‘अंधेर नगरी’ हिन्दी नवजागरण का प्रतिनिधि नाटक है। /भारतेन्दु ने अंधेर नगरी में तमाम्-बाधक तत्वों को आकार दिया है।/ अंधेर नगरी के आधार पर भारतेन्दु का युगबोध ।

 

अंधेर नगरीहिन्दी नवजागरण का प्रतिनिधि नाटक है। /भारतेन्दु ने अंधेर नगरी में तमाम्-बाधक तत्वों को आकार दिया है।/ अंधेर नगरी के आधार पर भारतेन्दु का युगबोध ।


भारतेन्दु नवजागरण के अगुआ थे। उनके कारण हीं हिन्दी भाषी क्षेत्र में नव जागरण साहित्य के रास्ते आया। उनके प्रयास से ही साहित्य उत्तर मध्य युगीनता के घेरे से बाहर निकलकर आधुनिकता में प्रवेश करता है। भारतेन्दु का नवजागरण यूरोपीय इनलाइटमेंट ऐजकी बौद्धिकता के गुणों के साथ-साथ भारतीय नवजागरण के वैष्णव भावुकता से भी परिपूर्ण है।

            भारतेन्दु के अंधेर नगरी में तत्कालिन नवजागरण के सभी गुणों को देखा जा सकता है।  वे नवजागरण के नाम पर अतीत गरिमा से अभिभूत होना हीं काफी नहीं समझते थे। उन्होंने सामन्तवाद विरोधी चेतना और बौद्धिकता को नवजागरण के उद्दात मूल्यों के रूप में प्रतिष्ठित किया। भारतेन्दु ने पतनशील सामन्तवाद के प्रतिनिधि को अंधेर नगरी के चौपट राजा के रूप में दिखाया है। इसका विवेक से कोई सम्बन्ध नहीं है। यह भीतर से कायर भी है। पान खाइयेको सुपनखा आयी ए महराजसुनकर भागने लगता है। उत्तरकालिन सामन्तों का शौर्य और विवेक से नाता टूट चुका था। जिस भी व्यक्ति का मूल्य या बुद्धि से नाता टूट जाता है वह प्रहसन का ही विषय होता है।

            भारतेन्दु की अंधेर नगरी रसानुभूति का नाटक नहीं है विवेक के जागरण का नाटक है। अंधेर नगरी के अंधेरगर्दी परक मूल्यों से छुटकारा शस्त्रबल से नहीं, जन आंदोलनों से भी नहीं विवेक और युक्ति से होता है। चौपट राजा की न्याय व्यवस्था बेरहम एवं अमानवीय है। जनता दमन एवं आतंक के साये में जी रही है। फूट, वैर, ईर्ष्या, आलस्य जो नाटक में सिर्फ संकेतित हैं समाज को जकड़े हुए है। महंत अंधेर नगरी और चौपट राजा की कमजोड़ियों का अन्वेषक है। विवेक के बल पर महंत न केवल गोबर्धन दास को फांसी से बचाता है बल्कि अंधेर नगरी की अंधेर गर्दी परक व्यवस्था के मूल श्रोत राजा को ही जड़ मूल से समाप्त कर देता है। भारतेन्दु ने बताया कि मुक्ति का रास्ता विवेक है शस्त्र बल नहीं।

            ब्रिटिश साम्राज्यवाद धर्म का ही सहारा लेकर हमारे सांस्कृतिक अस्मिता पर प्रहार कर रहा था। इसलिए अस्मिता के बचाव की कोशिश धर्म के आवरण में हुयी। नवजागरण में धर्म का दो स्वरूप है एक मानवीय और दूसरा पाखंडी, कर्मकांडी।

जब भी धर्म के मूल में लोभ होगा तो उसका स्वरूप पाखंडी होगा। जब तक यह पाखंड बोध के स्तर पर पाखंड के रूप में समझा जाता है तब तक तो गनीमत है लेकिन जब यह पाखंड आस्था का विषय बनकर चेतना का हिस्सा बन जाता है, तब यह त्रासद स्थितियों को जन्म देता है। अंधेर नगरी में राजा मंत्री कोतवाल बैकुंठ जाने के पाखंड में आस्था रखते हैं और इसीलिए राजा को बैकुंठ जाने के लालच के कारण अपनी जान गवानी पड़ती है। अंधेर नगरी की राज-व्यवस्था और वहाँ की जनता के मूल में है लोभ। यह जनता पाखंड को ही धर्म समझती है और उसमें आस्था रखती है।

धर्म के मानवीय रूप का प्रतिनिधि है महंत, उसका व्यक्तित्व, मानवीयता, अनुभव, नीति और विवेक से निर्मित हुआ है। जैसे हीं वह सुनता है यहाँ टके सेर भाजी टके सेर खाजा है, अनुभव और नीति के आधार पर ही वह अंधेर नगरीके समतावाद को एक छलावा मानता है। तुरन्त नगर छोर देता है। गोवर्धन दास द्वारा लायी गयी मिठाई का भोग तक नहीं करता। गोवर्धन दास ने गुरू की आज्ञा नहीं मानी तब भी जैसे हीं गोवर्धन दास की पुकार सुनता है वह उपस्थित हो जाता है । उसने अपनी तरकीब से गोवर्धन दास को तो बचाया ही हमेशा जनता को शांसत में डालने वाले चौपट राजा को फांसी पर चढ़ाकर सबको उससे मुक्ति भी दिला देता है।

            नव जागरण समानता और स्वतंत्रता की वैज्ञानिक दृष्टि लेकर आया। उसने स्त्री स्वातंन्न्य की हिमायत की। अंधेर नगरी में स्त्री पात्र मेहनतकश वर्ग से आती हैं। वे अर्थोपार्जन से जुड़े होने के कारण स्वावलम्बी हैं। भारतेन्दु ने ठीक पहचाना कि नारी स्वतंत्रता का सूत्र उनके आर्थिक स्वावलम्बन में है।

नारंगीवाली आर्थिक दृष्टि से किसी पर निर्भर नहीं है तभी तो वह निर्भय होकर अपने अनमेल विवाह पर टिप्पणी करती है- मैं तो पिय के रंग न रँगी। मैं तो भूली लेकर संगी। यह उक्ति विवाह व्यवस्था के प्रति असंतोष की स्थिति है। कुँजड़िन अपने घरेलू अर्थ तंत्र से सीधे जुड़े होने के कारण निर्भिक होकर जनता की मनोवृत्ति और देशदशा पर अपनी राय जाहिर करती है। वही बताती है कि पेशागत चारित्रिक अंतर खत्म हो चुका है। सभी हमाम में नंगे हैं जैसे काजी वैसे पाजी। किसी भी देश की जनता के चरित्र में ही गुलामी के बीज मौजूद होते हैं। यदि जनता सत्ता की करतुतों से सहमत है तो फिर पराधीनता कैसे हटायी जा सकती है रैयत राजी टके सेर भाजी। कुँजड़िन के हीं संवाद से हमारे सामाजिक विभेद, इर्ष्या, द्वेष की सूचना मिलती हैं - ले हिन्दुस्तान का मेवा फूट और बैर। मछलीवाली भी आर्थिक दृष्टि से स्वावलम्बी है और इसीलिए वह अपने प्रेम की बाते बेझिझक कहती है। इन नारी चरित्रों का विश्लेषण स्पष्ट करता है कि स्वतंत्रता की लहर चल पड़ी थी। व्यक्ति की स्वच्छन्द वृत्तियाँ अब किसी प्रकार का अंकुश सहने को तैयार नहीं थीं।

नव जागरण ने जातीय विभेद पर भी प्रहार किया था। भारतेन्दु तदीय समाज में जाति तोड़ने की बात कर चुके थे। हिन्दू समाज जाति उपजाति में बँटा रहा है। इन जातियों उपजातियों के कारण ही समाज का मतलब हो गया था जातीय समाज उपजातीय समाज। व्यापक सामाजिक स्थिति बन ही नहीं पाती थी। भारतेन्दु जी हलवाई की उक्ति के जरिए हिन्दू समाज की जातीय उपजातीय संरचना पर व्यंग करते हैं - ऐसी जात हलवाई जिसके छत्तीस कौम हैं भाई। जात वाला ब्राह्मण पैसे के लिए ब्राह्मण से धोबी, ब्राह्मण से मुस्लमान या क्रिस्तान बनाने को तैयार है। वह पैसे के लिए ही झुठी गवाहियाँ देता है। भारतेन्दु ने इस जात वाले ब्राह्मण के जरिए यह बताया कि जातीय श्रेष्ठता और कुलनीता का धर्माधारित तर्क, पूंजीवाद के एक धक्के के कारण ही धधासायी हो चुका है। जनमना श्रेष्ठता का तर्क पूंजीवाद की लोभ मूलक संस्कृति ने खंडित कर दिया। यह नव जागरण का ही असर है कि भारतेन्दु ने अंधेर नगरी में जाति के खिलाफ एक सांस्कृतिक संघर्ष की शुरूआत की।

            नव जागरण अपनी प्रवृत्ति में ही अर्न्तविरोध मूलक था। उसमें नवीन जीवन्त शक्तियों के साथ-साथ रूढ़िवादी और कर्मकांडी शक्तियाँ और प्रवृत्तियाँ भी सक्रिय थी। पुर्नरूत्थान वादियों ने नवजागरण को इकहरा नहीं रहने दिया था। तत्कालिन समाज के अर्न्तविरोध का प्रभाव भारतेन्दु पर भी था। भारतेन्दु परम्परा प्रेमी भी है और आधुनिकता के पक्षधर भी। वे सनातन धर्मावलम्बी हैं और प्रगतिशील भी। उनमें राज भक्ति भी है और देश भक्ति भी, वे कविता ब्रज में लिखते हैं और गद्य खड़ी बोली में। भारतेन्दु का पुरा व्यक्तित्व हीं जैसे, अर्न्तविरोधों का एक कॉम्पलैक्स है। उनका यह अर्न्तविरोध तत्कालिन नवजागरण और भारतीय समाज का अर्न्तविरोध है। गोवर्धन दास द्वारा गाए गए अंधेर नगरी गीत में यह अर्न्तविरोध परिलक्षित हुआ है।

नीच ऊँच सब एकहि ऐेसे।

जैसे भँड़ुए पण्डित तैसे।।

   X      X     X     

गो द्विज श्रुति आदर नही होई।

मानहुँ नृपति विधर्मी कोई।।

   X      X     X     

अन्धेर नगरी अनबूझ राजा।

टका सेर भाजी टका सेर खाजा।।

            यहाँ ध्वनि है कि नीच-ऊँच को एक नहीं होना चाहिए। गाय ब्राह्मण और वेद का आदर होना चाहिए। जबकि नाटक में भारतेन्दु जी ने जाति, उपजाति वाली व्यवस्था पर व्यंग किया है। भारतेन्दु जी जातिवाद के खिलाफ एक मोर्चा ही खोल देते हैं। 

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