सूरदास - सहृदयता, भावुकता, चतुरता, वाग्विदग्धता
सहृदयता और भावुकता का संबंध हृदय से है किन्तु चतुरता एवं वाग्विदग्धता का संबंध
बौद्धिक क्षिप्रता एवं भाषिक कौशल से है। आचार्य शुक्ल की दृष्टि में सूर जितने सहृदय
और भावुक हैं, उतने ही चतुर एवं वाग्विदग्ध भी।
सहृदयता:
सूर के सहृदयता की सबसे
बड़ी पहचान यह है कि वात्सल्य एवं संयोग विरह श्रृंगार की जितनी अन्तर्दशाएं हो सकती
हैं, वे सभी सूर के काव्य में जीवित रूप में मौजूद हैं। कृष्ण के मथुरा से न लौटने
पर नंद और यशोदा का दुःख असह्य हो जाता है। दुःख से भरे भाव उनके हृदय को आंदोलित कर
देते हैं। वियोग की तिक्तता के कारण वे एक दूसरे पर ही झुँझला जाते हैं। यशोदा कहती है
-
नंद व्रज लीजै ढोकि बजाय।
दहु बिदा मिलि जाहि मधुपुरी जहॅं गोकुल के राय।।
अर्थात् तुम्हें व्रज से मोह हैं, तुम अपना व्रज सम्हालो, मैं जाती हूँ। यशोदा के इस कथन में हृदय की तड़प का अहसास किया जा सकता
है।
सहृदयता और मातृत्व में
पर्यायता मानी जाती है। यशोदा के वात्सल्य
से संबंधित तमाम पद सहृदयता के सटीक उदाहरण हैं। कृष्ण मथुरा के राजा हो चुके हैं।
यशोदा के प्रेमपूर्ण हृदय में यह बात जल्दी
नहीं बैठती कि कृष्ण के सुख का ध्यान जितना वे रखती थी, उतना संसार में और कोई रख सकता हैं।
विरह ने गोपियों को मर्माहत
कर दिया है। शरीर से वे दुर्वल हो चुकी हैं, पर मन के स्तर पर उनकी सबलता बनी हुई है। उनके संतुलन
में काई कमी नहीं आई है। विरह ने प्रेम की एक निष्ठता को झकझोरा नहीं है। गोपियों उद्धव
से कहती हैं
ऊधौ मन न भये दस बीस
एक हुतो सो गयौ श्याम संग को अवराधै ईस।
भ्रमरगीत की गोपियाँ को उद्धव के उपदेश से संतोष नहीं मिलता। प्रेम की प्यासी
गोपियाँ भला ज्ञान से क्यों प्यास बुझाएँ। हरि दर्शन के लिए अधीर आँखों को उद्धव के
दर्शन से चैन नहीं मिलताः
‘अँखियाँ हरिदर्शन की भूखी
कैसे रहें रूप रस राँची ये बतिया सुनी रूखी।’
गोपियाँ तो गोपियाँ, पषु-पक्षी, लोनी-लता एवं कील-कुंजों ने भी कृष्ण के विरह में हृदय
पा लिया है। कदम्व की जड़ता टूट जाती है और गायों की आँखों से आँसू थमने का नाम ही नहीं
लेती। चेतन अचेतन सभी पदार्थों में सहृदयता का आरोप सूर के विशाल हृदय का सबूत देता
है।
भावुकता:
भावुकता से ही कल्पना उद्भूत होती है। जिस कवि में भावुकता
जितनी अधिक होती है, वह कल्पना शक्ति का उतना ही धनी होता है। सूर के कथ्य में विविधता नहीं है किन्तु
एक ही कथ्य को विभिन्न भंगिमाओं में प्रस्तुत करने में सूर अद्वितीय है। सूर की गोपियाँ
विरह से दग्ध हैं। कृष्ण की याद में उनकी आँखें पावस के मेघ की तरह बरसती ही रहती है।
निसि दिन बरसत नैन हमारे
सदा रहति पावस ऋतु हम पै जब ते श्याम सिधारे।
इसी प्रकार रात उन्हें साँपिन सी लगती है। साँपिन की पीठ काली और पेट सफेद होता
है तथा वह काटकर उलट जाती है। बरसात की अंधेरी रात में बादलों के बीच बिजली की चमक
कुछ ऐसी ही लगती है।
पिया बिन सॉपिन कारी राति
कबहुँ जामिनी होति जुन्हैया डसि उलटी ह्वै जाति।।
अपनी मनोदशाओं के आधार पर ही हम प्रकृति पर भाव आरोपित करते हैं। एक ही प्रकृति
हमें कभी सुखद और कभी दुःखद नजर आती है। वर्षा ऋतु में गोपियों को कभी तो बादल भयावह
लगते हैं:
देखियत चहुँ दिसि तें घन घोर
मानौ मत्त मदन के हथियन बल की बंधन तोरे।
कभी यही बादल जीवनदायी नजर आते हैं -
बरू ये बदराऊ बरसन आए।
तृण किए हरित हरषि बेली मिलि दादुर मृतक जिवाए।
भावोद्रेक और कल्पना में घनिष्ठ संबंध है। अलंकार विधान
में उपर्युक्त उपमान का चुनाव भी कल्पना या भावुकता ही करती है। अभिप्राय यह कि भावुकता का क्षेत्र व्यापक
है। सूरदास जी ने अपनी भावुकता का उपयोग कर असंख्य अन्तर्वृत्तियों का मनोरम चित्र
उपस्थित किया है।
चतुरता:
चतुरता की दृष्टि से कृष्ण के बाल्य काल एवं युवावस्था
के चित्र अनूठे हैं। ‘ख्याल परै ये सख सबै मिलि मेरौं मुख लपटायौ’ या ‘देखत ही गोरस में चींटी काढ़न को कर नायो’ में कृष्ण अपनी चतुरता से हमें मुग्ध कर लेते हैं। भ्रमरगीत
में विरह प्रताड़ित गोपियों का सच्चा हृदय ही भावनाओं के अतिरेक से उमड़ता हुआ दिखाई
पड़ता है। फिर भी सूरदास ने गोपियों से उद्धव के ज्ञान मार्ग का उत्तर हार्दिक विश्वास
एवं प्रेम के साथ-साथ चतुराई से भी दिलवाया है
ऊधौ मन नहिं हाथ हमारे।
रथ चढ़ाए हरि संग गए लै मथुरा जबहिं सिधारे।
ना तरू कहा जोग हम छोड़हि अति रूचि कै तुम लाएं।
गोपीयाँ कहती है कि अत्यन्त रूचि से लाए हुए तुम्हारे
योग को जरूर ग्रहण किया जाता किन्तु समस्या है कि मन तो हमारे पास है नहीं। श्याम उसे
अपने साथ मथुरा ले गए। अब मन के बिना योग ग्रहण कैसे किया जाए?
वात्सल्य एवं संयोग श्रृंगार की अन्तदर्शाओं में चतुरता
का समावेश सहज एवं स्वाभाविक है, किन्तु विरह में बेसुध हुई गोपियों में चतुरता को दिखलाना सुर की एक बड़ी सफलता
है।
वाग्विदग्धता
वाग्विदग्धता सूर का अपना क्षेत्र है। परम्परा प्रसिद्ध
उपमानों के साथ की गई उनकी शाब्दिक क्रीड़ाए उनकी वाग्विदग्धता को धार देती है। अलंकारिक
कुतूहल एवं उपमानों के द्वारा कहीं उन्होनें ’अदभुत एक अनुपम वाग’ लगाया है तो कहीं सारी उपमाओं को ही व्यर्थ करार दे
दिया गया है।
उपमा एक न नैन गही
कविजन कहत-कहत चलि आए, सुधि करि-करि काहू न कहि।
यहाँ सूरदास ने नेत्रों को चकोर , भ्रमर, मृग और खंजन से तुलना
इस आधार पर व्यर्थ ठहराई है कि कृष्ण के मुख चन्द्र के आभाव में चकोर के लिए जीना संभव
नहीं है, मुख-कमल कोश से दूर होकर भ्रमर रह नहीं सकता, व्याघ्र रूपी उद्धव को देखकर मृग ठहर नहीं सकते और खंजन
कभी अपनी चंचलता छोर नहीं सकता। नत्रों के विपरीत व्यापार को देखकर सब उपमान व्यर्थ
है।
गोपियाँ उसी प्रकार वियोग में कुढ़कर एक स्थान पर कृष्ण के अंगो के उपमानों को
लेकर उपमा को न्याय संगत ठहराती है।
उधो! अब यह समुझि भई।
नंद नंदन के अंग-अंग प्रति उपमा नैन गहि।
दोनों उदाहरणों में उपमानों की उपयुक्तता और अनुपयुक्तता
का आरोप हृदय के क्षोभ से उत्पन्न है। अंग शोभा और वेशभूषा आदि के वर्णन में सूर उपमा
पर उपमा, उत्प्रेक्षा पर उत्प्रेक्षा कहते चले जाते है। शुक्ल जी ने लिखा है ‘‘ सूर को वचन रचना की चतुराई
और शब्दों की क्रीडा का भी पूरा शौक था। बीच-बीच में आए हुए कूट पद इस बात के प्रमाण
हैं, जिनमें या तो अनेकार्थवाची शब्दों को लेकर या किसी एक वस्तु को सूचित करने के लिए अनेक शब्दों की लम्बी लड़ी जोड़कर
खेलवाड़ किया गया है। सूर की प्रकृति क्रीड़ाशील थी।
मुख्तसर, सूर के काव्य में सहृदयता, भावुकता, चतुरता एवं वाग्विदग्धता का अपूर्व समन्वय हुआ है।