आदिकाल: प्रवृत्तियाँ

 आदिकाल: प्रवृत्तियाँ


    हिन्दी साहित्य का आदिकालीन साहित्य एक व्यापक भाव दायरे में लिखा जाता रहा है। जितनी विस्तृत है इसकी क्षेत्रिय व्याप्ति उतना ही उसमें विषय विस्तार भी है। कथ्य, भाषा, शिल्प और छन्द सभी दृष्टियों से हिन्दी का आदिकालीन साहित्य समृद्ध है। उसमें तीन प्रमुख प्रवृतियाँ मिलती हैं:- धार्मिकता, वीरगाथात्मकता एवं श्रृंगारिकता । अमीर खुसरो में मनोंरजन की प्रवृत्ति उस काल की एक गौण प्रवृत्ति है।

धार्मिकता:-

आचार्य शुक्ल सिद्धो-नाथों एवं जैनों के साहित्य को असाहित्यक कहते हुए साहित्य क्षेत्र से वहिष्कृत कर देते है। हजारी प्रसाद द्विवेदी जी सिद्दों-नाथों की रचानाओं को साहित्यिकता के कारण नहीं सामाजिकता के कारण साहित्य में जगह देने के पक्ष में हैं। नामवर सिंह कहते है कि जो रचनाएँ साहित्यिक हैं, वे संदिग्ध हैं और जो असंदिग्ध है वे असाहित्यिक है। साहित्यिकता और संदिग्धता के इस विरोध में इतिहासकार असंग्घिता का ही पक्ष लेगा क्योंकि विचार से तथ्य प्रबल होते है।

सिद्दो-नाथों और जैनों की रचनाओं में उस समय के सामान्य जनता की आकांक्षाएं, सपने और दुःख दर्द प्रतिबिंबित होते हैं। इन रचनाओं में सिर्फ उपदेशात्मक, धार्मिक सांप्रदायिक विचार ही व्यक्त नहीं हुए हैं लोक चेतना की भी अभिव्यक्ति हुई है। हिन्दू धर्म के बाह्य आडम्बरो, जातिभेद के विरूद्ध ये रचनाएँ सामान्य जनता को सजग करती हैं। सिद्दों के यहाँ रूढिवादी मानसिकता का खंडन है। सरहपा मिट्टी, पानी और कुश लेकर संकल्प करने वाले, धर में बैठ कर अग्नि होम करने वाले, होम के कड़ुए धुँए से आँख को कष्ट देने वाले की हँसी उड़ाते है। कण्हपा ने भी कहा:-

आगम वेअ पुराणेहिं पंडिअ मान  वहन्ति

पक्क सिरीफले अलिय बाहेरी अभ्यन्ति

            नाथ साहित्य का लोक साहित्य में रूपांतरण हो गया और लोक साहित्य हमेशा लोगों की स्मृति में ही सुरक्षित रहता है। नाथों का जोगीड़ा आज भी पूर्वी भारत में परचलित है। वस्तुतः जोगीड़ा अनुभव सिद्द ज्ञान की परिपक्वता को हमारे सामने उपस्थित करता है। जोगीड़ा में बाह्याचार का खंडन, जाति प्रथा पर वयंग्य तथा धार्मिक आडम्बर की निंदा की गई है -

गंगा के नहाये कहो को नर तरिगे मछरी न तरी जाको पानी में धर।

गोरखनाथ ने हिन्दु मुसलमान को एक ही ईश्वर की संतान मान कर उनकी एकता की प्रस्तावना लिख दी। गोरखनाथ सामान्य जनता को सहज जीवन की सीख देते है:-

हवकि न बोलिवा हवकि न चलिवा धिरे धरिवा पॉव

गरब    करिवा  सहजे रहिवा  भनत  गोरख रॉव

            ये सिद्द-नाथ रचानाकार अपने समय के सामाजिक चिंतक थे। ये सामाजिक आर्थिक भेदों को मिटाकर सामाजिक समरसता लाना चाहते थे। उन्होंने मध्यम मार्ग को सामाजिक सौहार्द का मार्ग का माना।

थोड़ो खाए सो कलपे-झलपे धणों खाए सो रोगी।

दहू पणंसा की संधि विचारे ते कोई बिड़ला जोगी।

 

सिद्दों-नाथों- जैनों का साहित्य सिर्फ पारलौकिल साधना नहीं है और न ही सिर्फ कुंडली जागरण है उसमें मानवीय जीवन के प्रेमानुभूतियाँ भी है। गुणिरप्पा कहता है -

जोइनि तउँ बिनु खनहिं न जीवमि तो मुँह चुम्बी कमल रस पिवहिं।

            सिद्दों नाथों की रचनाओं में अनगढ़ता है। इस साहित्य में ही सामान्य जनता की तकलीफें बोलती हैं, उनके दुःख दर्द के साथ-साथ इन्हीं में उनके सपने कूलबुलाते हैं।

            जैन कवियों द्वारा रचित रासों काव्यों में जैन धर्म संबंधी विश्वासों की अभिव्यक्ति की गयी है। वें किसी तीर्थंकर या धार्मिक व्यक्ति को आधार बना कर अपने काव्यों का प्रणयन करते है। इसलिए इनकी रचनाओं में नैतिक शिक्षा की भरमार है। हिन्दू कवियों ने अपने धर्म भवना को मंगला चरणों में व्यक्त किया है। उन्होने शुरू में ही सरस्वती, शिव या गणेश की बंदना की है। चन्दवरदायी ने पृथ्वीराज रासों में दसावतार खंड लिखा है। इस में विष्णु के 10 अवतारों का वर्णन है। चन्दवरदायी ने अपने आश्रयदाता पृथ्वीराज को भागवत स्वरूप बताया है। उन्होंने अलौकिकता आरोपित करते हुए उनके जन्म के वर्णन के संबंध में लिखा है, ‘‘जैसे ही पृथ्वी राज का जन्म हुआ कनौज पर बिजली गिर गयी, दिल्ली दहल गयी और शेषनाग भी कुलबुला उठें।’’

विद्यापति जी ने वैष्णव भावना और शैव साधना  को मिलाकर एक नयी परम्परा गढ़ी थी। इनमें प्रेम और भक्ति के तत्व तादात्मय बनाये हुए थे। विद्यापति राधा और कृष्ण के साथ शिव और पार्वती को भी मानवीय बना कर प्रस्तुत किया। विद्यापति के यहाँ भक्ति श्रृंगार में एवं श्रृंगार भक्ति में बदलती रहती है। विद्यापति ने गोपियों एवं कृष्ण को केन्द्र में रख कर भी रचनाएँ की है।:

नंदक नंदन कदम्बक तरू तरे

धीरे-धीरे मुरली बजाय

समय संकेत निकेतन बैसल

बेरि-बेरि बोलि पठाव।

मैथिल-कोकिल की लयात्मक चेतना और गीतात्मक संवेदना ने संपूर्ण पूर्वी भारत को आनंदित किया। डा॰ नामवर सिंह धार्मिकता को ही इस युग की प्रमुख प्रवृति घोषित करते हैं।

वीरगाथात्मकता:-

हिन्दी के आदिकालिन वीरगाथा काव्य तत्कालीन राजनैतिक चुनौतियों की उपज है। मुसलमानों की चढ़ाइयों से हमारे देशी राजाओं की श्रृंगारिक मुर्छा टूटी। रासों कवियों के वीर गाथा काव्य प्रबंधात्मक भी है और गीतात्मक भी। कवियो ने शौर्य के वर्णन में कहीं परिपाटी का अनुपालन किया तो कहीं नवीनता भी दिखाई है। चंदवरदायी का युद्ध वर्णन आँखों देखे हाल सा लगता है। जगणिक तो मुर्दो में भी जान फूक देने वाला कवि है।

बारह बरस लौ कुकर जीवै अरू तेरह लै जीयै सियार।

बरस अठारह क्षत्री जीवै आगे जीवन कौ धिक्कार।।

            वीरगाथा काव्य की वीर भावना संकुचित एवं संकीर्ण है। रासों काव्यों का शौर्य चित्रण तत्कालिन राजाओं की सैन्य चुनौतियाँ एवं कवियों की राजमोहाक्ष्ण दृष्टि का परिणाम है। जनता  राजाओं  के कुशासन के कारण उनकी जय पराजय से उदासीन थी तभी तो महज दो सौ धुड़सवारों की बदौलत बख्तीयार खिल्जी ने बिहार बंगाल को सर कर लिया था। जनता वीरता को जीवनादर्श के रूप में अपना रही थी या नहीं उसको लेकर सिर्फ एक-आत जागहों पर उल्लेख मिलती है। जगणिक कहता है -

            जननि ऐसा बेटा जनिए के सुरा कै भक्त कहाए

            हेमचन्द्र के यहाँ भी अपभ्रंश के उदाहरण के क्रम में वीरता संबंधी गाथाएँ एवं छंद मिलते हैं -

            भल्ल हुआ जु मरिया बहिणि महारा कंतु।

            लज्जेजं तु लयंसिअहु जई भग्गा घरू एंतु।।

यहाँ वीरता एक जीवनादर्श के रूप में अवश्य मिलती है लेकिन अन्यत्र सामान्य जनता की वीरता संबंधी सोंच प्रतिफलित नहीं होती है। हिन्दी के रासों कवि दरवारी कवि है। ये अपने आश्रयदाता को ही चरितनायक बना कर काव्य रच रहे थें। अर्थ लाभ और राजाश्रय की चिंता ने इन्हें उचित-अनुचित प्रसंशा के लिए विवश किया है। ये राजाओं की दान वीरता और मैदानी वीरता का अतिश्योक्ति पूर्ण चित्रण करते हैं। राजाश्रय ने इन कवियों को राजा के सकरात्मक पक्ष को ही प्रस्तुत करने की लिए ही वाध्य किया है। इस कारण इनकी ऐतिहासिकता संदिग्ध हो जाती है।

श्रृंगारिकता:-

श्रृंगारिकता इस काल की एक सर्वसमावेशी प्रविृति है। यह विद्यापति की पदावली, रासो काव्यों और सिद्दों -नाथों के यहाँ आध्यात्मिक श्रृंगार के रूप में मिलता है। रासो काव्यों में शौर्य और श्रृंगार एक द्वन्द्वात्मक संबंध बनाते हुए आते है। यदि शौर्य का प्रेरक था श्रृंगार या विलाश तो विलाश या प्रेम परिणाम था शौर्य का । रासो कवियों ने वीरता के साथ प्रेम का भी गहराई से चित्रण किया है। चन्दवरदायी के एक हाथ में यदि कलम है, तो दूसरे हाथ में तलवार। उसने श्रृंगार चित्रण के संदर्भ में नायिकाओं की अंर्तवृत्तियों का कुशलता से निरूपण किया है। चन्द ने विरह जन्य दुःख बोध को गहराने के लिए ऋतु वर्णन का सहारा लिया है। चंद शशिव्रता प्रसंग में शशिव्रता की वयसंधि का वर्णन करता है। उसने शशिव्रता के शरीर को ही सौन्दर्य का सुमेरू बना दिया है।

राका और सूरज्ज बिच्च उदय अस्त दुहु वेर पर शशिव्रता शोभई मनोश्रृंगार सुमेर

            आदिकालीन कवियों ने श्रृंगार के संयोग और वियोग दोनो पक्षों का चित्रण किया है। रासो कवियों का संयोग चित्रण अहलादक है तो विद्यापति के यहाँ वियोग चित्रण मार्मिक एवं दुःख व्यंजक है। कवियों ने नायिकाओं में नख-शिख वर्णन, प्रियतम के यहाँ संदेश प्रेषण, प्रतीक्षा आदि का बड़ा ही कालात्मक चित्रण किया है। विद्यापति ने दूती प्रसंग की भी योजना की है। कवियों ने नायिकाओं  के बाह्य सौन्दर्य के साथ-साथ उनके मांसिक सौन्दर्य का भी ध्यान रखा है। विद्यापति की पदावली में श्रृंगार एवं भक्ति का धूप-छाँहीं मेल है। कृष्ण और राधा को केन्द्र में रख कर उन्होनें श्रृंगार का ऐसा ताना वाना बुना है कि आसानी से श्रृंगार माधुर्य भक्ति रूपांतरित हो जाता है। संदेश रासक और विसलदेव रासों में भी अन्य रासों काव्यों के प्रेम से भिन्नता मिलती है। ये दोनों काव्य सुखांत विरह काव्य हैं। हजारी प्रसाद द्विवेद्वी ने रासों काव्यों से संदेश रासक की तुलना करते हुए लिखा है, ‘‘ रासो में यदि घर के बाहर का वातावरण प्रमुख है तो संदेशरासक में भीतर का। रासो नये-नये प्रेम का रोमांश प्रस्तुत करता है, तो संदेश रासक पुरानी प्रीति को ही निखार देता है।’’

मनोरंजन

            अमीर खुसरो का काव्य समाज के नीचले स्तर पर हिन्दूओं और मुसलमानों के अपरिचय को खत्म करता है। अमीर खुसरो ने ब्रजभाषा में गीतो कब्वालियों की रचना की तथा खड़ी बोली में पहेलियाँ एवं मुकड़ियाँ बुझायी। अमीर खुसरों ने साहित्य से संगीत को जोड़कर भी समाज में समरसता लाने की कोशिश की। उनकी पहेलियाँ तथा मुकड़ियाँ जिज्ञासा पैदाकर अजनवियों को भी संलाप में शामिल होने का अवसर उपलब्ध कराती है।

नित मेरे घर आवत है रात गये फिर जावत है

फसत अमावस गोरी के फंदा ऐ सखी साजन ना सखी चंदा।।

            अमीर खुसरों हिन्दू घरों की बेटियों की दर्द कथा को भी अपने गीतों में मार्मिक अभिव्यक्ति दी; बेटी कहती है:-

            काहे को बियाहें परदेश सुन बाबु मोरे

            भइया को दिहे बाबु महला दु महला

            हमको दि हे परदेश सुन बाबु मोरे

           

भाषा संबंधी विशेषता

            आदिकाल चूँकि अपभ्रंश एवं हिन्दी की भाषायी संधि का काल है इसलिए यहाँ कई-कई साहित्यिक भाषाएँ मिलती हैं। कोई अपभ्रंश में लिख रहा था, कोई हिन्दी में, कोई दोनों में। यह भाषा बहुत समर्थ भाषा है। यह सभी प्रकार की अभिव्यंजनाओं में दक्ष है। यह भाषा सामासिक संस्कृति के अनुरूप अपने को ढालती है। आदिकाल में प्राकृत भाषा, मैथिली, राजस्थानी और खड़ी बोली काव्य भाषाएँ थी।

छन्द

सभी परम्परागत छन्द मिलते है। वीरगाथा काव्य में छन्दों की विविधता मिलती है, तोमर, त्रोटक, गाहा, आर्या, आल्हा, दूहा, रोला, छप्पय आदि। अपभ्रंश में 15 मात्राओं का एक चौपई छन्द तथा 16 मात्राओं का चौपाई छन्द मिलता है। रासा छंद 21 मात्रा का होता है। अपभ्रंश के दूहा छंद से ही हिन्दी का दोहा छंद विकसित हुआ।

कथानक रूढ़िया

काव्य परिपाटी के अनुप्रयोग का बोधक है। यह एक लधु प्रतीक होता है जिसके साथ पूरी लधु कथा जुड़ी होती है।

काव्य रूप

प्रबंध काव्य - समस्त रासो, कीर्त्तिलता, कीर्त्तिपताका,

मुक्तक - विद्यापति की पदावली, जैन, सिद्द, नाथ, खुसरो की रचना।

भाषा शैली

रासो काव्य के लिए मुख्यतः दो प्रकार की भाषा शैली प्रचलित हो चुकी थी। यह भाषा डिंगल और पिंगल नाम से पहचानी जाती है। अपभ्रंश के योग से शुद्ध राजस्थानी भाषा का जो साहित्यिक रूप था वह डिंगल कहलाता था। डिंगल भाषा को कई विद्वान गँवारों की भाषा मानते है। डिंगल भाषा में कर्कश वर्णो का प्रयोग प्रचुरता से होता है। इस कृत्रिम साहित्य शैली में अधिकांश फुटकल दोहे तथा राज प्रशस्तिपरक गीत है। डिंगल शैली साहित्य-शास्त्र एवं व्याकरण के नियमों का अनुसरण नही करती है। इसमे ड वर्ण की बहुलता होती है। यह ओज गुण से प्रचुर वीर रसात्मक पद्यों की शैली है। इस शैली में गायन विकट एवं कठिन है। यह एक स्वर और साँस में बोलने की शैली है। आदिकाल में यह युद्ध वर्णन/शौर्य वर्णन की एक महत्पूर्ण शैली रही है। डिंगल के ओजपूर्ण गीत युद्ध के मैदानों में योद्धाओं में उत्साह भरा करते थे। इसमे भक्ति और श्रृंगार रस की भी कविताएँ मिलती है।

डिंगल भाषा की ध्वन्यात्मकता से युद्ध के वातावरण का सजीव चित्र उपस्थिति किया जा सकता था, इसलिए इस भाषा का व्यापक प्रसार रासो साहित्य में देखने को मिलता है। युद्ध वर्णन की डिंगल भाषा ही थी। डिंगल शैली के कारण ही चंद ने अपने शब्दों को पीट-पीट कर इस रूप में डाला है कि उससे युद्ध की ध्वनि निकल सकती है। पृथ्वीराज रासों में भी युद्ध के वर्णन में डिंगल भाषा का प्रयोग हुआ है:

                        बज्जिय घोर निसांन रान चौहान चहूँ दिसि।

                        सकल सूर सामन्त समर बल जंत्र मंत्र तिसि।

                        उटिठ् राज प्रथिराज, बाल लग्ग मनहु वीर  नर।

                        कढ़त तेग मन बेग लगत मनहु बिजु झट्ट थट्ट।।

 

पिंगल - बिसलदेव रासों से यह सूचना मिलती है कि मध्य देश की भाषाओं के सहयोग से पिंगल भाषा प्रचलित हो रही थी। प्रादेशिक बोलियों के साथ साथ ब्रज या मध्यदेश का आश्रय लेकर एक सहित्यिक भाषा स्वीकृत हो चुकी थी जो पिंगल भाषा के नाम से पुकारी जाती थी। पिंगल भाषा को डिंगल के अपेक्षा अधिक परिष्कृत माना जाता था। पिंगल में कोमल भावों को अभिव्यक्त किया जाता था। डिंगल और पिंगल विशेष प्रकार के भाव और भाषा की शैली थी।

रासों काव्य की भाषा में दूसरी महत्वपूर्ण बात उभरती है, मिश्रित शब्दावली का प्रयोग। मिश्रित शब्दावली से तात्पर्य है तत्सम - तद्भव और देशज शब्दावली के साथ-साथ विदेशी शब्दों का प्रचुरता से प्रयोग ।बीसलदेव रासों में अरबी और फारसी के सैकड़ों शब्द मिलते हैं। भाषा के स्तर पर यह मिश्रण इस बात को सूचित करता है कि भाषा में समासिक संस्कृति का विकास हो रहा था। राजस्थान के भाट्ट कवि पिंगल शैली का प्रयोग किया करते थे। रासों साहित्यों में जहाँ भी कोमल भाव है वहा पिंगल शैली का प्रयोग है।  

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