कबीर:
काव्यात्मकता
कबीर की कविता पर अकाव्यात्मकता के आरोप लगते रहे है। आज की कविता के मूल्यांकन में कविता की सामाजिक सम्बद्धता को एक कसौटी के रूप में अपनाया जाता है। कबीर की कविता युग जीवन की पीड़ा को आत्मसात करती है। उसमें मानवीय हक और अधिकार से वंचित लोगों की कराह है, समानता के लिए तड़प है। कबीर की कविता अपने समय के सामाजिक वैसम्य पर एक आलोचनात्मक टिप्पणी है।
यदि कविता अनुभूति को ही महसूस करने और रचने का ही नाम है तो कबीर की कविता उस गुण से भी खाली नहीं है। वह ‘आखिन देखि’ सच्चाई का मुहफट बयान दर्ज करती है फिर उसे कविता न मानने का कोई आधार नहीं बनता।
कबीर का प्रयोजन कवि बनना नहीं था। वे तो मानते थे कि कवि मरणशील प्राणी है। वह कविता लिखता है और मर जाता है: ‘कवित पढे पठि़ कविता मुए’ ऐसा मरण धर्मा कवि भला वे क्यों बनना चाहे। वे पाठको का भ्रम दूर करते हुए कहते हैं कि तुम जिन्हें गीत समझते हो वह गीत नहीं मेरा ब्रह्म संबंधी विचार है।
तुम जिन्हि जानो गीत हौ, सो निज ब्रह्म विचार।
केवल कहि समझाइया, आतम साधन सार रे।।
कबीर ने कविता नहीं लिखी उन्होंने तो ब्रह्म संबंधी विचार व्यक्त किया लेकिन इसी क्रम में यदि पाठकों को युगान्तकारी कविता मिल गयी है तो फिर हम उसे कविता क्यों न माने। एक आलोचक ने कहा है कि कवि क्या कहता है? उसपर मत जाओ। उसकी कविता क्या कहती है ? इस पर जाओ। द्विवेदी जी ने इसी कारण इसे धलुए में मिली हुई वस्तु कहते है।
जो जनता अकारण शोषण का शिकार थी। विषमता के दो पाटों के बीच पीस रही थी कबीर इनमें समानता की चाह भरने की कोशिश करते हैं। उसमें जीने का हौसला पैदा करते हैं। इसी कारण उसमें उपदेशात्मकता भी है। श्रोताओं से संवाद बनाने वाली श्रोतोंन्मुखी कविताएँ उपदेशात्मक होने के लिए विवश होती है। उस मध्य युग की यह मजबूरी थी कि सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक अभिप्रायों की अभिव्यक्ति के लिए भी लोगों को धर्म की आड़ लेनी पड़ती थी। कबीर के लिए भी धर्म एक आवरण है। दूसरी बात यह कि सिर्फ धार्मिकता के कारण कोई रचना कविता के दायरे से बाहर नहीं हो जाती। आचार्य शुक्ल भले हीं आध्यात्मिकता और धार्मिकता को कविता का विषय न मानते हो लेकिन दुनिया के दिग्गज आलोचकों ने आघ्यात्मिकता को कविता के अंतर्गत रखकर देखा है। टी0 एस0 इलियट ‘धर्म और साहित्य’ नामक निबंध में साहित्य के मूल्यांकन के लिए दो प्रतिमानों की चर्चा करते है- साहित्यिक और साहित्येत्तर। साहित्येत्तर प्रतिमान उनकी राय में धार्मिक प्रतिमान ही है। यदि आध्यात्मिकता साहित्य के लिए त्याज्य नहीं है तो फिर कबीर को उनकी आध्यात्मिकता के लिए आरोपों के कट घड़ें में खड़ा करने की क्या जरूरत ?
किसी भी कवि के मूल्यांकन के लिए चार शर्त्तों निर्धारित की जाती है -
1 काव्य प्रतिभा,
2 काव्य व्यक्तित्व,
3 अनुभूति और
4 काव्यकला।
कबीरदास के विरोधी भी मानते हैं कि कबीर की प्रतिभा बहुत प्रखर थी। प्रतिभा दो तरह की होती है - भावयित्री प्रतिभा और काव्येत्री प्रतिभा। भावयित्री प्रतिभा भावों का संचयन करती है और काव्येत्री प्रतिभा उसे सुदृढ़ अभिव्यक्ति में ढ़ालती है। कबीर अपने प्रतिभा के बल पर हीं अनुभूति और अभिव्यक्ति में सामंजस्य स्थापित करते हैं। वे इसके जरिए हीं हजारों वर्षों की काव्य परंम्परा में नया मोड़ पैदा करते हैं। प्रतिभा हमेशा स्वतंत्रता की मांग करती है। वह बंधन विरोधी होती है। कबीर की प्रतिभा समाज के विशाल तबके पर बेवजह लादे हुए नियमों निषेधों का विरोध करती है। रूढ़ियाँ, अंधविश्वासों की खिल्ली उड़ाती है। शोषित, पीड़ित आबाम में स्वतंत्रता की कामना पैदा करती है।
इस प्रकार प्रतिभा के कारण ही वे एक युगान्तकारी कवि व्यक्तित्व है और इस कवि व्यक्तित्व से वे अपने अनुयायी कवियों और दबे कुचले समाजों को रास्ता दिखाते हैं। हिन्दी कविता में निर्गुण भावना और मुक्तक काव्य रूप को प्रतिष्ठित करने का उन्हें श्रेय है। यह सारा कुछ उन्होंने अपनी प्रखर प्रतिभा और प्रभावकारी व्यक्तित्व के आधार पर ही किया था।
अनुभूति ही कविता का प्राण है। कविता में कवि अनुभव की ही पुनःरचना करता है। कायदे से देखे तो कविता और कुछ भी नहीं सिद्ध करती है, सिवाय अनुभव के रचने के। अपने समय की सरल जटिल अनुभूतियों की क्रिया प्रतिक्रिया करते हुए, उन्होंने अपना काव्य सत्य पाया था। उनकी कविता की सच्चाई ‘आखिन देखि’ सच्चाई है। वे इन सच्चाइयों को ‘अनभय साँचा’ कहते है। वे अनुभूतियों को सिर्फ महसूस कर रचना में ढ़ाल नहीं देते बल्कि उन्हें पारख पद की कसौटी पर कस कर देखते हैं। उनकी हर अनुभूति ठोक बजाकर अपनायी गयी अनुभूति है। कबीर की कविता में तीन प्रकार की अनुभूति मिलती है- प्रणयानुभूति, नश्वरता की अनुभूति और सहजानुभूति। कवि के यहाँ प्रणयानुभूति का रंग आध्यात्मिक हैं। कबीर की आत्मा अपने प्रियतम ब्रह्म के लिए तरपती है, आँखे अनुच्छंद प्रतिक्षारत रहती है। विकलता के कारण आँखों से अनवरत आँसू बहते रहते हैं माना आँखों से रहट चल रहा हो । उनकी आत्मा हमेशा पपीहे की तरह पीउ-पीउ की रट लगाती है।
ये अखियाँ अलसानी, पियारे सेज चलो।
खम्भ पकड़ि पतंग अस डोले, बोले मधुरी बाणी।
फूलन सेज बिछायी जो राख्यो, पिया बिनु कुम्हिलानी।
धीरे पाँव धरो पलना पर, जागत ननद जेठानी।
कहे कबीर सुना भाई साधो, लोकलाज विछलानी।
कबीर की प्रणयानुभूति विरह से शुरू होती है एवं अद्वैत, कैवल्य में जाकर अपना अंत ढ़ूढ़ती है।
कबीर अद्वैतवादी होने के कारण ही संसार के मिथ्यात्व की बात करते है। उनके लिए यह संसार ‘काँचा घट’ है जिसका टूटना तय है। यह संसार ‘कागद की पुड़िया’ के समान है, बूंद पड़ते ही जिसका गल जाना तय है।
ऐसा यहु संसार है, जैसा सेमल फूल।
दिन दस के व्यवहार मे, झूठे रंग न भूल।।
सहजानुभूति का एक संदर्भ यदि आध्यात्मिक है तो दूसरा सामाजिक। सहजानुभूति, विशिष्टतावाद भोगवाद का विरोधी है। भोगवाद शोषण के जरिए अर्जित अकूत संपत्ति है और यह प्रतिरोध मुक्त समाजिक-आर्थिक व्यवस्था से उपजता है। भोगवाद विशिष्टतावाद है। कबीर दास जी ने इमान और जमीर को बचाए रखने के लिए सामान्य जीवन जीने और सहजता को अपनाने की सीख दी है।
खुब खाना खिचड़ी, जा में अमृत लोण।
फेरा रोटी कारने, सीस कटावे कोण।।
कबीर ने अलंकार शास्त्र नहीं पढ़ा था लेकिन विलक्षण अभिव्यक्ति के कारण उनकी कविता में अलंकार दबे पाँव चले आते हैं। उनके यहाँ अलंकार शोभा कारक धर्म नहीं है वह अनुभूति का रचनात्मक हिस्सा है। काव्य, विषय से स्वतः अलंकार चुराते है और कविता में सुंदर सादृष्य लोक रचते हैं। अलंकार, शब्दशक्ति, रस सिर्फ पढ़े लिखे लोगों की बपौती नहीं है वह हर अनुभव चेतन प्राणी की नैसर्गिक थाती भी है। उदाहरण
सांगरूपक
कबीर घोड़ा प्रेम का, चेतनि चढ़ असवार।
ग्यान खड़्ग गहि काल सिरि, भली मचाई मार।।
उपमा
पानी केरा बुदबुदा, अस मानस की जात।
देखत ही छिप जाएगा ज्यूँ तारा परमात।।
अन्योक्ति
काहे री नलिनी तू कुम्हिलानी
तेरे ही नाल सरोवर पानी।
अनुप्रास
केशव कहि-कहि कूलिये, मत सोइए असरार।
कबीरदास जी का शायद ही कोई दोहा हो जिसमें कोई न कोई अलंकार न हो। वे तो प्रतीकों और बिम्बों की भी झड़ी लगा देते हैं। उपमानों का इतना सधा प्रयोग अन्यत्र कम मिलता है। कबीर की कविता में अनुभूतियाँ हैं। ये अनुभूतियाँ समाज और जीवन की हीं सच्चाईयों को चित्रित करती है। कबीर के काव्य में काव्यात्मकता नहीं है। फिर भी सुधी आलोचक उसमें रस ढ़ूढ़ते हैः ‘हरि जननि मैं बालक तेरा‘ में बात्सल्य भाव है, ’हरि मोर पिंउ मै पिया की बहुरिया’ में आध्यात्मिक श्रृंगार, सुरमा को अंग में वीर रस ढूढ़ने वाले ढूढ़ते हीं हैं। कबीर की कविता आध्यात्मिक होने के कारण सर्वत्र शांत रस से जुड़ी है। जहाँ कबीरदास जी समाज की विद्रुपताओं पर प्रहार करते है, वहाँ हास्य और व्यंग भी है। जो कविता विभिन्न रसों से जगर-मगर करती है। अलंकार, बिम्ब, प्रतीक से गुथी हो, अपने समय के साथ जिसने सीधा साक्षात्कार किया हो, जो कविता अंधकार में भटकते हुए लोगों के लिए समय की लुकाठी साबित हुई हो उसे कविता न मानना सच पर पर्दा डालना है।
काव्यरूप की दृष्टि से देखे तो कबीर ने साखी, सवद, रमैनी, चौतीसा, चाँचर, हिंदौला आदि का अपने रचना में उपयोग किया है। छंदो की दृष्टि से दोहा, सोरठा, चौपाई, वीर, अरिल्ल, लावनी आदि का भरपूर उपयोग कबीर के काव्य में देखा जा सकता है। कबीर की रचनाओं में गेयता है। गुरू ग्रंथ साहिब में संगृहीत कबीर के पद विभिन्न रागों में वर्गीकृत कर प्रस्तुत किये गये है जैसे सिरी रागु, रागु गउड़ी, रागु आसा, रागु गूजरी आदि।