अनुसारण नही करती है। इसमें ड वर्ण की बहुलता होती है। यह ओज गुण से प्रचुर वीर रसात्मक पद्यों की शैली है। इस शैली में गायन विकट एवं कठिन है। यह एक स्वर और साँस में बोलने की शैली है। आदिकाल में यह युद्ध वर्णन/शौर्य वर्णन की एक महत्पूर्ण शैली रही है। डिंगल के ओजपूर्ण गीत युद्ध के मैदानों में योद्धाओं में उत्साह भरा करते थे। इसमें भक्ति और श्रृंगार रस की भी कविताए मिलती है।

डिंगल भाषा की ध्वन्यात्मकता से युद्ध के वातावरण का सजीव चित्र उपस्थिति किया जा सकता था, इसलिए इस भाषा का व्यापक प्रसार रासों साहित्य में देखने को मिलता है। डिंगल शैली के कारण ही चंद ने अपने शब्दों को पीट-पीट कर इस रूप में डाला है कि उससे युद्ध की ध्वनि निकल सकती है। पृथ्वीराज रासों में भी युद्ध के वर्णन में डिंगल भाषा का प्रयोग हुआ है:

            बज्जिय घोर निसांन रान चौहान चहूँ दिसि।

            सकल सूर सामन्त समर बल जंत्र मंत्र तिसि।

            उटिठ् राज प्रथिराज, बाल लग्ग मनहु वीर  नर।

            कढ़त तेग मन बेग लगत मनहु बिजु झट्ट थट्ट।।

 

पिंगल - बिसलदेव रासों से यह सूचना मिलती है कि मध्य देश की भाषाओं के सहयोग से पिंगल भाषा प्रचलित हो रही थी। प्रादेशिक बोलियों के साथ साथ ब्रज या मध्यदेश का आश्रय लेकर एक सहित्यिक भाषा स्वीकृत हो चुकी थी जो पिंगल भाषा के नाम से पुकारी जाती थी। पिंगल भाषा को डिंगल के अपेक्षा अधिक परिष्कृत माना जाता था। पिंगल में कोमल भावों को अभिव्यक्त किया जाता था। डिंगल और पिंगल विशेष प्रकार के भाव और भाषा की शैली थी।

रासों काव्य की भाषा में दूसरी महत्वपूर्ण बात उभरती है, मिश्रित शब्दावली का प्रयोग। मिश्रित शब्दावली से तात्पर्य है तत्सम - तद्भव और देशज शब्दावली के साथ-साथ विदेशी शब्दों का प्रचुरता से प्रयोग ।बीसलदेव रासों में अरबी और फारसी के सैकड़ों शब्द मिलते हैं। भाषा के स्तर पर यह मिश्रण इस बात को सूचित करता है कि भाषा में समासिक संस्कृति का विकास हो रहा था। राजस्थान के भाट्ट कवि पिंगल शैली का प्रयोग किया करते थे। रासों साहित्यों में जहा भी कोमल भाव है वहा पिंगल शैली का प्रयोग है।

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