भारत दुर्दशा का मूल्यांकन / भारत दुर्दशा में नवजागरण/ भारत दुर्दशा का कथ्य या प्रतिपाद्य?/ भारत
दुर्दशा मे नायकत्व
भारत दुर्दशा मे अंग्रेजी राज की जितनी
तीखी आलोचना है उतनी ही तीखी भारतीय जनता की आत्म आलोचना भी है । इसमें एक
ओर अंग्रेजी शासन और शोषण की बहुआयामी तस्वीरें हैं तो दूसरी ओर भारतीय जनता की
काहिली, अंधविश्वास, भग्यवाद और जातिवाद के चित्र भी है। इन
चित्रों में ही भारतीय जनता की गुलामी के बीज छिपे हैं। इसके व्यंग में बहुत
पैनापन है वह मर्म को सीधे छुता है।
मध्य युग के भक्त कवियों की तरह
भारतेन्दु की भक्ति का भी एक सामाजिक संदर्भ है। भारतेन्दु जी कृष्ण का स्मरण भारत
की राष्ट्रीय पराधीनता से मुक्ति दिलाने के लिए करते हैं। उन्होंने इस नाटक के
मगलाचरण में कृष्ण की याद कर पराधीनता से मुक्ति की मंशा का ही इजहार किया हैः
जय सतजुग-थापन-करन, नासन म्लेच्छ-आचार।
कठिन धार तरवार कर, कृष्ण कल्कि अवतार ।।
भारत में सतयुगी मूल्यों की स्थापना के
लिए कृष्ण के कल्कि अवतार की कामना पराधीनता से मुक्ति की कामना का ही परिणाम है।
भारतेन्दु जी अपनी मिथकीय आस्था का उपयोग राष्ट्रीय सामाजिक पराधीनता से मुक्ति के
लिए करते हैं।
भारत दुर्दशा भाव प्रतीकों का नाटक है।
भारत, भारत दुर्देव, अर्ध नग्न निर्लज्जता, स्त्री वेशधारी आशा, मदिरा, सत्यानाथ फौजदार, रोग,
आलस्य, डिसलायलटी आदि भावों को नाटककार ने मानवीकरण का
सहायता लेकर मूर्त रूप दिया है। ये भाव प्रतीकात्मक स्तर पर भारत के लोगों की
बुराईयों को सामने लाते हैं। उपर से देखने से लगता है कि ये पात्र वर्ग या समुदाय
का प्रतिनिधित्व नहीं करते लेकिन यदि आलस्य रंगमंच पर आता है तो आलसी भारतीयों के
समुदाय का बोध होता है। इसी तरह दरिद्रता
भारतीय दरिद्र जनता का प्रतिनिधित्व करती है जिसकी आबादी सबसे अधिक है।
इस नाटक के पाँचवे अंक में भारत, भारत
दुर्देव, मदिरा, लोभ, आलस्य जैसे भाव प्रतीकों की जगह स्पष्ट
मानवीय आकार में पात्र उभरते हैं- बंगाली, महाराष्ट्री,
एडीटर, कवि, सभापति और दो देशी सजीव पात्र हैं। इन पात्रों के कारण किताबखाने का
दृष्य अधिक जीवन्त हो गया है। भारतेन्दु ने अपनी राजनैतिक सुझ-बुझ और कलात्मकता से
इस दृष्य को अधिक व्यंजक बनाया है।
भारत इस नाटक के दूसरे अंक में आता है।
वह फटेहाल है कुत्तों, सियारों के चहल पहल के बीच फटेहाल भारत
का प्रवेश अपहर्ताओं के बीच अपने सत्व के
लिए संघर्ष करती हुई जनता को प्रतीकित करता है। भारत दुर्देव विदेशी आक्रमणकारी
सत्ता का प्रतीक है। यह आधा मुसलमानी और आधा क्रिस्तानी वेशभूषा में है। भारतेन्दु
ने इसकी वेशभूषा के लिए अपनायी गयी नाट्य युक्ति द्वारा हजार वर्षों की भारतीय
गुलामी को प्रत्यक्ष कर दिया है।
भारत भाग्य भारतीय जनता के भाग्यवाद का
प्रतीक है। इस भाग्यवाद से ही पीछा छुराकर हीं भारत अपनी सही अस्मिता की प्राप्ति
कर सकता है। भारत, भारत दुर्देव से प्राण बचाने के लिए भागता फिरता है। श्मशान में
जब वह प्राण रक्षा की गुहार लगा रहा है तभी नैपथ्य से भारत दुर्देव का कर्कश स्वर
सुनायी पड़ता है और वह मुर्च्छित हो जाता है। भारत की पुकार जब कोई नहीं सुनता तब
उसे सिर्फ दो ही सहारा दिखता है एक निर्लज्जता का
दूसरा आशा का। निर्लज्जता उसे भीख माँगना सीखाती है और आशा
आत्महत्या के लिए अनुकूल परिस्थिति होने के बावजूद भारत को मरने नहीं देती। भारत
की मुर्छा देखकर भी भारत दुर्देव संतुष्ट नहीं है। वह सत्यानाष फौजदार के साथ
आलस्य, मदिरा, दरिद्रता, लोभ, अपव्यय, जातिवाद की सेना साज कर भारत पर हमला
बोल देता है तथा उससे धन,
बल, विद्या
सब छिन लेता है। नाटक के अंतिम अंक में भारत भाग्य, भारत को जगाने की हर कोशिश करता है लेकिन विफल
होकर अंततः छाती में कटार घोंप आत्म हत्या कर लेता है।
भारतेन्दु ने भारत दुर्दशा में नवजागरण के तमाम बाधक तत्वों को उजागर किया
है। और यह भी बताया है कि इन बाधक तत्वों से मुक्त होकर हीं यहाँ की जनता अपनी सही
पहचान अर्जित कर सकती है। नाटक के पहले अंक में एक योगी लावनी गाता हुआ आता है और
भारत की हीनतर वर्तमान के सामने भारत के अतीत गौरव को आइने की तरह रख देता हैः
सबके पहिले जेहि ईश्वर धन बल दीनो।
सबके पहिले जेहि सभ्य विधाता कीनो ।।
x x x
अब सबके पीछे सोई परत लखाई।
हा हा! भारतदुर्दशा न देखी जाई ।।
आगे अपने गीतों में यह योगी राम, युधिष्ठर, राजा हरिश्चन्द्र, नहुष, कृष्ण, अर्जुन, भीम वीर आदि महापुरूषों का
स्मरण करता है और भारतीय जनता के सामने अतीत के सुनहले पृष्ठों को खोलकर रख देता
है। इस योगी में भी राजभक्ति और देशभक्ति का अर्न्तविरोध है। वह अंग्रेजी राज की
प्रशंसा करता हैः-
‘अँगरेराज सुख साज सजे सब भारी।' लेकिन इसके तुरन्त बाद वह भारतीय धन के
पारगमन पर अपनी चिंता जाहिर करता है- पै धन बिदेश चलि जात इहै अति ख़्वारी ।। यह अंग्रेज राज सुख साज पर व्यंग्यात्मक टिप्पणी
है। भारतेन्दु ने ‘ अंग्रेज राज सुख साज’ के जरिए राज भक्ति का इजहार करने के
तुरंत बाद जिस तरह अपनी धन के पारगमन पर राष्ट्रीय चिंता जाहिर की है उससे स्पष्ट
है कि उन्होंने राजभक्ति के नीचे देशभक्ति की बारूद रख दी है। योगी के इस गायन के
बाद हीं रंग-मंच पर फटेहाल भारत का प्रवेश होता है। भारत की फटेहाली अंग्रेज राज
सुख साज’ पर व्यंग ही है।
भारतेन्दु के समय की भारत आज भी
दुहराया जा रहा है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ आज भी अपने माल की खपत के लिए भारत को
एक बाजार के रूप में देखती है। हमारे भ्रष्ट नेता अपने विदेशी खातों में धन जमा
करने में लगे हैं। महंगाई,
भ्रष्टाचार, कर भार से जनता परेशान है। और ‘जनता के लुटे हुए पैसे को पूंजीपति और नेता
विदेशों में सुरक्षित ठिकानों में रखने में लगे हैं। कहने की जरूरत नहीं कि तब और
अब में फर्क नहीं है। बल्कि स्थिति और बुरी हुयी है।
भारतेन्दु जी भारत दुर्दशा में भारतीय
जनता की पर निर्भता को निशाना बनाते हैं। जनता अपनी मुक्ति के लिए स्वयं प्रयास
नहीं करती, अपने पुरूषार्थ पर उसे भरोसा नहीं रहा।
भारत भी बचाव के लिए कभी ईश्वर का सहारा ढू़ढ़ता है और कभी राज राजेश्वरी विकटोरिया
का। वह ईश्वर से शरणागति की प्रार्थना
करता हुआ कहता है-
सब विधि दुख सागर मैं डूबत धाई उबारौ
नाथ ।।
वह राज राजेश्वरी से कहता है- ‘‘मुझे बचाओं अपनाये की लाज रखो।’’ बचाव
में न तो ईश्वर आता है और न ही राज राजेश्वरी । भारत बुद्धिविहीन होने के कारण यह
नहीं समझ पाता कि जिस राजेश्वरी ने यहाँ
उपनिवेश बनाया है उसका शोषण करने के लिए
वहीं उसे मुक्त कैसे कर सकती है। भारत कभी वीरों का देश रहा है। दुर्योधन ने कृष्ण
से कहा था, ‘सूच्यग्रं नैव
दास्यामि बिना युद्धेन केशव’ उसी युद्धिष्ठिर और दुर्योधन के वंशज
अंग्रेजों से बिना लड़े हार गये। अंग्रेज व्यापारी बनकर आए और पुरे देश को हड़प
लिया। भारत इतनी बार और इतने तरह से लुटा गया कि आज उसमें स्वयं निर्णय लेने का
आत्मविश्वास और विवेक तक नहीं है। भारत
दुर्देव क्रोध में कहता है ‘‘कहाँ गया भारत
मूर्ख! जिसको अब भी परमेश्वर और राजराजेश्वरी का भरोसा है?’’ भारतेन्दु ने भारत दुर्देव के इस कथन
के जरिए जैसे यह बताया है कि भारत की मुक्ति किसी और की सहायता से नहीं हो सकती वह
होगी उसके अपने ही संघर्ष से। 1947 में भारत ईश्वर की कृपा से या ब्रिटिश राज की
कृपा से आजाद नहीं हुआ वह आजाद हुआ भारतीय जनता के मुक्ति संघर्ष से। भारत
आत्मनिर्भर होकर हीं अपने विकास का रास्ता ढूंढ सकता है।
इस नाटक का महत्वपूर्ण अंक है
किताबखाने वाला अंक। किताबखाना में मानवीय आकार वाले पात्र भारत की दुर्दशा पर विचार कर रहे हैं। सभी बुद्धिजीवी हैं। इस
बैठक में हिस्सा लेने वाले बुद्धिजीवियों के माध्यम से नाटककार ने विभिन्न
क्षेत्रिय मध्यवर्गीय नेतृत्व के अर्न्तविरोधों को उजागर किया है। उन्होंने बताया
है कि जिन राज्यों में नवजागरण पहले आया वहाँ निर्भयता और स्वतंत्रता की चाह भी
पहले जगी। लेकिन जिन क्षेत्रों में नवजागरण अभी पूरी तरह फैला नहीं था वहाँ के
बुद्धिजीवी भी भय के शिकार थे। बंगाली और महाराष्ट्री बुद्धिजीवी यदि डिसलायलटी से भयभीत नहीं हैं तो उनके मूल में है, नवजागरण संबंधी विश्वास, लेकिन दो देशी बुद्धिजीवियों के मन में बैठा हुआ
भय नव जागरण से उनके वंचित होने का ही द्योतक है। भारतेन्दु जी ने यह बताया कि
जनता से कटे हुए बुद्धिजीवी कितने कायर होते हैं। एक देशी सज्जन कहते हैं, ‘‘क्यों भाई साहब; इस कमेटी में आने
से कमिश्नर हमारा नाम तो दरबार से खारिज न कर देंगे?’’ यही देशीसज्जन डिसलायलटी के
आने पर डर के मारे टेबुल के नीचे घुस जाते हैं। भारतेन्दु जी ने इस अंक में अपनी
गहरी राजनैतिक सुझबुझ के साथ अपनी स्वस्थ्य प्रहसन कला भी परिचय दिया है। इस देश में
नव जागरण के अलग-अलग रंग देखने को मिले हैं। बंगाल और महाराष्ट्र में नव जागरण
धर्म और दर्शन के रास्ते आया। हिन्दी भाषी प्रदेश में वह साहित्य के रास्ते आया
था- भारतेन्दु के साहित्य के रास्ते। इसलिए स्वाभाविक है कि जब तक यहाँ का पाठक
वर्ग इस साहित्य से परिचित नहीं होता तब तक उसमें आत्म विश्वास और निर्भयता के दर्शन
नहीं होते।
इस नाटक में निर्लज्जता अव्यवस्था, जातिवाद, दरिद्रता ही सिर्फ अवरोधक तत्व नहीं है मायावाद भी है। वेदान्त दर्शन के इस
मायावाद ने जगत के मिथ्यात्व की बात कर जनता को समाज से परान्मुख बनाया। लोग
राष्ट्रीय सामाजिक चेतना से इस मायावाद के कारण हीं कट गए। इस मायावाद पर व्यंग है’’ महाराज, वेदांत ने बड़ा ही
उपकार किया। सब हिंदू ब्रह्म हो गए। ..... ज्ञानी बनकर ईश्वर
से विमुख हुए, रुक्ष हुए, अभिमानी हुए और इसी से स्नेहशून्य हो
गए। जब स्नेह ही नहीं तब देशोद्धार का प्रयत्न कहां! बस, जय शंकर की।’’
भारत दुर्दशा के अन्तिम अंक में भारत भाग्य का कारूणिक विलाप
चित्रित है। भारत भाग्य भारत की मुर्छा तोड़ने की हर कोशिश में असफल होकर अन्ततः
आत्महत्या कर लेता है। कुछ आलोचकों ने इस नाटक के अन्त के आधार पर इस असफल रचना
कहा। उनका मानना है कि यह नाटक आशा में नहीं निराशा में खत्म होता है। भारत भाग्य
की आत्महत्या से भारत के सुधरने की रही
सही आशा भी खत्म हो जाती है। फिर इसे सफल नाटक कैसे कह सकते? बाबू श्याम सुन्दर दास ने कहा है कि ‘‘भारत दुर्दशा में भारत वर्ष की वर्तमान अवस्था का अच्छा चित्र
अंकित किया गया है। इससे अंत में नैराश्य का भाव उत्पन्न होता है, पर होना चाहिए भारतोदय करने की दृढ़ता
का भाव।’’ बाबू ब्रजरत्न दास कहते हैं कि भारत दुर्दशा में भारत भाग्य हीं नायक है और प्रतीनायक है
भारत दुर्देव। अन्त में भारत भाग्य की आत्महत्या नायक की हीं आत्म हत्या है इसलिए
यह नाटक दुखान्त है।
यदि शास्त्रीय दृष्टि से यदि हम इन
सवालों पर विचार करें तो कुछ अलग निष्कर्ष हासिल होते हैं। नायक की नाटक के सभी
अंकों में या प्रायः अंकों में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष उपस्थिति होनी चाहिए। प्रतिनायक
या खलनायक के हमले का निशाना भी नायक हीं होता है। इन दोनों दृष्टियों से विचार
करने पर भारत ही नायक ठहरता है। प्रथम अंक में योगी इस भारत के ही स्वर्निम अतीत, दुखद वर्तमान का लेखा-जोखा प्रस्तुत
करता है। दूसरे अंक श्मशान में यह फटेहाल भारत हीं अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष
करता दिखता है। भारत दुर्देव की कर्कश वाणी सुनकर यही मुर्च्छित होता है और इसी के
चारों ओर से घेरने के लिए भारत दुर्देव सेना की अलग अलग टुकड़ियाँ भेजता है। भारत दुर्देव कहता
है, ‘‘ कहाँ गया भारत मुर्ख, देखों
तो अभी इसकी क्या दुर्दशा होती है,/ सब लोग चारो ओर से हिन्दुस्तान को घेर
लें,/ वह रोब से कहता है आज्ञा क्या है, भारत
को चारों ओर से घेर लो। वह आलस्य मदिरा आदि को भी भारत को ही
तबाह करने का आदेश देता है।’’
पाँचवें अंक में बुद्धिजीवी इसी भारत
को बचाने के उपाय पर विचार करते हैं। छठा अंक में यही भारत मूर्छित पड़ा है और
भारत भाग्य विलाप कर रहा है। भारत भाग्य तो सिर्फ इसी छठे अंक में उपस्थित हुआ है
भारत दुर्देव उसकी नोटिस तक नहीं लेता इसलिए इस नाटक का नायक भारत है भारत भाग्य
नहीं। भारत भाग्य तो भारत का सहकर्मी भी नहीं है। यह भारत भाग्य को मित्र वेश में
भारत का शत्रु है। भारत ने भी इसे अपना प्रच्छन्न शत्रु मान लिया है। यह ठीक है कि
भारत भाग्य जब विलाप कर रहा है तो भारत की प्रतिक्रिया प्राप्त नहीं होती क्योंकि
वह मुर्च्छित है। लेकिन दूसरे अंक में भारत भाग्य अर्थात् भाग्यवाद के प्रति भारत
अपने दृष्टिकोण को प्रकट करता हैः
‘‘अरे दैव ने सब कुछ मेरा नाश कर दिया पर
अभी संतुष्ट नहीं हुआ’’, यहाँ दैव का अर्थ ईश्वर नहीं है भाग्य
है। ‘दैव दैव आलाती पुकारा’ में भी दैव का अर्थ भाग्य है ईश्वर
नहीं। भारत भाग्यवाद से हुयी क्षति की पहचान करने लगा है तभी तो वह विपत्ति में
अपने बचाव के लिए उसे न पुकार कर ईश्वर को पुकारता हैः सब विधि दुख सागर मैं डूबत धाई उबारौ
नाथ। भारत की यह विडम्बना हीं है कि उसने
भाग्यवाद को तब पहचाना जब धन, बल, विद्या, बुद्धि सब से वह छिन्न हो गया।
भाग्यवाद ने इस भारत को संतोषी बना दिया। संतोष तो प्रकृति से ही प्रगति विरोधी
है। भारत के लोग इस भाग्यवाद के कारण हाथ पर हाथ धर प्रतीक्षा के लिए मजबूर हो गए।
वे रोटी और रोजगार के लिए भाग्य पर निर्भर करने ही लगे, असाध्य बीमारियों का भी उपचार न कराकर
इस भाग्य से उपचार की प्रार्थना करते रहे। इस भाग्यवाद का ही परिणाम है कि ‘‘अब
हिन्दुओं को खाने मात्र से कम देष से कुछ काम नहीं’’ अब हिंदुओं को खाने मात्रा से काम, देश से कुछ काम नहीं। राज न रहा, पेनसन ही सही।
रोजगार न रहा, सूद ही सही। वह भी नहीं, तो घर ही का सही, ‘संतोषं परमं सुखं’ रोटी को ही सराह
सराह के खाते हैं। उद्यम की ओ देखते ही नहीं।'' तब स्पष्ट है कि भाग्यवाद और उससे जनित संतोषवृत्ति, आलस्य, अकर्मण्यता
भारत के प्रचछन्न शत्रु हैं। भारत सावधान भी हुआ तो सब कुछ नष्ट होने के बाद। यह
भाग्यवाद भारत का छद्म चित्र है। वह भारत के बल पर ही फलता-फूलता रहा है। भारत की
मुर्च्छा से उसकी उद्विग्नता अपने अस्तित्व की चिंता के कारण है- यदि भारत न रहा
तो फिर वह कहाँ जीवन पाएगा। भारत को जब वह एक शव की माफिक मान लेता है और उसे
पक्का यकीन हो जाता है कि भारत अब नहीं जगेगा तब वह नदियों, सागरों से भारत को डुबाने की प्रार्थना
करता है। जिसे भारत के डुबने पर ही हार्दिक शांति मिलेगी, वह भारत का हितैषी नहीं
हो सकता। यह भारत भाग्य अंग्रेजों का प्रशंसक है। फिर यह अंग्रेजों द्वारा गुलाम
बनाये गए भारत का मित्र कैसे हो सकता है। वह मुर्च्छित भारत से कहता हैः ‘‘अंग्रेज का राज्य पाकर भी न जगे तो कब
जागोगे। हाय अब भी भारत की यह दुर्दशा । अरे अब क्या चिता पर संभलेगा।’’ यह भारत भाग्य भारत से कहता है कि
मुझसे वीरों की कर्म नहीं हो सकता, तो फिर किस अर्थ में वह भारत का मित्र है।
पराधीन भारत की मुक्ति शौर्य कर्म से ही हो सकती थी। भारत भाग्य का अंत दुखान्त नहीं
सुखान्त है। भारत भाग्य के अन्त से ही भारत परनिर्भरता से मुक्त होगा। भारत मरा
नहीं है मुर्च्छित है। जब उसकी मुर्च्छा टुटेगी तो भाग्यवाद से मुक्त होने के कारण
कर्मवाद की ओर बढ़ेगा। भाग्यवादी भारत पराधीन एवं परनिर्भर भारत है और भाग्यवाद से मुक्त भारत
कर्मवादी भारत है। भारत के दो चेहरे हैं- एक भाग्यवादी भारत दूसरा कर्मवादी भारत।
भाग्यवादी भारत गुलाम भारत का (तत्कालिन) तत् युगीन सच है और कर्मवादी भारत
स्वाधीन भारत की प्रत्याशा है।
अन्ततः यह नाटक भाग्यवाद से मुक्ति
दिलाकर भारतीय जनता को अपने स्वत्व की पहचान का एक विस्तृत आयाम देता है।