भारत दुर्दशा : अभिनेयता
बेखबर, रूढ़िग्रस्त भारतीय जनता को उनके अर्न्तविरोधों से परिचित कराकर खबरदार करने के लिए भारतेन्दु जी नाटक लिख रहे थे। उनमें प्रतीकात्मकता एवं प्रयोगशीलता है। यह तत्कालीन दमनकारी औपनिवेशिक परिवेश में अभिव्यक्ति पर लगी ब्रिटिश शासन की कड़ी सेंसरशिप का परिणाम है। भारत दुर्शशा में उन्होंने अमूर्त्त भावों एवं विचारों को चरित्र के रूप में प्रस्तुत किया है। यह मानवीकारण उस समय के नाटक और रंगमंच के लिए एक मौलिक प्रयोग है।
भारतेन्दु के नाटकों की प्रयोगशीलता समसामयिक परिस्थितियों एवं कथ्य के दबाव के कारण आकार लेती है। भारत दुर्दशा में भी भारतेन्दु का जोर पुर्नजागरणकारी प्रतिबद्धता की वजह से कथ्य पर ही है। उसके कथा-केन्द्र में उन्होंने भारतीय नाट्य शास्त्र के अनुरूप न तो रस को रखा और न ही पाश्चात्य नाट्य शास्त्र के अनुरूप नाट्य संधर्ष को। इसके केन्द्र में है भारत-दुर्दशा के कारणों की खोज। भारतेन्दु उसमें लोक नाट्य तत्वों को मिलाकर उसे और मनोहारी बनाते हैं। उसकी अभिनेयता का यही रहस्य है।
‘भारत दुर्दशा’ में छः अंक है। अंक इतने छोटे-छोटे हैं कि यदि अंक की जगह दृश्य भी लिख दिया जाय तो उससे नाटक की संरचना में कोई फर्क नहीं आएगा। नाटक की कथा क्रमिक रूप से आगे बढ़ती है। भारतेन्दु ने प्रारम्भ में ही संकेत भरा मंगलाचरण रखकर नाटक के लिए औत्सुक्य पैदा कर दिया है। वे लिखते हैः
जय सतजुग-थापन-करन, नासन म्लेच्छ-आचार।
कठिन धार तरवार कर, कृष्ण कल्कि अवतार ।।
यहाँ भारतेन्दु मिथकीय विश्वास का इस्तेमाल
सामाजिक परिवर्तन के लिए कर रहे हैं। यदि कृष्ण कल्कि के अवतार है और वे कल्कि
अवतार का रूप धारण कर सतयुगी मूल्यों की स्थापना कर सकते हैं तो यह धर्म के आवरण
में बदलाव के लिए भारतेन्दु की व्याकुलता की अभिव्यक्ति है। उससे जहाँ एक ओर
भारतेन्दु की धर्म-आस्था दर्शकों की धर्म-आस्था को उकसाती है, वहीं दूसरी ओर देशवासियों की दयनीयता एवं उसे दूर करने के उपायों
की नाटक की मूल चिंता की ओर भी दर्शकों का ध्यान खींचती है।
पहले अंक में एक योगी लावनी गाता हुआ देश के अतीत गौरव के परिप्रेक्ष्य में उसकी वर्तमान हीन दशा का ब्योरा देता है। वह शुरू में ही भारतीय दुर्दशा पर भारत भाईयों के रूदन का आहृवान कर नाटक के राष्ट्रीय सरोकार को ध्वनित कर देता है। उसके गीत में आंगिक, वाचिक एवं सात्विक अभिनय के द्वारा सफल रंग प्रस्तुति के सारे गुण मौजूद हैं। यह योगी हमारे नाट्य शास्त्र का परिचित सूत्रधार मात्र नहीं है, यह तो मानो भारतीय आत्मा की आवाज है। यह
रोवहु सब मिलि कै आवहु भारत भाई
हा! हा! भारत-दुर्दशा न देखी जाई’’
गाकर दर्शकों को भारत का दैन्य देखने के लिए मानसिक रूप से तैयार कर देता है।
दूसरे अंक में श्मशान में कुत्तों, कौओं, स्यारों के बीच फटेहाल भारत का प्रवेश होता है।
वह अपनी रक्षा के लिए कभी ईश्वर को और कभी राज राजेश्वरी को पुकारता है। वह स्वयं
अपनी रक्षा नहीं कर सकता। यह उन्हीं पूर्वजों का भारत है जो बिना लड़े सूई की नोंक
के बराबर जमीन देने को भी तैयार नहीं होते थें। यह कमजोर एवं रणभीरू भारत, नेपथ्य से भारत दुर्दैव की
कर्कश गर्जना सुनकर मूर्च्छित हो जाता है। उसकी फटेहाली भारतीय विपन्नता एवं उसकी
मूर्च्द्दा आत्माविश्वास शून्यता एवं भयग्रस्तता के बिम्ब को उभारती है।
तीसरे अंक में भारत दुर्दैव एवं सत्यानाश फौजदार
अपने भारत दुर्दशामूलक प्रयोजनों को स्पष्ट करते है। भारत दुर्दैव की वेशभूषा आधी
मुसलमानी एवं आधी क्रिस्तानी है। भारत की हजार वर्षों की गुलामी को प्रत्यक्ष करने
की यह बेजोड़ नाट्य युक्ति है।
चौथे अंक में गुलाम, हीन एवं हतदर्प बनने के कारणों का उल्लेख है। कारण है आलस्य, अपव्यय,रोग, मदिरा, अंधकार।
ये अमूर्त्त, प्रतीकात्मक पात्र विस्तार से दुर्दशा के कारणों
का खुलासा करते हैं। इनकी बोलीबानी एवं वेशभूषा हास्यरसोत्पादक है। इनके संवादों
से भारत पर हमले के निमित्त की गई इनकी सैन्य तैयारी का पता चलता है।
पाँचवें अंक में भारत दुर्दैव के हमले से बचने
के लिए पढ़े लिखे भारतीयों की बैठक का जिक्र है। इसमें बंगाली, महाराष्ट्री, देशी, कवि, एडिटर आदि सजीव पात्र हैं। बंगाली, महाराष्ट्री
एवं एडिटर की सहासिकता तथा हिन्दी भाषी देशी सज्जन एवं कवि की कायरता का विसादृश्य
खड़ाकर नाटककार ने बंगाली नवजागरण एवं मराठी नवजागरण की तुलना में हिन्दी नवजागरण
के पिछडे़पन को उभारा है।
छठे अंक में सिर्फ एक पात्र- भारतभाग्य का संवाद
एवं कार्य व्यपार चित्रित है। भारतभाग्य का लम्बा गीतात्मक संवाद भारत के गौरवमय
अतीत एवं दुःखद वर्तमान दोनों को समेटता है, पर है
उबाऊ। इस संवाद को कुशल अभिनयशीलता के जरिए ही बोरियत से बचाया जा सकता है। भारत
भाग्य का आत्मधिक्कार कारूणिक है। वह अन्ततः छाती में चाकू भोंककर आत्महत्या कर
लेता है। इस आत्महत्या से, लम्बे
गीतात्मक संवाद के कारण शिथिल पड़ी नाटकीयता चरम सीमा को छू लेती है। इस संक्षिप्त
कथावस्तु में शुरू से आखिर तक एक लक्ष्योन्मुखता है। इसलिए नाटकीय आवेग कहीं
बिखरता नहीं है। इसकी अंक योजना रंगमंच के बिल्कुल अनुकूल है।
भारतेन्दु की नाट्य दृष्टि एवं रंगदृष्टि दोनों
लचीली एवं व्यावहारिक है। वे भारतीय एवं पाश्चात्य नाट्यशास्त्र के किसी एक नाट्य
रूप के शास्त्रीय विधान के अंधानुकरण से हमेशा बचते रहे हैं। उन्होंने अपने समय की
सभी प्रदर्शन-शैलियों-बंगला रंगमंच, इन्दर
सभा या पारसी रंगमंच एवं लोकरंग शैलियों - का उपयोग अपनी नाट्य-वस्तु के अनुरूप
किया है। इसलिए उनके नाटक विभिन्न नाट्य रूपों एवं रंगतकनीकों के आत्मसातीकरण के
कारण नवीन स्वरूप लेकर आते हैं।
भारत दुर्दशा का दो तिहाई भाग अन्योपदेशिक (जो
दूसरों के बहाने कहा गया हो) और एक तिहाई यथार्थ है। इस नाटक का अधिकांश भाग नौटंकी के
ढाँचे में ढला है। गीतों और गजलों का प्रयोग जहाँ एक ओर दर्शकों को भी आगे बढ़कर
हिस्सेदारी के लिए उकसाता है, वहीं दूसरी ओर प्रतीक पात्रों की रूक्षता भी कम
करता है। यह नाटक अतीत गौरव, आत्ममूल्यांकन एवं आधुनिकीकरण (कल-कारखाना लगाने
के संकेत) के जरिए प्रेक्षक को अतीत, वर्तमान
एवं भविष्य तीनों की सैर कराता है। इससे पाठक/ दर्शक को उब या बोरियत का अनुभव नहीं होता है।
लोकवार्ता एवं लोक कथा से, कथा तत्व चुनकर भी भारतेन्दु ने उस नाटक को मंचीय खूबियों से
समर्थ बनाया है। आलस्य नामक पात्र अपने संवाद में पूर्वी उत्तर प्रदेश में प्रचलित
आम की रखवाली करने वाले दो आलसियों की कथा को ज्यों का त्यों समेटकर रख देता है। उसी तरह किताब खाने
वाले अंक में कवि नामक पात्र के संवाद में जनश्रुति को समेटा गया है ‘‘मुहम्मदशाह ने भाँड़ों ने दुश्मन को फौज से बचने का एक बहुत उत्तम
उपाय कहा था। उन्होंने बतलाया कि नादिरशाह के मुकाबले में फौज न भेजी जाय। जमना
किनारे कनात खड़ी कर दी जायँ, कुछ लोग चूड़ी पहने कनात के पीछे खड़े रहें। जब फौज इस पार उतरने
लगें, कनात
के बाहर हाथ निकालकर उँगली चमकाकर कहें ‘‘मुए इधर न आइयो इधर
जनाने हैं’’। बस सब दुश्मन हट
जायँगे। यही उपाय भारत दुर्दैव से बचने को क्यों न किया जाय।
’’ ऐसे लोकवार्त्ता तत्वों से एकरसता टूटती है तथा
नाट्य संदर्भ अभिनेय बने रहते हैं।
स्ंवाद ही किसी नाटक के प्राण होते हैं।
भारत-दुर्दशा की संवाद संरचना हास्य सर्जक एवं कथा गति प्रेरक है। वैविध्य लाने के
लिए पहले तो भारतेन्दु ने गद्यात्मक एवं पद्यात्मक दोनों प्रकार के संवादों की
सर्जना की है। पद्यात्मक संवाद में नृत्य, संगीत
एवं आंगिक अभिनयशलीता के लिए पूरा अवकाश है। नाट्य निदेशक एवं नृत्य निदेशक आपसी
तालमेल से ऐसे लम्बे संवादों को मुग्धाकारी प्रस्तुति में बदल सकते हैं। लम्बे
संवाद अभिनेता के समक्ष चुनौतीपूर्ण अभिनय की समस्या उपस्थित करते हैं। भारत
दुर्दशा के लम्बे संवाद अप्रौढ़ अभिनेता के लिहाज से एक दोष है एवं दक्ष अभिनेता के
लिहाज से संभावनाशील नाट्य की चुनौती है।
इसके संवाद विनोदशीलता एवं कौतुहल के जादू से
बाँधते हैं। व्यंग्य में पैनापन है। वह सीधे हृदय में उतरता है। एक आलसी दूसरे
आलसी के बारे में कहता है ‘‘दूसरा बोला ठीक है साहब, यह बड़ा ही आलसी है। रात भर कुत्ता मेरा मुँह
चाटा किया और यह पास ही पड़ा था पर इसने न हाँका।’’ आलस्य
का यह आलम जान लेने के बाद क्या यह जानने की जरूरत रह जाती है कि आलसियों के इस
देश की गरीबी का क्या कारण है! आलसियों का आलस्य प्रेम देश प्रेम से बढ़कर है:
दोजख ही सही सिर का झुकाना नहीं अच्छा ।।
मिल जाय हिंद खाक में
हम काहिलों को क्या।
ऐ मीरे फर्श रंज उठाना
नहीं अच्छा ।।
पाँचवे अंक में किताबखाने में कुछ बुद्धिजीवियों
की बैठक चल रही है, इसी बीच डिसलायलटी आ धमकती है। दूसरा देशी पात्र
डर के मारे टेबुल के नीचे छिप जाता है। वह टेबुल के नीचे से रोता हुआ कहता है हम
नहीं हम नहीं, हम तमाशा देखने आए थे।’’ यह संवाद हिन्दी भाषी बुद्धजीवी की कायरता पर करारा व्यंग्य है।
भारतेन्दु ने तुलसी, मलूक दास आदि कवियों की काव्य-पंक्तियों के
टुकड़े लेकर भी संवाद को व्यंजक बनाया है।
‘भारत दुर्दशा’ की सफल रंगमंचीयता का एक आधार उसकी पात्र
परिकल्पना है। इसके मुख्य पात्र हैं- भारत, भारत
दुर्दैव एवं भारत भाग्य। योगी, आलस्य, मदिरा, सत्यानाश फौजदार, रोग, अंधकार, निर्लज्जता एवं आशा आदि गौण पात्र है। अब पात्रों को भिन्न-भिन्न
दृश्यों में प्रस्तुत करने के लिए श्मशान, टूटे
फूटे मंदिर, मैदान, किताबखाना, अंग्रेजी बैठक जैसे उपयुक्त स्थलों को चुना गया है। फटेहाल, विपन्न एवं भयभीत भारत को नेपथ्य से भारत दुर्दैव की गर्जना सुनाई
पड़ती है। यह नाटकीय द्वैधता है। दरिद्र एवं स्वत्वहीन भारत का अपने ऊपर विश्वास
नहीं रहा। अब उसे सिर्फ निर्लज्जता एवं आशा का ही सहारा है। इससे आत्मविश्वास
शून्य, हाथ पसारू भारत का चित्र उभरता है। रंगमंच पर
भारत दुर्दैव के समक्ष जब आलस्य जम्हाई लेता हुआ आएगा और स्त्रीवेश में मंदिरा
लड़खड़ाती हुई प्रवेश करेगी तो क्या उनकी चारित्रिक विशेषताएँ नहीं उभरेंगी? भारत दुर्दैव आक्रांता है। वह हाथ में नंगी तलवार लिए जितना
आतंकारी लगता है, भारत की कमजोरियों का अन्वेषक होने के कारण उतना
ही चतुर भी। वह कहता है: ‘‘ कहाँ गया भारत मूर्ख! जिसको अब भी परमेश्वर और राजराजेश्वारी का
भरोसा है देखो तो अब अभी इसकी क्या-क्या दुर्दशा होती है।’’ यह भारत दुर्दैव जब रंगमंच पर आधा मुसलमानी एवं आधा क्रिस्तानी वेश
बनाए ‘मुझे तुम सहज न जानो जी मुझे इक राक्षस मानो जी’ गाता
हुआ नाचता है तो विदेशी आक्रांताओं की छलपूर्ण क्रूरता प्रत्यक्ष हो जाती है।
भारतेन्दु की पात्रानुरूप भाषा रंगमंचीयता के अनुकूल है। यह भाषा टकसाली उर्दू या नवाबी जुबान के संस्कार त्याग कर लोकप्रचलित
हिंदी के संस्कार अपनाती है, जिसे हिन्दू - मुसलमान - सिख-ईसाई सभी बोलते - समझते है। ‘ भारत
- दुर्दशता’ की भाषा भी सीधे जनता से जुड़ी भाषा है। इसलिए वह दर्शक का
पर्याप्त मनोरंजन करती है। निर्लज्जता’ भारत से कहती है: ‘‘ मेरे आछत तुमको अपने प्राण की फिक्र/ छिः छिः!
जीओगे तो भीख माँगकर खाओंगे। प्राण देना तो कायरों का काम है। क्या हुआ जो धन-मान
सब गया, एक जिन्दगी हजार नियामत है।’’ ऐसी भाषा हास्य एवं व्यंग्य की फुहारे छोड़ती हुई लोक मानस को बदलती
है। इस भाषा में बनारसी बोली का रंगरोगन मिला है। मुहावरों, लोकोक्तियों से सजी यह भाषा दर्शक या पाठक से सहज आत्मीयता स्थापित
करती है। एक उदाहरण ‘‘जो पढ़तव्यं सो मरतव्यं, तो न पढतव्यं सो भी मरतव्यं तब फिर दंतकटाकट किं
कर्तव्यं?’ भई
जात में ब्राह्मण, धर्म
में वैरागी, रोजगार
में सूद और दिल्लगी में गप सब से अच्छी। घर बैठे जन्म बिताना, न कहीं जाना और न कहीं आना सब खाना, हगना, मूतना, सोना, बात बनाना, ताना मारना और मस्त रहना।’’ भारत दुर्दशा में नाटकीय संधर्ष की जो कमी है उसकी पूर्ति
भारतेन्दु अपनी इस आमफहम भाषा से ही करते है।