रामचरितमानस की प्रबन्ध कल्पना
तुलसीदास हिन्दी के
ऐसे कवि हैं जिन्होंने प्रबन्धकाव्य एवं मुक्तक काव्य दोनों प्रकार के काव्य
ग्रन्थों की रचना की और दोनों ही काव्य रूपों के प्रणयन में विशेषज्ञता प्राप्त
कवि के रूप में सराहना प्राप्त की। मुक्तक काव्य में जहां छन्दों में पूर्वापद
सम्बन्ध का अभाव होता है और प्रत्येक छन्द अर्थ से स्वतंत्र होता है, वहीं प्रबन्ध काव्य
में एक सानुबन्ध कथा होती है। सम्पूर्ण धटना क्रम कार्य-कारण सम्बंध से परसपर
पूर्वापद संबंध निर्वाह करते हुए जुडा़ होता है। आचार्य शुक्ल ने इन दोनों की
तुलना करते हुए कहा है, यदि प्रबन्ध काव्य एक विस्तृत वनस्थली है तो मुक्तक काव्य एक चुना हुआ
गुलदस्ता।
तुलसीदास ने
रामचरितमानस के रूप में एक उच्चकोटि का प्रबन्धकाव्य लिखा, जिसमें सम्पूर्ण
रामकथा का नियोजन है तो दूसरी ओर विनयपत्रिका, गीतावली, दोहावली जैसे उत्कृष्ट मुक्तक काव्य भी उन्होंने रचे है। गोस्वामी
तुलसीदास ने राम कथा का मूल आधार वाल्मीकि रामायण को बनाया है, तथापि उसमें अध्यात्म
एवं अन्य तत्सम्बन्धी ग्रन्थों का भी सार निहित है। गोस्वामी जी ने अपने ग्रंथ के
प्रारम्भ में ही कह दिया है कि अनेक पुराण, वेद और शास्त्र से सम्मत तथा कुछ अन्य से भी उपलब्ध श्री रधुनाथ जी की
कथा को तुलसी दास अपने अंतकरण के सुख के लिए अत्यंत मनोहर भाषा में विस्तृत करते
हैं।
’’नानापुराणनिगमागमसम्मतं
यद् रामायणें’’
आचार्य रामचन्द्र
शुक्ल ने प्रबंध सौष्ठव के लिए तीन कसौटियां निर्धारित की हैं-
(1) सम्बन्ध निर्वाह,
(2) कथा के मार्मिक स्थलों की पहचान,
(3) दृश्यों की स्थानगत विशेषता।
रामचरितमानस में हमें
इन तीनों तत्वों का सफल निर्वाह दिखाई पड़ता है।
(1) सम्बन्ध निर्वाह- रामचरितमानस की कथा
आदि से अन्त तक अक्षुण्ण बनी रहती है। वह कहीं से भी विखंडित नहीं होती। इस
महाकाव्य में राम के जन्म से लेकर राम के राज्यारोहण तक की कथा सात काण्डों में
विभक्त की गई है जिनके नाम हैं- बालकाण्ड, अयोध्याकाण्ड, अरण्यकाण्ड, किष्किन्धाकाण्ड, सुन्दरकाण्ड, लंकाकाण्ड (युद्धकाण्ड) और उत्तरकाण्ड। तुलसी भी लिखते हैं:-
सप्त प्रबंध सुभग सोपाना।
ग्यान नयन निरखत मन माना।।
सात कांड ही इस मानस
सरोवर की सुन्दर सात सीढ़ियाँ हैं जिसकों ज्ञान रूपी नेत्रों से देखते ही मन
प्रसन्न हो जाता है।
रामचरितमानस की कथा
संवाद शैली में प्रस्तुत की गई है। इस कथा के तीन वक्ता हैं और तीन ही श्रोता है।
तीन वक्ताओं के नाम हैं- भगवान शिव, काकभुशुंडी एवं याज्ञवल्क्य जी तथा तीन श्रोताओं के क्रमशः नाम है-
पार्वती, गरूड़जी तथा भारद्वाजजी।
चेतना के तीन स्तरों
पर एक साथ कथानक को अभिव्यक्त करते हुए उसमें सम्बन्ध निर्वाह कर पाना निश्चय ही
तुलसी की विलक्षण काव्य प्रतिभा का द्योतक है। भले ही वह तीन अलग-अलग वक्ताओं
द्वारा कही गई कथा हो, किन्तु उसमें कहीं भी कथाक्रम टूटने नहीं पाता। कहीं भी कथा बोझिल
नहीं हुई है तथा कहीं भी वह असम्भाव्य प्रतीत नहीं होती।
तुलसी ने किसी भी
घटना की पुनरावृत्ति इस कथा में नहीं की है। एक बार सम्पन्न घटना को दुबारा कहने
का अवसर यदि कहीं आया है तो तुलसी ने केवल उसका उल्लेख मात्र कर दिया है। निश्चय
ही रामचरितमानस का कथानक सुसंगठित, सुसम्बद्ध एवं कार्य-कारण श्रृंखला में बंधा हुआ है। उसमें नाटकीयता
हैं। कथा को रोचक, आकर्षक एवं रोमांचक बनाने के लिए उसमें असाधारण एवं अलौकिक कार्यो का
समावेश किया गया है। निश्चय ही रामचरितमानस के कथानक में सम्बन्ध निर्वाह उत्कर्ष
पर विद्यमान है।
(2) कथा के मार्मिक स्थलों की पहचान- एक सफल प्रबन्धकार वही हो सकता है जिसे कथा के मार्मिक स्थलों की सही पहचान हो। रामचरितमानस में तुलसी ने अपनी इस शक्ति का बखूबी परिचय दिया है। रामकथा के अन्तर्गत आने वाले कुछ ऐसे मार्मिक प्रसंग इस प्रकार हैं- राम-सीता का वाटिका में मिलन, राम वनगमन, चित्रकूट प्रसंग, सीता-हरण, लक्ष्मण शक्ति, आदि। तुलसी को इन स्थलों की वखूबी पहचान थी। ऐसे स्थलों पर उनका मन बहुत रमा है और उन्होंने बड़े विस्तार से इन स्थलों पर कथा का वर्णन किया है। पुष्पवाटिका में राम-लक्ष्मण के सौन्दर्य का अवलोकन करती हुई सीता को वे कैसे लगे इसका वर्णन करते हुए तुलसी कहते हैं-
लताभवन तें प्रगट भे तेहि अवसर दोउ भाइ।
निकसे जनु जुग बिधु जलद पटल बिलगाइ।
(उसी समय दोनो भाई लता
मंडप/कुंज में से प्रकट हुए मानो दो निर्मल चन्द्रमा बादलों के पर्दे को हटा कर
निकले हो। )
तुलसीदास जी का हृदय
पक्ष इन अवसरों पर प्रबल हो उठा है। रामचरितमानस के ये वर्णन पाठकों को इतने अधिक
रुचिकर लगते हैं कि वे इन्हें बार-बार पढ़ना-सुनना चाहते हैं। ऐसे स्थलों को पढ़कर
पाठक रोमांचित हो उठते हैं। कवितावली एवं गीतावली में भी तुलसी ने इन मार्मिक
स्थलों को बड़ी कुशलता से प्रस्तुत किया है।
तुलसीदास जी ने उन
कथा प्रसंगों को कोई महत्व नहीं दिया जिनमें घटना का उल्लेख मात्र करने से काम चल
जाता है। जब राम लंका विजय करके अयोध्या लौटे तो तुलसी ने उस यात्रा का वर्णन
मात्र दो चार चौपाइयों में कर दिया है। तुलसी ने अपनी अनोखी सूझ-बूझ का परिचय देकर
‘मानस’ की प्रबन्ध पटुता में
चार चांद लगा दिए हैं। जो प्रसंग उन्हें अरुचिकर एवं अशोभीनीय लगे उनको बड़ी चतुराई
से वर्णन से बाहर निकाल दिया। यथा शिव पार्वती का विवाह हाने के उपरान्त उनके
संयोग श्रृंगार का वर्णन करने से बचने हेतु वे यह कहते हैं-
जगत मात पितृ भवानी।
तेहि सिंगार न कहूं बखानी।?
करहिं विविध विधि भोग
विलासा। गणन समेत बसहिं कैलासा।
3. दृश्यों की स्थानगत
विशेषताएं- प्रबन्ध काव्य के लिए दृश्यों की स्थानगत विशेषताओं की प्रामाणिक
जानकारी होनी भी आवश्यक है। अर्थात् प्रबन्ध काव्य में जिन ऐतिहासिक स्थलों, नदियों, मार्गों, आदि का वर्णन किया
गया हो वह पूर्णतः प्रामाणिक होना चाहिए तथा उस स्थान की विशेषताओं को पूर्णतः
स्पष्ट करने वाला होना भी आवश्यक है।
राम कथा के अन्तर्गत
तुलसी ने अयोध्या, जनकपुरी, लंका, आदि का प्रामाणिक वर्णन किया है। साथ ही राम के वनगमन करते समय बीच
में पड़ने वाले पर्वतों, वनों, नदियों एवं अन्य स्थानों एवं दृश्यों का स्वाभाविक वर्णन उन्होंने
किया है। चित्रकूट पर्वत का वर्णन तुलसी ने बड़ी कुशलता से किया है। युद्ध वर्णन
में विभिन्न हथियारों, अस्त्र-शस्त्रों, योद्धाओं की मनोदशाओं के निरूपण की शैली भी काफी उत्कृष्ट है। विभत्स
रस, वीर रस या भयानक रस
की स्थिति में वे युद्ध का आँखों देखा हाल सा चित्रण करते हैं जैसे -
जंबुक निकट कटकट कटहिं। खाहिं हु आहिं अधाहिं दप्पटहिं।।
सारांश रूप में यह
कहा जा सकता है कि तुलसी में प्रबन्ध रचना की अद्भूत प्रतिभा विद्यमान थी।
रामचरितमानस हिन्दी प्रबन्ध काव्यों में अद्वितीय स्थान का अधिकारी है।