आदिकालीन साहित्य में समन्वय के तत्व/ सामाजिक सांस्कृतिक पक्ष

 आदिकालीन साहित्य में समन्वय के तत्व/ सामाजिक सांस्कृतिक पक्ष


    हिन्दी साहित्य के इतिहास का एक महत्वपूर्ण पक्ष है साहित्यिक परम्पराओं का उदय, परिवर्तन और विकास। नयी रचनाशीलता से यदि पुरानी परम्पराएँ टूटती हैं तो कुछ नयी बनती भी हैं। हिन्दी साहित्य के आदिकाल में एक साथ कई कई परम्पराएँ शुरू हुयी। सिद्दोनाथों की विद्रोह वृत्ति, सामाजिक असंतोष की परम्परा पहली परम्परा है। दूसरी परम्परा राजस्तुतिपरक वीरगाथा काव्यों की चली। एक तीसरी परम्परा वीरगाथा काव्यों से ही फूट कर आल्हा के वीर गीतों की चली यह लोक आश्रय को लिए हुए थी। चौथी परम्परा विद्यापति की पदावली में देखने को मिलती है। विद्यापति जी ने वैष्णव भावना और शैव साधना  को मिलाकर यह नयी परम्परा गढ़ी थी। इनमें प्रेम और भक्ति के तत्व तादात्मय बनाये हुए थे। पांचवी परम्परा अमीर खुसरों की पहेलियों और मुकड़ियों में मिलती है। यह लोक रंजन का लक्ष्य लेकर चल रही थी। आदिकालीन साहित्य इन विभिन्न परम्पराओं के सहअस्तित्व का साहित्य है।

            आदिकालीन साहित्य जन भाषा में, जन भावनाओं और जन संस्कृति की अभिव्यक्ति का साहित्य है। यह संस्कृत साहित्य और आभिजात्य संस्कृति से बहुत हद तक स्वतंत्र होकर लिखा गया। आदिकाल में विभिन्न जनपदों में साहित्य रचा जा रहा था। इसका भौगोलिक दायरा बहुत विस्तृत है। उसमें सक्रीय रचनाशीलता मुख्यतः दो ध्रुवान्तों पर देखी गयी। पश्चिम में राजनैतिक आक्रमणों की लहरे हैं इसलिए राज दरवारों में तत्कालीन राजनैतिक चुनौतियों को ध्यान में रखकर वीर गाथाएँ लिखी जा रही थी। वीर गथाएँ सामन्ती वर्ग की आकांक्षाओं और उनके शौर्य का इतिवृत्त है। अपेक्षाकृत निरापद पूरब में सिद्दो और नाथों ने अपनी धार्मिकता के साथ-साथ सामाजिक समानता की अलख जगायी। यदि पश्चिमी प्रदेशों के साहित्य में वीर गाथात्मकता और श्रृंगारिकता की प्रवृत्ति का मिश्रण है तो सिद्दो नाथो की रचानाओं में सामाजिक असंतोष और आध्यात्मिकता की प्रवृत्ति का मिश्रण  है। पूरब में ही विद्यापति जी वीरगाथात्मकता, प्रेम और भक्ति को एक साथ लेकर चल रहे थें।  आदिकाल में काव्य रूपों का भी सामंजस्य और संतुलन है। पश्चिम में तमाम रासों काव्य प्रंबध काव्य रूप में लिखे गये। पूरब में सिद्दों नाथो की रचनाएँ विद्यापति की पदावली मुक्तक है। पश्चिम में यदि अमीर खुसरों अपनी पहेलियों मुकड़ियों जैसे नये मुक्तक काव्य रूप के द्वारा प्रबंधात्मकता की बांध को नियंत्रित करने की कोशिश कर रहे थे तो पूरब में विद्यापति जी प्रबंध रूप में कीर्त्तिलता और कीर्त्तिपताका लिखकर मुक्तक काव्य रूप के प्रावल्य को नियंत्रित करने का प्रयास कर रहे थे। इस तरह सम्पूर्ण आदिकालिन साहित्य दो विरूद्धों के सामंजस्य का साहित्य लगता है।

            हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने लिखा है कि ‘‘भारतीय साहित्य में हिन्दी ही मात्र एक ऐसी भाषा है जिसमें पश्चिमी आर्यों की रूढीप्रियाता और कर्मनिष्ठा के साथ-साथ पूर्वी प्रदेशों के आर्यो की भाव प्रबणता, विद्रोही वृत्ति और प्रेमनिष्ठा का मणिकांचन योग है।’’ हजारी प्रसाद द्विवेदी के इस कथन से यह लगता है कि पश्चिम के आर्य और पूरब के आर्य अलग अलग थे और उनकी प्रावृत्तियाँ भी अलग-अलग थीं । यह अजीव है कि रूढ़ियों कहीं थी और उनके विरूद्ध विद्रोह कही और हो रहा था। जहाँ रूढ़ियाँ होगी, जहाँ लोग उससे पीड़ित होंगें, वही विद्रोह भी होगा। यहाँ द्विवेदी जी के कथन का लाक्षणिक अर्थ यह है कि आदिकाल में भिन्न भिन्न क्षेत्रों की प्रवृत्तियों में सामंजस्य दिखायी  पड़ता है।

            आदिकालीन साहित्य की सामासिक संस्कृति का पता भाषा से भी लगता है। आदिकाल की सामंजस्य मूलक प्रवृत्ति को समझने की भाषा एक अच्छी कुंजी है। उस समय के  कवियों ने अपना परिचय बोलियों के कवि के रूप में न देकर भाषा के कवि के रूप में दिया है। उससे उनकी बहुक्षेत्रिय और बहुसामुदायिक प्रतिवद्धता का पता चलता है। विद्यापति जी अपनी भाषा को मैथली न कह कर भाषा कहते हैं -

बालचन्द विज्जावइ भासा । दुहु नहि लग्गइ दुज्जन हासा

(अर्थात् बालचन्द्रमा और विद्यापति की भाषा दोनों ही दुर्जनों के उपहास से परे हैं)

चंदवरदायी की भाषा षट् भाषा है। षट् भाषा का अर्थ छः भाषा नही है। यह बहुक्षेत्रिय संवाद संचार की भाषा है। उनकी भाषा हिन्दी जाति की सामासिक संस्कृति की अभिव्यक्ति की भाषा है। उस भाषा में विभिन्न जनपदीय भाषायी तत्व समाहित है। यह किसी एक वर्ग या  वर्ण की भाषा नहीं है, यह ( सामाजिक देश) बहुसामुदायिक देश की वहुक्षेत्रिय सम्प्रेषणियता से युक्त सम्पर्क भाषा है। चन्दवरदायी कहते है - षट् भाषा कुरानं च पुरानं कथित मया अर्थात उन्होंने अपनी रचना षट्भाषा में की है और इसके लिए कुरान और पुरान दोनो से प्रेरणा ली है।

आदि काल में विभिन्न धर्मो के रचनाकार सक्रिय थें। यहाँ ब्राह्मण, जैन, बौद्ध रचनाकारो की सक्रियता एक धर्म सहिष्णु वातावरण का निर्माण करती है। विद्यापति जी के यहाँ शैव मत और वैष्णव मत एकाकार हो जाते है। अमीर खुसरो नवागत इस्लाम धर्म के अनुयायी थे उन्होंने हिन्दूओं और मुस्लमानों के बीच की दूरी को कम करने का प्रयास किया। उनकी समन्वय भावना संभावना के क्षितिज पर स्थित थी। धर्म की सीमाएं फैलती सिकुड़ती है। इतिहास हमारे सामने नयी-नयी चुनौतियाँ पेश करता है। उन चुनौतियों के समाधान की कोशिश में भावना और व्यवहार के पैमाने बदलते हैं, इसी कारण धर्म निर्पेक्षता हमारे यहाँ कोई परिभाषित विचार नहीं है। वह भावना और व्यवहार की एक प्रक्रिया है। एक प्रक्रिया हिन्दू मुस्लिम रिश्ते को लेकर चली इस रिश्ते में यदि टकराव है, तो समन्वय भी है। यदि संधर्ष है, तो सामंजस्य भी है। इस समन्वय और सामंजस्य की जड़े हमारे इतिहास के मध्य काल में है। अमीर खुसरो ने साहित्य और संगीत, हिन्दी संस्कृति और मुस्लिम संस्कृति को नजदीक लाने की कोशिश की। उन्होंने संस्कृत साहित्य के सम्मान में लिखा कि मैने इसकी एक बुंद चखी है और पाया है कि घाटियों में खोया हुआ पक्षी महानदी के विस्तार से अबतक वंचित था। उन्होंने पहेलियाँ और मुकड़ियाँ बुझाकर हिन्दू और मुसलमान में संवाद की स्थिति बनायी, अपरिचय को तोड़ा।

एक थाल मोती से भरा सबके सिर पर औंधा धरा

चरो ओर व थाल फिरे मोती उससे एक न हिले।।

 

नित मेरे घर आवत है रात गये फिर जावत है

फसत अमावस गोरी के फंदा ऐ सखी साजन ना सखी चंदा।।

 सखुनो के माध्यम से नीति के बातों से को लोगों को अवगत कराया।

पान क्यों सड़ा?

घोड़ा क्यों अड़ा?

फेरा न था।

 

लकड़ी क्यों टूटी?

ककड़ी क्यों छूटी?

                 बोदी थी।

उन्होंने अपने लोक गीतों में हिन्दू घरों की बेटियों की व्यथा कथा लिखी है और हमारा विश्वास जीता है। वे अपने मशहुर गीतों में फारसी और खड़ी बोली का समन्वय कर हिन्दू मुस्लमान को एक दूसरे की भाषा सिखने का अवसर उपलब्ध कराते हैं। उन्होंने फारसी और हिन्दी में सामिप्य लाकर हिन्दू और मुस्लमानों में सामिप्य स्थापित करने का प्रयास किया।

जे हाल मिसकी मकुन तगाफल दुराय नैना बनाय बतियाँ।

कि ताबे हिज्राँ न दारम ए जाँ! न लेहु काहें लगाय छतियाँ।

शबाने हिज्राँ न दारम चूँ जुल्फ व रोजे वसलत चूँ उम्र को तह।

सखी! पिया को जो मै न देखूँ तो कैसे काटूँ अंधेरी रतियाँ!।।

 

            चंदवरदायी एक हिन्दू राजा पृथ्वीराज का दरवारी कवि है। वह अपने राजा के शौर्य की गाथा लिखता हुआ भी कहीं साम्प्रदायिक द्वेष का प्रदर्शन नहीं करता। उसके द्वारा चित्रित लड़ाई हिन्दू और तुर्को के बीच की नहीं है, दो वीरों के बीच की लड़ाईयाँ है। उसके यहाँ अरबी-फारसी का धड़ल्ले से प्रयोग मिलता है। उसने स्वयं घोषित किया कि उसने पुराण और कुरान दोनो से प्रेरण लेकर काव्य रचना की है।

पूरब में सिद्दो-नाथो की विद्रोही वृत्ति, सामान्य जनता के अंसतोष को लेकर सामने आयी। 84 सिद्ध बौद्ध धर्म की उत्तरवर्त्ती शाखाओं से जुड़े थे। ये करूणा और समानता का भाव लिए हुए थे। नाथ पंथ सिद्दो की साधना का ही संशोधित रूप था। नाथ साधना शैव साधना है कौल साधना है। नाथ पंथ का प्रचार आसाम से लेकर अफगानिस्तान तक था। इसके एकेश्वरवाद से प्रभावित होकर बहुत सारे मुस्लमान भी नाथ पंथी हो गए थे। यह नहीं मानना चाहिए कि बज्रयानी सिद्ध और नाथ पंथी योगी अश्लील मुद्रा साधने वाले, अट-पटी वाणी बोलने बाले निरक्षर साधक थे। उनमें से अधिकांश ने नालंदा एवं विक्रमशीला विश्वविद्यायल से उच्च शिक्षा प्राप्त की थी। सरहपा नालन्दा से ही पढकर नालन्दा बौद्ध बिहार के महापंडित नियुक्त हुए थे। लुईपा, विरूपा, मुसुकपा आदि नालंदा विश्वविद्यायल के नियमित छात्र थे। दीपंकर श्री ज्ञान ने नालन्दा और विक्रमशीला दोनो विश्वविद्यालयों से उच्च शिक्षा पायी थी। चौरंगीपा सातवाहन के पुत्र थे। वे भला अशिक्षित कैसे हो सकते थें। ये सिद्द और नाथ साधक विभिन्न प्रदेशों से इस विश्वविद्यायल में एकत्र हुए थे और यही अपने सामाजिक दर्शन के अनुप्रयोग की उपयुक्त भूमि ढूढकर समाज सुधार में जुट गए थे। वे वुद्धिजीवी, अपने समय के सामाजिक दार्शनिक है। ये सामाजिक सौहार्द और वर्ग भेद मिटाने की कोशिश करते है। हिन्दू और मुसलमानों में बढ़ते हुए तनाव टकराव को देखकर पहली बार गोरखनाथ ने घोषित किया कि ‘‘हिन्दू और मुसलमान एक ही प्रभु की संतान है।‘‘ हिन्दू धर्म में जाति भेद और कर्मकांड का जोड़ था। उसके कारण समाज का एक बड़ा हिस्सा मानवीय अधिकार से वंचित था इसलिए सिद्दो नाथो ने जाति भेद मिटाकर सामाजिक समानता लाने की अथक कोशिश की।

कण्हपा कहते है -

आगम वेअ पुराणेहिं पंडिअ मान वहन्ति

पक्क सिरीफले अलिअ जिम बाहेरी अभ्यन्ति।

(अर्थात् पंडित लोग आगम वेद और पुराण पढ़कर मान करते हैं। पर तत्व की बात समझने का प्रयत्न नहीं करते। यह उसी प्रकार का प्रयत्न है जैसे पके बेल के चारों ओर भौंरा चक्कर लगाता रहता है।)

गोरखनाथ के नाथ पंथ में अरबी फारसी के शब्दो का अनुप्रयोग, धार्मिक सहिष्णुता लाने की कोशिश का ही परिणाम है। नाथ पंथ में महंत को महंत न कह कर वीर कहा जाता है। गोरखनाथ ने हिन्दू धर्म, योग मार्ग और इस्लाम की कट्टरता को खत्म करने के लिए ही एक ही मनुष्य जीवन में तीनों धर्मो का अन्तरभाव दिखला दिया। उन्होंने कहा है कि जन्म से हम हिन्दू है, जीर्णता और परिपक्वता से योगी है तथा अक्ल से मुस्लमान है। योगियों ने सामाजिक साम्प्रदायिक सौहार्द के साथ-साथ आर्थिक वैमनस्य मिटाकर भी सौहार्द लाने की कोशिश की। जालंधर नाथ ने तो अमीर और गरीब के बीच की खाई को पाटने के लिए मध्यम मार्ग अपनाने की सहाल दी।

थोड़ो खाए सो कलपे झलपे घनो खाय सो रोगी

दहू पणंसा की संधि विचारै ते कोई बिड़ला जोगी।

            आदिकाल शौर्य और प्रेम, प्रेम और भक्ति, सामान्य जनता और उच्च वर्ग, ब्राह्मण, जैन, बौद्ध और इस्लाम के बीच सामंजस्य का काल है।

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