कबीर का रहस्यवाद
‘रहसि भवम् रहस्यम्’! रहस्य का अर्थ है गोपनीय, गुप्त, गुह्य। प्राइवेट में सम्पन्न होने वाली अनुभूति ही रहस्य
है। एकान्त साध्य कर्म ही रहस्य है। ब्रह्म भी इसलिए रहस्य है कि वह एकान्त में
सम्पन्न हाने वाली प्राइवेसी है। रहस्य भावना है परोक्ष के प्रति जिज्ञासा।
शब्द विकल्पों के जनक हैं। इन विकल्पात्मक शब्दों के द्वारा
जब ब्रह्म का निवर्चन किया जाएगा तो धोखा ही होगा। कबीर कहते हैं-
संतों धोखा का सु कहिए
जस
कहत तस होत नहीं है
जस
है तैसा होहिं।
ब्रह्म न तो किसी शब्द का मोहताज है न किसी परिभाषा का। अभिव्यक्ति जो ससीम है वह असीम को नहीं बांध सकती। कबीर दास इस ब्रह्म को ढ़ुढ़ने के बाद, जब कहीं कुछ प्राप्त नहीं कर पाते तो अंततः झुझलाकर कहते हैं, ‘तहां कछु आहि की शुण्यम वहां कुछ है भी कि शुण्य ही शुण्य है। कबीर दास जी का ब्रह्म शुण्य है और इसलिए रहस्य है।
कबीर दास के रहस्यवाद
को बने बनाये ढाँचे में भी रखकर देखा जा सकता है, लेकिन जिस तरह कबीर दास जी स्वभाव से ही ढाँचा तोड़क कवि हैं
कविता में, उसी तरह वे ढाँचा तोड़क है, अध्यात्म में। इसी कारण कोई उसे सिद्धों-नाथों के
राहस्यवादी ढाँचे में रखकर देखता है और कोई सूफी सम्प्रदाय के ढ़ाँचे में। ईसाई
रहस्य मर्मियों के ढाँचे में रखने से भी कबीर दास जी का रहस्यवाद उसमें सोलहो आने
फिट हो जाता है। सभी प्रकार के रहस्यवाद का अट जाना ही यह सिद्ध करता है कि उसका
कोई एक ढाँचा नहीं है।
कबीर ने अपने रहस्यवाद
के लिए सूफियों की तरह प्रेमगाथा का सहारा नहीं लिया है, अद्वैतवादियों की तरह
कोई व्याख्या भी नही दी है। उन्होनें ईसाई रहस्यवादियों की तरह संस्मरणों को
लेखबद्ध भी नहीं किया है, किन्तु उनके रहस्यवाद में भावना के विकास का एक उत्तरोत्तर
क्रम खोजा जा सकाता है।
रहस्यवाद की चार
विशेषताएँ हैं- प्रेम, आध्यात्मिकता, सतत् जागृति तथा भावना के साथ हृदय की उन्मुखता।
कुमारी अंडरहिल ने रहस्यवाद की पाँच अवस्थाएँ मानी है-
1. परिवर्तन,
2. अध्यात्मिक जागरण,
3. उद्भाषण या दिव्यीकरण,
4. आत्म समर्पण और
5. मिलन या संयोग।
सामाजिक असंतोष एवं बराबरी की चाह परिर्वतन से ही संभव है।
यह परिर्वतन ईश्वर के मिलन से ही संभव है। यही ब्रह्म के प्रति जिज्ञासा पैदा करती है। इस हेतु आध्यात्मिक
जागरण आवश्यक है। साधक में आध्यात्मिक जागरण गुरू कृपा से आता है। गुरू ही लौकिक
संबंधो से काट कर उसे आध्यात्मिक संबंध में बांधता है।
रहस्यवादियों का पथ अनालोकित होता है। इसलिए उस पथ पर चलने के लिए ऐसे पंथी का
मार्गदर्शन आवश्यक है, जो उस पर पहले चल चुका हो। कबीर दास कहते हैं कि मैं तो
बहुत निश्चित होकर लोकवेद का मार्ग पकड़े चला जा रहा था कि आगे गुरू मिल गया।
‘‘कबीर पीछे लागा जाइ था, लोक वेद के साथ।
आगे थै ए सतगुरू मिल्या, दीपक दिया हाथि।।’’
कबीर गुरू के बिना जर्जर नाव पर भवसागर पार करना सोंच रहे
थे वह डूबती हीं
‘‘ डूबा
था पै ऊबरा, गुरू की लहरि चमंकि।
भेरा देख्या जरजरा, ऊतरि पड़े फरंकि ।।’’
कबीर दास जी मानते हैं कि यदि गुरू नहीं मिलता तो बड़ी हानि
होती।
‘भली
भई जो गुरू मिल्या नहि तर हो ति हानि‘
कबीर दास जी ईश्वर, गुरू
और जीवात्मा में भूमिका भेद के बावजूद अभिन्नता मानते हैं और इस कारण उनकी वाणी
में कुछ अटपटापन आ जाता है। लेकिन ध्यान से देखें तो उसमे एक स्पष्ट अद्वैत दृष्टि
दिखेगी। ब्रह्म प्राप्ति के बाद ब्रह्म में, गुरू
में, जीवात्मा में फर्क कहाँ रह
जाता। कबीर का जो गुरू है वही ब्रह्म के दीदार से सद्गुरू हो जाता है- ‘गुरू
गोबिंद तौ एक है, दूजा यह आकार’ । यह
सद्गुरू ही कबीर का ब्रह्म या मोमिन है | गुरू के कारण साधक की
जीवात्मा अपने सही स्वरूप को पहचानती है। ब्रह्म के परिप्रक्ष्य में ही अपने को
देखना आत्म-ज्ञान है। कबीर की जीवात्मा खुले नेत्र से उस ब्रह्म को देखती है और
उसे पहचानते हुए अपनी पहचान निर्धारित करती है। एक वार जैसे हीं उस ब्रह्म के
दर्शन होते हैं तो कबीर की आँखें चौंधिया सी जाती है वह एक विलक्षण अनुभव है जिसे
बांटा नहीं जा सकताः
‘‘पार ब्रह्म के तेज का, कैसा है उन्मान।
कहिबे कौ सोभा नहीं, देखे ही परमान।।’’
यह दर्शन गुरू की सहायता से ही संभव है। इस दर्शन के बाद
विलग होते ही जीवात्मा पुनर्दर्शन के लिए तड़प उठती है। कबीर उसे चारो ओर ढुढ़ते
हैं। उसकी छवि हर क्षण आँखों में बसी रहती है।
‘दुइ दुइ लोचन पेखा, हरि बिनु अउरू न देखा।’
यह वियोगिनी जीवात्मा प्रेम के कारण ही उस दिव्य अनुभूति से
तदाकार के लिए विकल हो जाती है
‘आठो पहर मतवाला लागि रे
आठो पहर साँझ की धौक पिउ पिउ’
X X X
चकवी बिछुरी रैणि की, आई मिली परभाति।
जे जन बिछुरे राम से, ते दिन मिलें न राति।।
कबीरदास के रहस्यवाद में प्रेम को बहुत महत्व दिया गया है।
उनका प्रेम भी विरह में ही परिपक्व होता है। कबीर का प्रेम उपर से देखने से जितना
सरल दिखता है उतना है नहीं। उनका प्रेम तो आत्मविसर्जन है। अपने को देकर ही उस परम
प्रिय ब्रह्म को पाया जा सकता है।
‘‘कबीर यह घर प्रेम का, खाला का घर नाहिं।
सीस उतारै भूइ धरे, सो पैठे घर माहिं।।’’
इस प्रेम के लिए साधक को पूर्णतः अहम् से मुक्त होकर ब्रह्म
के लिए समर्पित हो जाना पड़ता है। यहाँ आत्म विसर्जन से पछतावा
नहीं होता सुख मिलता है।
‘कहे
कबीर प्रेम का मारग,
सिर देना तो रोना क्या रे’
अन्तिम अवस्था है चिर
विरह के बाद चिर संयोग यहाँ जीवात्मा की सारी बेचैनी समाप्त हो जाती है। अहम्’ और इदम’ का फर्क नहीं रह जाता ‘मैं’ और ‘पर’ का द्वैत मिट जाता है।
‘‘मैं सबनि औरनि मैं हूँ सब
मेरी विलगि-विलगि विलगाई हो।
कोई कहौ कबीर, कोई कहौ रामराई हो।’’
यही अद्वैत अवस्था है
जहाँ व्यक्ति चेतना विश्व चेतना में समाहित हो जाती है। यहाँ इस अवस्था में ही
कबीर को कोई कबीर कहता है कोई रामराई कहता है। जब कोई कबीर को पुकारता है तो राम
जवाब देते हैं और जब राम को पुकारता है तो कबीर जवाब देते हैं। इन दोनों की भूमिकाएँ
पहले अलग-अलग थी अब एक हैं। कबीर की जीवात्मा कहती है कि अब इस अवस्था में जो गति
ईश्वर की होगी वही मेरी होगी। ‘हरि मरिहैं तो हमहु मरिहैं, हरि न मरिहैं तो हम काहे को मरि हैं’। जीवात्मा भी परमात्मा
में मिलकर परमात्मा के गुणों से विभूषित हो जाती हैं दो का एक हो जाना ही अद्वैत
है। कबीर ने इसे जल और घड़े के रूपक द्वारा स्पष्ट किया है।
जल में कुंभ कुंभ में जल है, बाहर भीतर पानी।
फुटा
कुंभ जल-जल ही समाना यह तत्व कथो गियानी।।
रहस्यवाद बुद्धि विरोधी
दर्शन है। तर्क विरोधी या बुद्धि विरोधी होने के कारण ही यह एक प्रगतिशील दर्शन
नहीं है। उसका स्वरूप शुद्ध आस्था पर निर्भर होने के कारण प्रतिक्रियावादी है।
कबीर ने विभिन्न धर्मों के संकीर्णता के विरूद्ध, पंडितो और मुल्लाओं के कठमुल्लेपन के विरूद्ध विद्रोह किया।
उनका विद्रोह तत्कालिन ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में प्रगतिमूलक था। इसलिए कबीर के
रहस्यवाद पर व्यवहारिक दृष्टि से विचार करना चाहिए। रहस्यवाद प्रगतिविरोधी होकर भी
एक ऐतिहासिक कालखंड में प्रगतिशील भूमिका अदा करता रहा है। कबीर ने रहस्यवादी पदों
में ही अपनी कवि कल्पना का सही समर्थ उपयोग किया है। यह ठीक है कि रहस्यवाद
पारलौकिक अनुभूतियों का साक्ष्य है। यह अनन्त मिलन का गोपनीय खेल है, इसमें सबकी रूचि नहीं
हो सकती, फिर भी कबीर ने इसे
रूचिकर बनाने के लिए प्रतीकों, रूपक और विरोधाभासों, उलटबाँसियों का व्यवहार किया है। वे अपने आध्यात्मिक बोध को, लौकिक संबंध का रूपक
खड़ा कर समझाने की कोशिश करते हैं। इससे उनका दुर्बोध्य अनुभव भी सुबोध्य हो जाता
है। जिनका रस दृष्किोण श्रृंगार साहित्य के परिप्रेक्ष्य में बना है, कबीर का रहस्यवाद उन
रसिको की दृष्टि मे रूखा है। आभिजात्य दृष्टि वाले पाठक ही निर्गुण भक्ति और
मुक्तक काव्य रूप में विस्तृत कथात्मक रस भूमि न देखकर विदगते हैं। जो पाठक सहज
अनुभूति में ही रस तलाशते हैं उन्हें कबीर निराश नहीं करते। उनकी रचना में टटकी
अनुभूतियों की अविरल अभिव्यक्ति हुई है, इसलिए उनका रहस्यवाद साधारण मनुष्य को आकर्षित करता है।