सूर श्रृंगार के श्रेष्ठ कवि हैं/ विरह श्रृंगार के वैशिष्ट्य
जो कवि संयोग से भी ज्यादा वियोग
में रमने और डूबने का जोखिम उठाता है,
जो बिछोह की
टीस और कचोट को तन्मयता के साथ वाणी देता है, वही श्रृंगार का रससिद्ध कवि हो सकता है। सूर की रचनाओं में वर्जनाओं से
मुक्त, स्वतंत्र नारी की छवि अंकित है।
वियोग श्रृंगार में वह नारी समर्पण,
एक निष्ठता एवं
स्वाभिमान से दीप्त होकर पहली बार पूरे भक्ति काव्य में एक अलग पहचान बनाती है।
भ्रमरगीत में उद्धव ज्ञान और योग
का पक्ष प्रस्तुत करते हैं, तो गोपियाँ प्रेम और भक्ति का । गोपियों का मन कृष्ण
से लगा रहा है। कृष्ण के प्रेम ने हर स्तर पर धैर्य की परीक्षा ली और गोपियाँ खरी उतरी
हैं। उनकी एक निष्ठता कभी डिगी नहीं। उद्धव गोपियों का सीधा-सच्चा प्रेम लेकर योग
देना चाहते हैं। गोपियाँ अदला-बदली के व्यापार से वाकिफ हैं। वे ‘जोग ठगौरी ब्रज न बिकैहे’ कहकर कतरा जाती हैं। पर उद्धव
प्रेम को खोटा और योग को खरा बताने की रट नहीं छोड़ते। वे पुनः उद्धव के योग जाल को
विच्छिन्न करने के लिए प्रेम की एकनिष्ठता का सहारा लेती हैः
उधौ मन न भये दस बीस
एक हुतो सो गयौ श्याम संग, को अवराधै ईस।
योग चित्त की वृत्तियों का निरोध करता है। गोपियों का चित्त तो कृष्ण चुरा
ले गए। अब वे किस चित्त का निरोध करें और किसे योग में लगाएँ। गोपियों के मन में
हरि-दर्शन की लालसा है। उद्धव उपदेश देकर उसे शमित करना चाहते हैं, प्रेम की भूख को ज्ञान से मिटाना
चाहते हैं। गोपियाँ कहती है:
‘अँखियाँ हरि दरसन की भूखी
कैसे रहें रूप रस राँची ये बतिया
सुनी रूखी।’
धीरे-धीरे यह प्रसंग मार्मिक होने लगता है। ‘ काली रातें, काले घने मेघ और उसमें बिजली का
चमकना, डँसकर साँप के उलट जाने की तरह
ही है’। कथन का यह बाँकपन गोपियाँ के
विरह में अनूठा सौन्दर्य भर देता है।
पिया बिनु साँपिन कारी राति।
कबहुँ जामिनी होति जुन्हैया डसि उलटी ह्वै जाति।
सूर के विरह वर्णन में घटनाओं की
विविधता नहीं है। कथ्य एकांगी है,
किन्तु कथन
भंगिमा में वैविध्य लाने की कला में सूर अपराजेय है। कृष्ण मथुरा गए और नहीं आए।
महज इतनी सी बात को सूर गोपियों की मुख से राई का पहाड़ बनाकर पेश करते हैं। उनकी
गोपियाँ कभी ‘निसि दिन बरसत नैन हमारे’ कहती हैं और आँखों पर पावस ऋतु
के उतर जाने का संकेत देती है, तो कभी अश्रु-वर्षा से पत्र के भींग जाने के अंदेशे
के कारण उसे न बाँच पाने की असमर्थता जाहिर करतीं -
कोउ ब्रज बाँचत नाहिंन पाती।
नैन सजल कागद अति कोमल, कर अँगुरी अति ताती।
दरसैं जरैं, बिलोकैं भीजैं,
दुहूँ भाँति
दुःख छाती।
मानवीय
अनुभूतियों को प्रकृति में स्पंदित होते हुए दिखाने की काव्य रूढ़ि सी रही है।
मनुष्य को लगता है कि प्रकृति उसके सुख-दुःख में रूचि लेती है, सुख में हँसती है और दुःख में
रोती है। पश्चिमी आलोचक इसे Pathetic fallacy कहते हैं। सूर अपनी कल्पना शक्ति
का उपयोग करते हुए एक ही प्रकृति में गोपियों की मनोदशाओं के अनुरूप भिन्न-भिन्न
अर्थ आरोपित करते हुए चलते हैं। एक समय वर्षा ऋतु में गोपियों को बादल बड़े भयावह
लगते हैं:
देखियत चहुँ दिसि तें घन घोरे।
मानौ मत्त मदन के हथियन, बल करि बंधन तोरे।
और कभी यही बादल जीवनदायी नजर आते हैं।
बरू ये बदराऊ बरसन आए।
तृण किए हरित, हरषि बेली मिलि,
दादुर मृतक
जीवाय।
सूर के काव्य में गोपियों के
विरह की दो अवस्थाएँ मिलती हैं- पहली प्रतीक्षा की तो दूसरी निराशा की। निराशा में
ही गोपियाँ उद्धव को जली कटी सुनाती हैं, कृष्ण को उलाहना देती हैं एवं कुबरी कोसती है। उपालम्भ विरह श्रृंगार की एक सशक्त
अभिव्यक्ति है। और तो और गोपियाँ कृष्ण की मुरली को भी उपालम्भ का विषय बनाती हैं।
कृष्ण पर भी संदेह करती हुई वे कहती हैं ‘सखि री काके मीत अहीर’,
पर पुरानी प्रीत
की आस्था उन्हें ढाढस देती है 'व्याहौं लाख धरौ दस कुबरी, अन्तहि कान्ह हमारो'। यही विश्वास
वियोग की रसात्मक अनुभूति को सृष्ट करता है, उपालम्भ को एक ऊँचाई पर ले जाता है।
संयोग के दिनों की स्मृतियाँ
गोपियों के लिए एक आश्वासन की तरह हैं। गोपियाँ जब यह जान जाती हैं कि कृष्ण अब
शायद ही गोकुल आएँ,
तो वे अब मात्र
यह चाहती हैं कि कृष्ण उन्हें याद करते रहें। वे कृष्ण के स्नेह एवं सहानुभूति को
जगाने के लिए सहचर्य के दिनों की याद दिलाती हैं। जब इससे भी उन्हें विश्वास नहीं
होता कि कृष्ण उन्हें स्मरण करेंगे तो वे उद्धव को नंद, यशोदा और गायों की दयनीय अवस्था के संबंध में बताने लगती हैं। उद्देश्य एक
ही है कृष्ण के मन मे स्नेह एवं सहानुभूति जगाना।
तुम कहियौ जै से गोकुल आवै
धेनु विकल अति चरत नहिं तृण, बच्छ न पीवन धावै
शास्त्रीय दृष्टि से हृदय पक्ष
एवं कला पक्ष के योग से ही कोई भी रचना महान बनती है। इस दृष्टि से भी सूर बहुत भारी
पड़ते हैं। उनमें जयदेव एवं विद्यापति की गीतात्मकता भी समन्वित रूप से उपस्थित है।
उन्होंने अपने हर पद में सुर और लय का खयाल रखा है। संगीत की तमाम राग-रागिनियाँ
उनके पदों में ढूँढी
जा सकती हैं।
सूर ने रसराज श्रृंगार को यदि गरिमा दी है तो अलंकारों
को भी सौंदर्य की एक नई अर्थवत्ता दी है। उनके अलंकार काव्य चमत्कार को बढ़ाते हैं।
निरखत अंक श्याम सुन्दर के बार
बार लावति छात्ती।
लोचन जल कागद मिलि कै ह्वै गई
श्याम श्याम की पाती।
यहाँ अंक और श्याम शब्दों में श्लेष है। इन पंक्तियों में श्लेष का सुन्दर
उपयोग किया गया है।
सूर ने विप्रलम्भ श्रृंगार को उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा आदि सादृष्य मूलक
अलंकारों से रसाशिक्त कर दिया है। पुराने उपमानों में कल्पना द्वारा किस तरह नए
अर्थ भरे जा सकते हैं- यह सूर अच्छी तरह जानते हैं। अलंकारिक कौतूहल एवं उपमानों
के द्वारा कहीं उन्होंने अद्भुत एक 'अनुपम बाग’
लगाया है तो
कहीं सारी उपमाओं को ही व्यर्थ करार दे दिया है।
उपमा एक न नैन गही
कविजन कहत-कहत चलि आए, सुधि करि करि काहू न कही।
गोपियाँ इसी प्रकार वियोग में कुढकर एक स्थान पर कृष्ण के अंगों के उपमानों
को लेकर उपमा को न्याय संगत ठहराती है-
ऊँधौ। अब यह समुझि भई।
नंद-नंदन के अंग-अंग प्रति उपमा
न्याय दई।।
दोनों उदाहरणों में उपमानों की उपयुक्तता और अनुपयुक्ता का आरोप हृदय के
क्षोभ से उत्पन्न है।
श्रृंगार को रसराज माना गया है क्योंकि उसमें सुख दुःख के दोनों पक्ष हैं।
इसके द्वारा जीवन की पूर्ण अभिव्यक्ति संभव है। गोपीयाँ गाय दुहते, मक्खन विलोते और दही बेचते हुए
कृष्ण को याद करती हैं। उनके प्रेम में लोक संस्कृति की झलक मिलती है, जिसमें समर्पण है तो मान
स्वाभिमान भी। वे मथुरा नहीं जाती है इसलिए कि वहाँ कृष्ण ने 16 हजार सौतों को पाल रखा है। कृष्ण
कहकर नहीं आए यह उनके क्षोभ का कारण है।
भक्ति आंदोलन में सूर ही एक ऐसे हैं जो बराबरी के
प्रेम को, अर्थ की एक नई जमीन देते हैं।
उनकी राधा यदि कृष्ण प्रेम में बावली है तो गोकुल की अदनी सी युवती भी प्रेम की
कचोट को उसी धरातल पर झेलती है,
किन्तु प्रतिष्ठा
गँवाकर नहीं। भ्रमरगीत में गोपियाँ नायिका हैं, मात्र राधा नहीं। इसके जरिए सूर ने पूरे नारी समूह को सम्मान दिया है।