अभिनेयता की दृष्टि से ‘अंधेर नगरी’ का मूल्यांकन / अभियन और रंगमंच की दृष्टि से ‘अंधेर नगरी’ की समीक्षा।

 अभिनेयता की दृष्टि से अंधेर नगरीका मूल्यांकन / अभियन और रंगमंच की दृष्टि से अंधेर नगरीकी समीक्षा।


    अभिनेयता से मतलब - अभिनीत होने की क्षमता से है। नाटक की अभिनेयता का सवाल रंगमंच से जुड़ा है। आज रंगमंच कई स्तरों पर विकसित हो चुका है। एक तरफ बाँस-बल्लों वाले रंगमंच से लेकर नुक्कड़ नाटकों के अस्थायी रंगमंच की परम्परा है, तो दूसरी तरफ सभी सुविधाओं से सम्पन्न तलघर, आधुनिक प्रेक्षागृह, मुक्ताकाशी मंच, चक्रिल मंच इत्यादि। अंधेर नगरीनुक्कड़ पर भी खेला गया है और सुविधा सम्पन्न मंच पर भी- दोनों तरह के मंचों पर इसे निर्विवाद रूप से सफलता मिली है।

            भारतेन्दु जीवन के सभी रंगों के भुक्त भोगी थे। नाट्य - लेखन एवं नाट्य प्रदर्शन-क्षेत्र में उनका प्रवेश एक साथ ही हुआ। वे पारसी रंगमंच की व्यावसायिकता के कटु आलोचक थे। इसलिए उन्होंने पारसी रंगमंच के समानान्तर अपनी एक अव्यवसायिक टोली बनाई थी। हिन्दी प्रदेश में रंगकर्म के प्रति उत्साह जगाने और उसे एक आंदोलन का रूप देने का श्रेय भारतेन्दु को ही है।

            अंधेर नगरीरूचिकर, व्यंग्यपूर्ण प्रहसन है। लोक रस से युक्त छोटे-छोटे संवाद इसके नाटकीय आवेग को शिथिल होने नहीं देते हैं। नवीन प्रयोगों की दृष्टि से भी यह प्रहसन, अत्यन्त सम्भावनापूर्ण है, क्योंकि इसका नाट्य - शिल्प काफी लचीला है। स्थानीय रंग से पात्रों में वैशिष्ट्य भरकर भी भारतेन्दु नाटक को प्रभावोतेजक बनाते हैं। अंधेर नगरी में बाजार का जो दृश्य है, उसके सभी पात्र बोली -बानी से बनारसी लगते हैं।

            अंधेर नगरीमें कुल छः दृश्य हैं। इसके सारे दृश्य नाटकीय तनाव को सुरक्षित रखते हैं। घटनाएँ पात्रों के क्रिया-व्यापार से सृजित होती हैं, इसलिए अस्वाभाविक- सी लगने वाली कथा स्वाभाविक लगती है। नाटककार बाजारका दृश्य न देकर सीधे यह सूचित कर सकता था कि गोबरधन दास बाजार  में पहुँच चुका है, लेकिन इससे दर्शक के मानस पर वह असर नहीं होता जो कि बाजार को विस्तार में अंकित करने से हुआ है। इस पूरे प्रहसन में दो प्रसंग ऐसे हैं जहाँ भाषिक संवाद और क्रिया-व्यापार में प्रत्यक्ष सम्बन्ध स्थापित नहीं होता है, जैसे- कोतवाल की गर्दन फाँसी के फंदे के लिए दुबली पड़ गई, इसकी जानकारी क्रिया-व्यापार से नहीं, बल्कि सिपाहियों के संवादों से मिलती है। इसी तरह गोबरधनदास को जब सिपाही खींचकर फाँसी पर चढ़ाने के लिए ले जा रहे होते हैं तो गुरू जी उसे अंतिम उपदेश देने के लिए सिपाहियों से अलग ले जाते हैं और कान में उपदेश देते हैं। यह उपदेश श्रव्य नहीं है और शायद यही वजह है कि उत्सुकता जगाने में नाटक को अधिक कामयाबी मिलती है। इनकी सहायता से नाटकीय आवेग को बनाए रखने में सुविधा होती है। यह भारतेन्दु की रंगमंचीय सूझ है, अन्यथा इनकी जगह पर अन्य बैकल्पिक दृश्यों को रखने से नाटकीय आवेग में बिखराव आ जाता।

            अंधेर नगरीकी सबसे बड़ी विशेषता है कि भारतेन्दु ने हमें अभिनय की सम्भावनाओं से लैस पात्रोचित भाषा दी है। इसकी भाषा अभिनेयता का साक्ष्य है। भाँड़एवं स्वाँगकी अश्लीलता से दूर किंतु स्वाद में सरस भाषा गढ़ना भारतेन्दु से ही सम्भव था। महंत और उनके चेलों के संवाद की सरसता उनकी भाषा के कारण ही है। महंत के संवाद है ‘‘बच्चा ‘‘नारायण दास! यह नगर तो दूर से बड़ा सुंदर दिखलाई पड़ता है। देख, कुछ भिच्छा - उच्छा मिले तो ठाकुर जी का भोग लगे।’’ 'बच्चा', 'भिच्छा – उच्छा', 'ठाकुर जी का भोग'  जैसी शब्दावलियाँ उत्तर भारत की किसी भी साधु-जमात में सहजश्रव्य हैं। राजा की भाषा में जहाँ लापरवाही एवं अकड़ है, वही भिश्ती, कल्लू बनिया, कस्साई एवं गड़ेरिये की भाषा में भयाक्रांत सतर्कता एवं विनय। भारतेन्दु इनकी भाषा में लोकल कलरका पुट देकर भी आकर्षण बढ़ाते हैं। लड़वा, मेथी, सोआ, चौराई, बथुआ जैसे शब्दों का देशीपन जनरूचि के अनुकूल है। तो बाबा जी, कुछ लेना-देना हो तो लो दो।मुगल पठान का संवाद उसके चरित्र के अनुरूप ही शौर्य से दीप्त हैः ‘‘अमारा ऐसा मुल्क जिसमें अँगरेज का भी दाँत कट्टा ओ गया।’’ गोबरधनदास की भाषा का नमूना देखिएः ‘‘बच्चा, भिक्षा माँगकर सात पैसे लाया हूँ, साढ़े तीन सेर मिठाई दे दे, गुरू-चेले सब आनन्दपूर्वक इतने में छक जायेंगे।’’ इसी तरह अंधेर नगरीके सभी पात्र पेशागत अभिलक्षणों को अपनी भाषा के जरिए व्यक्त कर देते हैं और शायद इसीलिए ये मंच पर भी जीवंत बने रहते हैं।

            हर अच्छा नाटक कलाकारों के समक्ष कलात्मक चुनौती उपस्थित करता है। जिस नाटक में रंगकर्मियों के लिए अपनी-अपनी सर्जनात्मक प्रतिमा दिखाने की जितनी अधिक गुंजाइश होती है, वह अभिनेयता की दृष्टि से उतना ही सफल माना जाता है। अंधेर नगरीमें निर्देशक, संगीतकार, नृत्य-निर्देशक के लिए भी मौलिकता प्रदर्शित करने की पर्याप्त सम्भावना है। इस नाटक में नृत्य एवं संगीत को योजना-बद्ध ढंग से रखा गया है। इनके उपयोग से जहाँ पात्रों की चरित्रगत विशिष्टता उभरकर सामने आती है, वहीं नाटकीय आवेग में निरन्तरता बनी रहती है। 'चना जोर गरम वालेघासीराम का मंच पर मटक-मटक कर गाना या मछली वाली का गीत- नैन मछरिया रूपजाल में देखत ही फँसि जाय’ - गाकर मछली की तरह बल खाना - दर्शकों का पर्याप्त मनोरंजन करता है, साथ ही उनके चारित्रिक वैशिष्ट्य को भी उभारता है। गोबरधन दास जब अंधेर नगरी अनबूझ राजा / टका सेर भाजी टका सेर खाजा / ऊँच-नीच सब एक ही सारा / मानहुँ ब्रह्म-ज्ञान विस्तारा /झूम-झूम कर गाते हुए मिठाई का छक कर भोग लगाता है तो एक साधु की लोभ-वृत्ति छिपाए नहीं छिपती। यहाँ नृत्य एवं गीत-संगीत की योजना से गोबरधन दास का चरित्र अधिक व्यंजक एवं सुरूचिपूर्ण हो जाता है। इस तरह हम देखते हैं कि अंधेर नगरीमें नृत्य एवं गीत की योजना एक सफल प्रयोग है।

            अंधेर नगरीलोक-कथा का आधुनिक रूप है। इसमें लोक रंगमंच पर मंचित होने की सहजता है। इसकी मंचीय योजना डेकोरेटिव नहीं है। इसे बिना किसी अतिरिक्त व्यय के मंचित किया जा सकता है। इसके असंख्य नुक्कड़ नाट्य-प्रदर्शन इस बात के सबूत हैं। दूसरी तरफ यह भी सही है कि इसकी प्रस्तुति में भारी भरकम सेट, आधुनिक मंच तकनीक आदि का उपयोग किया जा सकता है। जैसे, 00 कारंत ने अपने निर्देशन में नेशनल स्कूल औॅफ ड्रामाके प्रशिक्षित छात्रों द्वारा काफी धन व्यय कर इसका सफल मंचन करवाया था।

            अंधेर नगरीमें निर्देशक एवं अभिनेता अपने रचनात्मक विवेक के इस्तेमाल की भरपूर छूट ले सकते हैं। इसमें बाजार एवं दरबार के जो दृश्य रखे गए हैं, उनके क्रिया-व्यापार को थोड़े या बहुत में समेटना पूर्णतः निर्देशक के विवेक पर निर्भर है। आज के ख्याति-प्राप्त निर्देशक रंगमंच पर पात्रों के समूहन (केअरोग्राफी) को दिखलाने में खास दिलचस्पी रखते हैं। इस दृष्टि से भी अंधेर नगरी  के दूसरे दृश्य बाजार एवं चौथे दृश्य - दरबार में समूहन की खूबियाँ निहित है।

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